इक रात भी ऐसी आई थी,
जब चांद ज़मीं पर उतरा था
खिड़की से तुमको घूरते हुए
चांद को हमने पकड़ा था...
तब कान पकड़कर हमने उससे
उठक-बैठक कराई थी
आईंदा ऐसा नहीं करेंगे
उसने क़सम ये खाई थी
ओके बेटा कहकर हमने
चांद को चपत लगाई थी
तेरे रूप पे चांद भी फिसला
इक रात भी ऐसी आई थी...
इक रात भी ऐसी आई थी,
जब चांद ज़मीं पर उतरा था
खिड़की से तुमको घूरते हुए
चांद को हमने पकड़ा था...
तेरे रूप का दीवाना वो
थोड़ा बहका-बहका था
हौले-हौले, चुपके-चुपके
तेरी छत पे दुबक के बैठा था
इक तारा तोड़के अंबर से
तेरे बिस्तर पर फेंका था
पीछे से जाकर हमने उसको
ज़ोर से डांट पिलाई थी..
इक रात भी ऐसी आई थी,
जब चांद ज़मीं पर उतरा था
खिड़की से तुमको घूरते हुए
चांद को हमने पकड़ा था...
- पुनीत भारद्वाज