कबसे शबाब कोई देखा नहीं है.....


बड़े मुंतज़िर* हैं मिलने को तुमसे * बेताब
कबसे शबाब कोई देखा नहीं है
आंख़ों से नींद कबसे है गायब
कबसे कोई ख़्वाब देखा नहीं है..


कूचे पे अपने हैं नज़रें बिछाएं
के अब आप आएं, लो अब आप आएं
वो तेरा अदा से यूं आदाब कहना
के आदाब वो कबसे देखा नहीं
बड़े मुंतज़िर हैं मिलने को तुमसे.......



कभी तू मनाए, जो मैं रूठ जाउं
जो मैं मान जाउं तो फिर तू इतराए
वो तेरा मनाना, मेरा मान जाना
ऐसा रूबाब कबसे देखा नहीं


बड़े मुंतज़िर हैं मिलने को तुमसे
कबसे शबाब कोई देखा नहीं है
आंख़ों से नींद कबसे है गायब
कबसे कोई ख़्वाब देखा नहीं है......


-पुनीत भारद्वाज



1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

Hum bhi muntzir he milne ko tumse,kya likhte ho guru.ek ek poem dil se likhi lagti he