इधर से गुज़री जब हवा तो बहार दे गई
चैन से जी रहे थे हम इक ख़ुमार दे गई
चैन से जी रहे थे हम इक ख़ुमार दे गई
इक दिन बैठे थे हम तन्हा
सोच रहे थे काग़ज़-क़लम लिए
किसी की यादें बांहों में आ गिरी
और इक अशआर(शेर) दे गई
इधर से गुज़री जब हवा तो बहार दे गई.....
जाते-जाते बेकल नज़रें ढूंढती रही..
गलियों के मोड़ पे आवारा घूमती रही..
इक पल की मुलाक़ात कैसा इंतज़ार दे गई
चैन से जी रहे थे इक ख़ुमार दे गई.....
-पुनीत भारद्वाज
1 टिप्पणी:
khumari me likhi hui poem bhi itni achhi h, hosh me kaisa likhte hoge?
par jaanti hu tumhari doosri poems b kaafi achhi hoti h.
likhte rehna umr bhar yu hi khumaari me....
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