किसी ने ठीक कहा है कि आने वाले समय में स्किप्ट ही असली स्टार होगी ...यानि फिल्मों में चेहरे नहीं कहानी ज्यादा बिकेगी..शायद तब कहीं जाकर हम जैसे चवन्नी-छाप लेखकों का कुछ भला हो।इस बात को हम सुभाष घई के उस ऐलान से जोड़ कर देख सकते हैं ,जिसमें उन्होंने घोषणा कर डाली है कि वो एक उम्दा स्किप्ट लिखने वाले को एक करोड रुपये देंगे..।
अब बात करते हैं हाल-फिल्हाल में रिलीज हुई फिल्म चक-दे इंडिया की इसमें भी वो सब-कुछ है जो यशराज फिल्मों से आज से पहले एक्सेप्ट करना थोडा मुश्किल था। कहां हाथ में भारी भरकम थाल लिये चालिस हज़ार का लेहंगा पहने टेसुए बहाती वो औरतें जो कभी खुशी कभी गम के बड़े बड़े ढ़कोसले करती भारतीयता का ढ़ोग रचती थी...और कहां साधारण सी दिखने वाली वो महिलाएं जो हॉकी की एबीसीडी एक नये कोच के साथ ,नये तरीके से सीखने की जुगत में लगी पड़ी हैं।
साफ तौर पर कहें तो चक-दे इंडिया यशराज बैनर की फिल्म है ही नहीं ये पूरी तरह से शिमीत अमीन की फिल्म है..जो इससे पहले अब तक छप्पन जैसी यथार्थवादी फिल्म बनाकर साबित कर चुके हैं कि उनमें कहानी कहने का एक अदभुत और नया साहस कूट-कूट के भरा हुआ है.....
- तुषार उप्रेती
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