आज सुबह....


कुछ मटमैले से ख्वाब
आज सुबह लम्हों से टकरा गये
ठीक उसी पल तुम याद आ गये ,
ख्वाब जो कभी गंगा नहाया करते थे,
ख्वाब जो कभी तुम्हारे नाम की डुबकी लगाया करते थे।


आज सुबह , हां आज सुबह
लम्हों ने राहों मे रोक लिया उन्हें
घर की दहलीज़ लांघने पर मां ने टोक दिया उन्हें,


वो आज भी लड़ते हैं मुझसे
तुम्हारा नाम ले लेकर आ जुड़ते हैं मुझसे,
मैं फिर भी अनसुनी करता हूं उनकी पुकार
फिर भी तहे-दिल- से हूं उनका शुक्रगुज़ार


लेकिन आज , सुबह हां आज सुबह

पगड़ड़ियों पर खेलते हुए लम्हों ने देख लिया उन्हें ,
तब से सारे शहर में शोर मचा है
शहर की इस भीड़ में खुश रहकर भला कौन बचा है।

लेकिन आज सुबह, हां आज सुबह
मेरे कमरे में फटी कमीज़ लिये एक ख्वाब खड़ा था,
बेशक ये इस शहर से लड़ मरा था।

तब से शहर में कर्फू लगा है
शहर सोया है
खवाब जगा है


-तुषार उप्रेती

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

Tushar i don't hv words 2 express.
it is fabulous.