ईरानी निर्देशक माजिद मजीदी की colours of paradise और children of heaven देखी तो लगा था कि बच्चों के मामले में फिल्मों को रंगना हमने सीखा नहीं है। फिर एक दिन अचानक मराठी फिल्म श्वास देखी तो लगा कि हमने भी कच्ची गोलियां नही खेली हैं। संदीप सावंत फिल्म के निर्देशक हैं। और फिल्म भारत की ओर से Oscars की ऑफिशियल entry रह चुकी है।
फिल्म यूं तो महाराष्ट्र स्टेट अवार्ड औऱ राष्ट्रीय पुरस्कारों में लाल-पीले हर रंग के झंड़े गाड़ चुकी है। फिर भी अपन इसे मराठी न कहकर हिंदुस्तानी फिल्म कहेंगे। कहानी सिर्फ इतनी है कि एक बच्चा है जो आंखों के कैंसर (retinoblastoma) के चलते शहर में अपने दादा के साथ अपना इलाज कराने आता है। परेशानी ये है कि इस इलाज के बाद ये बच्चा अपनी आंखों से फिर कभी नहीं देख पायेगा। ऑपरेशन जरुरी है,क्योंकि परशुराम(वो बच्चा) की जान बचानी है। लेकिन बच्चे की इस पूरी यंत्रणा को उसके दादा ज्यादा भुगत रहे हैं। अंतत: वो फैसला करते हैं कि परशुराम की जान बचाना ज्यादा जरुरी है। और ऑपरेशन करने की इजाज़त डॉक्टर(संदीप कुलकर्णी) को दे देते हैं।
बाकी सारी फिल्म उस बच्चे और उसके दादा के बीच की घटनाओं को फ्लैशबैक में जाकर परत दर परत उभारती है। इस फिल्म को देखकर दादा-पोते के रिश्ते की समझ में एक नई रेखा खींच गई कि कैसे पोते में दादा अपने बचपन के पलों को तलाशता है। इसलिए मैं तो कहूंगा कि अगर कुछ पल अपने बचपन को जीना जानते हैं तो खींच लें एक श्वास.....
फिल्म यूं तो महाराष्ट्र स्टेट अवार्ड औऱ राष्ट्रीय पुरस्कारों में लाल-पीले हर रंग के झंड़े गाड़ चुकी है। फिर भी अपन इसे मराठी न कहकर हिंदुस्तानी फिल्म कहेंगे। कहानी सिर्फ इतनी है कि एक बच्चा है जो आंखों के कैंसर (retinoblastoma) के चलते शहर में अपने दादा के साथ अपना इलाज कराने आता है। परेशानी ये है कि इस इलाज के बाद ये बच्चा अपनी आंखों से फिर कभी नहीं देख पायेगा। ऑपरेशन जरुरी है,क्योंकि परशुराम(वो बच्चा) की जान बचानी है। लेकिन बच्चे की इस पूरी यंत्रणा को उसके दादा ज्यादा भुगत रहे हैं। अंतत: वो फैसला करते हैं कि परशुराम की जान बचाना ज्यादा जरुरी है। और ऑपरेशन करने की इजाज़त डॉक्टर(संदीप कुलकर्णी) को दे देते हैं।
बाकी सारी फिल्म उस बच्चे और उसके दादा के बीच की घटनाओं को फ्लैशबैक में जाकर परत दर परत उभारती है। इस फिल्म को देखकर दादा-पोते के रिश्ते की समझ में एक नई रेखा खींच गई कि कैसे पोते में दादा अपने बचपन के पलों को तलाशता है। इसलिए मैं तो कहूंगा कि अगर कुछ पल अपने बचपन को जीना जानते हैं तो खींच लें एक श्वास.....
तुषार उप्रेती
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