सांवरिया देखी तो ओम शांति ओम देखने के लिए जीभ लपलपाने लगी। खैर अपन भी घुस गये टिकट लेकर रात का आखिरी शो देखने। इस बार टिकट खुद खरीदा। महंगा नही लगा। वजह, साथ में था पसंदीदा दोस्त जिससे अपनी खूब पटती है।
खैर फिल्म शुरू हुई और कब खत्म हुई पता ही नहीं चला। बीच में इंटरवल का ब्रेक भी बेमानी लग रहा था। समझ आया कि शाहरुख खान अपनी किस्मत का बुलंद सितारा क्यों है? वजह है इंडियन आडियंस का उसके साथ हर रोल में कनेक्ट होना। साधारण शक्ल,जो उसे आम लोगों से जोड़ती है और आंखों से तकलीफें बयां करने की काबिलियत। इसलिए वक्त बीतता गया और शाहरुख का सफर आसान होता चला गया। पहली बार विदेशी अंदाज़ में बदन तराशा और दर्दे डिस्को भी किया। लेकिन माया मेमसाहब और डुप्लिकेट में शाहरुख पहले भी अपने तन की सूखी हड्डियां दिखा चुके हैं।
फिल्म शुरु होते ही रोलर कोस्टर राइड़ शुरु हो जाती है। शिरीश कुंडुर ने एडिटिंग में कहर ढ़ा दिया है। कई दृश्य चौंकाते हैं। खासकर दीपिका पादुकोन का वो गाना जिसमें आप उन्हें बिना झिझक के राजेश खन्ना ,सुनील दत्त,जितेंद्र के साथ नाचने गाते देख सकते हैं। काफी अर्से बाद किसी फिल्म में लगा कि लाइटिंग कमाल की है। दास्तान गाने में आप ये महसूस कर सकते हैं। रंगमंच की तरह फिल्मों मे भी लाइटिंग का खास मतलब होता है। रेड़,ग्रीन और येलो लाइट के अपने मतलब होते हैं। फऱाह खान की कोरियोग्राफी से प्रभावित हुआ।
खल रही थी तो सिर्फ एक बात की कहानी वही घिसीपिटी या फूहड़ थी। 2007 में आप आडियंस को भूत और पुर्नजन्म की कहानी सुनाकर साबित क्या करना चाहती है? या फिर खालिस मनोरंजन और मार्केटिंग के नाम पर आप लोगों को बरगलाना चाहती हैं। बात सिर्फ इतनी सी है कि लोगों को सपने दिखाओ और अपने बड़े से पेट में पैसा गड़प कर जाओ। सिम्पल है यार। मार्केटिंग फंड़ा। फिर चाहे इसके लिए आपको मनोज कुमार का मज़ाक उड़ाना पड़े या तमाम इंडस्ट्री को एक ही गाने में नचाना पड़े।
दीपिका पादुकोण को दो किरदारों मे एक साथ उतारना गले की फांस बन सकता था। लेकिन बंदी में कान्फिड़ेंस है। निभा गई है। शाहरुख खान के साथ कई सालों से हम सपने देखते आए हैं। राजू बन गया जन्टिलमैन और चमत्कार में उसके साथ हम हंसने रोने के सिद्धस्त हो चुके थे। ओम शांत ओम में उसने जूनियर आर्टिस्ट बन कर मेरे आपके बड़ा होने के सपने को भुनाया है। मैं हूं ना मे भी कहानी नहीं थी और ओम शांति ओम में भी कहानी नही प्रजेंटेशन ज्यादा है। पैसा फेंक तमाशा देख। दृश्यों का फिल्मांकन अच्छा है। आग लगने पर शाहरुख का दीपिका को बचाने की कोशिश करना और ओके के रुप में अपनी मां से मिलने वाला सीन थोड़ी देर के लिए आंखें गीली कर सकता है। इसलिए रुमाल लेकर जाएं।
फिल्म में मेहमान कलाकार के रुप में आये अक्षय कुमार ने दिल जीत लिया है। फराह को अक्षय से सीखना चाहिए की मजाक खुद का भी बनाकर लोगों को हंसाया जा सकता है। गीत भी फिल्म की जरुरत के हिसाब से हैं। लेकिन अंत में रोमांच के बाद भी जब फिल्म देखकर बाहर आया तो सिर्फ यही जेहन में घुम रहा था कि बड़ा बनने के सिर्फ दो ही तरीके होते हैं या तो किसी बड़े आदमी के घर में पैदा होने की एप्लिकेशन दे दो या फिर दूसरों को नीचा दिखाकर खुद बड़े बन जाओ। अगर यही फिल्म है तो मैं कहूंगा....पिक्चर अभी बाकी है...........
