भटकती सांसे...



सांस लो तो धुंआ निगलती हैं सांसे
अंगारों के आगोश में ऐसे पलती हैं सांसे

सांस छोड़ों तो धुंआ उगलती हैं सांसे
धुंएं के धागों पे जैसे चलती है सांसे


हर सांस के साथ सीने में अटकती हैं सांसे
इस अवारा शहर की आबो-हवा में बेसबब भटकती है सांसे


भागती हुई ज़िंदगियां रौंदती है ये सांसे
बसों में, सड़कों पर नंगे पांव दौड़ती है ये सांसे

अब तो इस क़ातिल शहर की बदनाम सड़कों पर
ज़हर पीने की आदत सी हो गई है

अब तो इस जानलेवा शहर में
जीने की आदत सी हो गई है




-पुनीत भारद्वाज

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

"dhuen ke dhaage, daudti saanse"
new imagination!!
bilkul sahi qaid kiya h tumne is shehar me rehna waale logo ki bebasi ko, bechare shudhh hawa me saans b nahi le paate.
but do give it a thought :- iska karan b to yehi log hi hain.