अजनबी शामें हैं, अजनबी रातें
अजनबी से किस्सें, अजनबी बातें
पता भी नहीं कुछ, ख़ता भी नहीं कुछ
हमदम है या रक़ीब है
ये शहर कितना अजीब है...
ख़्वाबों की झिलमिल राहें यहां
देखती, चौंकती, काटती निग़ाहें यहां
गले लगाती है या गला घोंटना चाहती है
ना जाने किस मकसद से फैली बाहें यहां
कहीं दौर है तूफ़ानों सा
कहीं दरिया सी रवानी है
भागती, रौंधती, रेंगती ज़िंदगानी है
क्या कहूं.. कहने को दो लब और लंबी सी कहानी है
हर रोज़ सुलाता है
जगाता है,
फिर से सुलाता है
अपनी ऊंगलियों पे नचाता है....
दादागीरी मनवाता है....
फिर भी पता भी नहीं है
और ख़ता भी नहीं है
हमदम है या रक़ीब है...
सच में.. ये शहर कितना अजीब है...
- पुनीत भारद्वाज
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