कोई भी निर्देशक अपने समय का साक्षी होता है,हांलाकि मौजूदा फिल्मी दुनिया को देखकर ये कहना थोड़ा मुश्किल है। बावजूद इसके कहना पड़ेगा कि सुधीर मिश्रा ने अपने समय को बखूबी देखा है, जिया है,और फिल्मों में उसे उतारने की ईमानदार कोशिश वो करते ही रहते हैं।
हज़ारों ख्वाइशें ऐसी में ये कोशिश 70 के दशक की राजनीतिक चालाकियों को सामने लाने में बखूबी कामयाब रही थी...और 2007 में 50-60 के दशक की फिल्मी दुनिया को पर्दे पर दोबारा जिंदा रखने मे भी सुधीर मिश्रा कामयाब हुए हैं..लेकिन इस बार ये कामयाबी उन्हें ज्यादा दूर तक नहीं ले जा रही...पहली नज़र मे फिल्म अच्छी है...थोड़ी बोझिल भी...सुधीर मिश्रा की शुरु से ही ये खासियत रही है कि उनके पात्र एक आम इंसान की तरह ‘आईडियलिज़्म’ और ‘रियलीज़्म’ के बीच झूलते रहते हैं..और फिर अंत में जीत रियलीज़्म की होती है..इसलिए उनकी फिल्मों मे कोई बड़ा नायक पैदा नहीं होता जो अपनी फरस्ट्रेशन किसी को गोली मारकर मिटाये...बल्कि बड़े बनने की ख्वाइश में जिंदगी के हर कदम पर परत दर परत धोखा खाता वो आदमी होता है,जो अंत मे खुद से ये सवाल पूछता है कि जिस सहर की मुझे उम्मीद थी ये वो तो नहीं ,ये वो तो नहीं...अगर आपने ‘हज़ारों ख्वाइशें ऐसी’ और ‘जाने भी दो यारों’ को ठीक से देखा है तो इतना तो है कि ‘खोया खोया चांद’ का अंत आपको पसंद नहीं आयेगा..खोया खोया चांद अचानक से बीच में खत्म हो जाती है...हांलाकि फिल्म बीच में कई दफे काफी लंबी नज़र आती है। कुछ दृश्यों का फिल्मांकन गज़ब का है खासकर शाइनी और सोहा के समंदर किनारे टहलने वाले दृश्य में थोड़ी देर के लिए ऐसा लगा कि वाकई में 'पोएट्री ऑन सेल्युलाइड़' वाली बात सही होती है।
अभिनय की बात करें तो शाइनी आहूजा को अपनी संवाद अदायगी पर मेहनत करनी चाहिए। सोहा अली खान के अंदर अभिनय की तमाम संभावनाएं होने के बावजूद संघर्षरत लड़की की वो तड़प गायब है। सोनिया जहान की अगर बात करें तो उनकी अदाएं बेहद मादक हैं। बला की खूबसूरत तो वो हैं ही। लेकिन फिल्म के तीन कलाकार ऐसे हैं जिनका कद समय के साथ बढ़ता जा रहा है। ये बंदे हैं...रजत कपूर, जो वक्त के साथ बेहतर होते जा रहे हैं, विनय पाठक, जो कम बजट की फिल्मों की खोज हैं और सोरभ शुक्ला, जिनके अभिनय को नापने वाला बैरोमीटर बनाना मुश्किल होता जा रहा है। इस फिल्म में अपनी पंजाबियत को संवादों के लच्छों मे लपेट कर फेंकने मे सौरभ शुक्ला दर्शकों को हर बार स्क्रीन पर आते ही प्रभावित करते हैं....
संगीत फिल्म का मधुर है ,लेकिन क्वालिटी को और निखारा जा सकता था। स्वानंद किरकिरे के गीतों मे ताज़गी है,आवाज़ मे कव्वालों वाला अंदाज़ है। जिसे शांतनु मोइत्रा ने पहचाना है।
अंत मे खोया खोया चांद को बनाकर सुधीर मिश्रा ने खुद के साथ तो न्याय कर लिया है। लेकिन शायद इस बीच उनके हाथ से दर्शकों की नब्ज़ छूट गई है। वो अपना खास दर्शक वर्ग विकसित कर पाने के बावजूद सफल नहीं कहलांएगें...क्योंकि फिल्मों मे जिन लोगों के दर्द की कहानी आप सुना रहे हैं वो दर्द जब तक सबको तकलीफ न पहुंचाये तक तक आप खुद को सफल नहीं कह सकते....खैर खोया खोया चांद के बारे में इतना ही कहना बेहतर होगा कि..
अभिनय की बात करें तो शाइनी आहूजा को अपनी संवाद अदायगी पर मेहनत करनी चाहिए। सोहा अली खान के अंदर अभिनय की तमाम संभावनाएं होने के बावजूद संघर्षरत लड़की की वो तड़प गायब है। सोनिया जहान की अगर बात करें तो उनकी अदाएं बेहद मादक हैं। बला की खूबसूरत तो वो हैं ही। लेकिन फिल्म के तीन कलाकार ऐसे हैं जिनका कद समय के साथ बढ़ता जा रहा है। ये बंदे हैं...रजत कपूर, जो वक्त के साथ बेहतर होते जा रहे हैं, विनय पाठक, जो कम बजट की फिल्मों की खोज हैं और सोरभ शुक्ला, जिनके अभिनय को नापने वाला बैरोमीटर बनाना मुश्किल होता जा रहा है। इस फिल्म में अपनी पंजाबियत को संवादों के लच्छों मे लपेट कर फेंकने मे सौरभ शुक्ला दर्शकों को हर बार स्क्रीन पर आते ही प्रभावित करते हैं....
संगीत फिल्म का मधुर है ,लेकिन क्वालिटी को और निखारा जा सकता था। स्वानंद किरकिरे के गीतों मे ताज़गी है,आवाज़ मे कव्वालों वाला अंदाज़ है। जिसे शांतनु मोइत्रा ने पहचाना है।
अंत मे खोया खोया चांद को बनाकर सुधीर मिश्रा ने खुद के साथ तो न्याय कर लिया है। लेकिन शायद इस बीच उनके हाथ से दर्शकों की नब्ज़ छूट गई है। वो अपना खास दर्शक वर्ग विकसित कर पाने के बावजूद सफल नहीं कहलांएगें...क्योंकि फिल्मों मे जिन लोगों के दर्द की कहानी आप सुना रहे हैं वो दर्द जब तक सबको तकलीफ न पहुंचाये तक तक आप खुद को सफल नहीं कह सकते....खैर खोया खोया चांद के बारे में इतना ही कहना बेहतर होगा कि..
जो चेहरा चांद हो सकता था
वो महज़ भीड़ बनकर रह गया......
तुषार उप्रेती
1 टिप्पणी:
भाई फिल्म तो नहीं देखी पर सभी समीक्षाओँ मे ये संपूर्म समीक्षा लगी...digvijay
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