मुझे कार्नर वाली सीट चाहिए....डोंबिविली फास्ट
हमारे आसपास इतनी गंदगी है कि सच झूठ का फैसला करना बेहद मुश्किल हो गया है..ऐसे में अगर अपनी जिंदगी की जद्दोजेहद से कुछ पल फुर्सत के मिल जाएं तो आदमी सोचने पर मजबूर हो जाता है कि वो अपने नहीं बल्कि एक भीड़ के साथ जी रहा है..जो रोज़ सुबह उसे नींद से जगाती है..उसे खाना खिलाती है..दफ्तर के लिए तैयार करती है..बस या ट्रेन में सफर कराती है औऱ फिर वही भीड़ शाम तक न जाने ऐसे कितनी शख्सियतें निगल जाती हैं.. हम सब रोज़ ऐसे ही जीते हैं..औऱ जीते रहेंगे खासकर तब तक जब तक कि इस रुटीन से अपन चिढ़ न जायें..
कुछ ऐसा ही कहती है निशीकांत कामथ कि फिल्म 'डोंबिविली फास्ट' जिसमें एक आदमी खुद को भीड़ से अलग करने के चक्कर में मारा जाता है..वो भी ऐसे में जब सारी दुनिया गांधीजी के तीन बंदरों जैसी जिंदगी बसर कर रही है...शहर है,भीड़ है, बुराई है पर किसी को न तो वो नज़र आती है, न सुनाई देती है..ऐसे में संदीप कुलकर्णी के सामने इतना कुछ घटता है कि वो खुद को अच्छाई के रास्ते पर चलने से रोक नहीं पाता..ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि बुराई के लिबास में जीते जीते कभी कभी इतनी सडन होती है कि आदमी के अंदर की अच्छाई छलांग लगाकर बाहर आना चाहती है..क्योंकि कई बार चुप्पी भी बुराई का सबब होती है.. किसी कवि ने कहीं लिखा है..
हम चुप रहे कि सब चुप हैं
वो चुप रहे कि हम चुप हैं
आओ बात करें उस चुप्पी पर
जिसे लेकर हम इतने समय तक चुप्प रहे..
मैनेजर चाहता है कि माधव आपटे(संदीप कुलकर्णी) कुछ भी ले देकर एक फेक बिल पास करे,माधव कि पत्नी मीडिल क्लास जिंदगी से तंग आ चुकी है, मोहल्ले में पानी सप्लायर पानी देने के पैसे मांगता है,दुकान वाला टैक्स चोरी करने के चक्कर में हर चीज़ एमआरपी से ज्यादा पर बेचता है..ये सारी बातें मिलकर माधव को फरस्ट्रेट करती हैं..नतीजा हिंसा में बदलता है..बंदा एक क्रिकेट का बल्ला लेकर मुंबई को सुधारने निकल पड़ता है.. नतीजा सारे शहर में दहशत फैल जाती है..
पुलिस माधव को पकड़ने में नाकाम रहती है तो उसे मारने पर तुल जाती है..घटनाएं,घटनाएं औऱ घटनाएं..और उन्हें फिल्माने के रोचक अंदाज़ में फिल्म कब खत्म हो जाती है..पता नहीं चलता..माधव आपटे उसी ट्रेन में मारा जाता है जिसमें रोज़ सफर करता था..आफिस जाते वक्त..गोली लगने के बाद वो इंन्सपेक्टर को सिर्फ इतना कहता है कि मुझे कार्नर वाली सीट पर बैठा दो..औऱ खिड़की खोल दो.. क्योंकि वो जिंदगीभर खड़े खड़े ही सफर करता आया है..
तुषार उप्रेती
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