मस्ती,मजा,मनोरंजन,मुनाफा,मार्केटिंग और निर्देशक की मनमानी यही है ओम शांति ओम। अंत में अपनी पूरी टीम को दर्शकों से परिचित करना अच्छा प्रयास था।.....
खैर फिल्म शुरू हुई और कब खत्म हुई पता ही नहीं चला। बीच में इंटरवल का ब्रेक भी बेमानी लग रहा था। समझ आया कि शाहरुख खान अपनी किस्मत का बुलंद सितारा क्यों है? वजह है इंडियन आडियंस का उसके साथ हर रोल में कनेक्ट होना। साधारण शक्ल,जो उसे आम लोगों से जोड़ती है और आंखों से तकलीफें बयां करने की काबिलियत। इसलिए वक्त बीतता गया और शाहरुख का सफर आसान होता चला गया। पहली बार विदेशी अंदाज़ में बदन तराशा और दर्दे डिस्को भी किया। लेकिन माया मेमसाहब और डुप्लिकेट में शाहरुख पहले भी अपने तन की सूखी हड्डियां दिखा चुके हैं।
फिल्म शुरु होते ही रोलर कोस्टर राइड़ शुरु हो जाती है। शिरीश कुंडुर ने एडिटिंग में कहर ढ़ा दिया है। कई दृश्य चौंकाते हैं। खासकर दीपिका पादुकोन का वो गाना जिसमें आप उन्हें बिना झिझक के राजेश खन्ना ,सुनील दत्त,जितेंद्र के साथ नाचने गाते देख सकते हैं। काफी अर्से बाद किसी फिल्म में लगा कि लाइटिंग कमाल की है। दास्तान गाने में आप ये महसूस कर सकते हैं। रंगमंच की तरह फिल्मों मे भी लाइटिंग का खास मतलब होता है। रेड़,ग्रीन और येलो लाइट के अपने मतलब होते हैं। फऱाह खान की कोरियोग्राफी से प्रभावित हुआ।
खल रही थी तो सिर्फ एक बात की कहानी वही घिसीपिटी या फूहड़ थी। 2007 में आप आडियंस को भूत और पुर्नजन्म की कहानी सुनाकर साबित क्या करना चाहती है? या फिर खालिस मनोरंजन और मार्केटिंग के नाम पर आप लोगों को बरगलाना चाहती हैं। बात सिर्फ इतनी सी है कि लोगों को सपने दिखाओ और अपने बड़े से पेट में पैसा गड़प कर जाओ। सिम्पल है यार। मार्केटिंग फंड़ा। फिर चाहे इसके लिए आपको मनोज कुमार का मज़ाक उड़ाना पड़े या तमाम इंडस्ट्री को एक ही गाने में नचाना पड़े।
दीपिका पादुकोण को दो किरदारों मे एक साथ उतारना गले की फांस बन सकता था। लेकिन बंदी में कान्फिड़ेंस है। निभा गई है। शाहरुख खान के साथ कई सालों से हम सपने देखते आए हैं। राजू बन गया जन्टिलमैन और चमत्कार में उसके साथ हम हंसने रोने के सिद्धस्त हो चुके थे। ओम शांत ओम में उसने जूनियर आर्टिस्ट बन कर मेरे आपके बड़ा होने के सपने को भुनाया है। मैं हूं ना मे भी कहानी नहीं थी और ओम शांति ओम में भी कहानी नही प्रजेंटेशन ज्यादा है। पैसा फेंक तमाशा देख। दृश्यों का फिल्मांकन अच्छा है। आग लगने पर शाहरुख का दीपिका को बचाने की कोशिश करना और ओके के रुप में अपनी मां से मिलने वाला सीन थोड़ी देर के लिए आंखें गीली कर सकता है। इसलिए रुमाल लेकर जाएं।
फिल्म में मेहमान कलाकार के रुप में आये अक्षय कुमार ने दिल जीत लिया है। फराह को अक्षय से सीखना चाहिए की मजाक खुद का भी बनाकर लोगों को हंसाया जा सकता है। गीत भी फिल्म की जरुरत के हिसाब से हैं। लेकिन अंत में रोमांच के बाद भी जब फिल्म देखकर बाहर आया तो सिर्फ यही जेहन में घुम रहा था कि बड़ा बनने के सिर्फ दो ही तरीके होते हैं या तो किसी बड़े आदमी के घर में पैदा होने की एप्लिकेशन दे दो या फिर दूसरों को नीचा दिखाकर खुद बड़े बन जाओ। अगर यही फिल्म है तो मैं कहूंगा....पिक्चर अभी बाकी है...........
मस्ती,मजा,मनोरंजन,मुनाफा,मार्केटिंग और निर्देशक की मनमानी यही है ओम शांति ओम। अंत में अपनी पूरी टीम को दर्शकों से परिचित करना अच्छा प्रयास था।.....
तुषार उप्रेती
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