अरविंद गौड के निर्देशन में काफी पहले एक नाटक देखा था नाम ठीक से याद नहीं। लेकिन अपनी उस भूल को जल्द ही मैंने ऑपरेशन थ्री स्टार देख कर मिटा लिया। वैसे ये नाटक Dario fo के An accidental death of an anarchist का हिंदी adaptation है। जिसके लिये अमिताभ श्रीवास्तव का शुक्रिया अदा किया जाना चाहिए। लेकिन नाटक में असली औकात तो निर्देशक की नज़र आती है। जिन्होंने हास्य व्यंग्य के तालमेल से इस नाटक को ज्यादा प्रासंगिक बना दिया है।
इंडिया हैबिटैट सेंटर में अस्मिता (अरविंद गौड़ का ग्रुप) सोसाइटी की ओर से इस नाटक में crimes of the state की मंशा का पर्दाफाश किया गया है। यानि जब राज्य अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करता है तो हालात कैसे बेकाबू हो जाते हैं।
खैर नाटक में ज्यादा दृश्य परिवर्तनों की गुंजाइश नहीं थी और न ही ज्यादा ढ़ोल नगाड़े के तमाशे की जिसे निर्देशक ने बखूबी समझा है। तभी तो पीयूष मिश्रा के गानों को सही जगह पर इस्तेमाल किया गया है। जहां तक मंच सज्जा की बात की जाये तो वो और बेहतर हो सकती थी लेकिन हमें थियेटर की सीमाओं को समझना होगा। जहां बिना प्रायोजकों के नाटक खेलकर जिंदगी बसर करना खासा जोखिम भरा काम होता है।
नाटक में कहानी सिर्फ इतनी है कि एक आतंकवादी पुलिस हैडक्वार्टर की बिल्डिंग से कूद कर आत्महत्या कर लेता है और उसके बाद कैसे एक पागल ये साबित करता है कि ये किस कदर पुलसिया ढ़ोग है। वो आतंकवादी नहीं बल्कि एक रेलवे कर्मचारी था,जिसे झूठे इल्ज़ाम में फंसाकर फाईल बंद करने का समाधान तलाशा जा रहा था। लेकिन नाटक की असली ताकत उसके एलिमेंट ऑफ सरप्राइज़ में होती है (कम से कम इस नाटक की तो) । दिलचस्प पहलुओं की अगर बात करें तो इस पूरे घटनाक्रम को मंचित करते समय निर्देशक ने जैसे न्याय-व्यवस्था से लेकर उमा खुराना तक के प्रकरण को सामने रखा है। वह पल भर के मनोरंजन के साथ सारे तंत्र की बखूबी धज्जियां उड़ाता है। दरअसल आज व्यांगयकार के सामने जो सबसे बड़ी समस्या ‘नंगों के कपड़े उतारने’ की है।उसे निर्देशक ने समझते हुए दर्शकों की नब्ज़ को पकड़े रखा है। पागल के किरदार में संदीप श्रीवास्तव ने प्रभावित किया। जहां तक अंत की बात है इसमें भी निर्देशक की दूरदर्शिता दिखाई दी। दो अंत देकर निर्देशक ने बहस की संभावनाओं के मुंह पर भी करारा तमाचा दे मारा है। इसलिये आलोचक गुर्राते रहेंगे। रसिया लोग मज़ा ले सकते हैं।
इंडिया हैबिटैट सेंटर में अस्मिता (अरविंद गौड़ का ग्रुप) सोसाइटी की ओर से इस नाटक में crimes of the state की मंशा का पर्दाफाश किया गया है। यानि जब राज्य अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करता है तो हालात कैसे बेकाबू हो जाते हैं।
खैर नाटक में ज्यादा दृश्य परिवर्तनों की गुंजाइश नहीं थी और न ही ज्यादा ढ़ोल नगाड़े के तमाशे की जिसे निर्देशक ने बखूबी समझा है। तभी तो पीयूष मिश्रा के गानों को सही जगह पर इस्तेमाल किया गया है। जहां तक मंच सज्जा की बात की जाये तो वो और बेहतर हो सकती थी लेकिन हमें थियेटर की सीमाओं को समझना होगा। जहां बिना प्रायोजकों के नाटक खेलकर जिंदगी बसर करना खासा जोखिम भरा काम होता है।
नाटक में कहानी सिर्फ इतनी है कि एक आतंकवादी पुलिस हैडक्वार्टर की बिल्डिंग से कूद कर आत्महत्या कर लेता है और उसके बाद कैसे एक पागल ये साबित करता है कि ये किस कदर पुलसिया ढ़ोग है। वो आतंकवादी नहीं बल्कि एक रेलवे कर्मचारी था,जिसे झूठे इल्ज़ाम में फंसाकर फाईल बंद करने का समाधान तलाशा जा रहा था। लेकिन नाटक की असली ताकत उसके एलिमेंट ऑफ सरप्राइज़ में होती है (कम से कम इस नाटक की तो) । दिलचस्प पहलुओं की अगर बात करें तो इस पूरे घटनाक्रम को मंचित करते समय निर्देशक ने जैसे न्याय-व्यवस्था से लेकर उमा खुराना तक के प्रकरण को सामने रखा है। वह पल भर के मनोरंजन के साथ सारे तंत्र की बखूबी धज्जियां उड़ाता है। दरअसल आज व्यांगयकार के सामने जो सबसे बड़ी समस्या ‘नंगों के कपड़े उतारने’ की है।उसे निर्देशक ने समझते हुए दर्शकों की नब्ज़ को पकड़े रखा है। पागल के किरदार में संदीप श्रीवास्तव ने प्रभावित किया। जहां तक अंत की बात है इसमें भी निर्देशक की दूरदर्शिता दिखाई दी। दो अंत देकर निर्देशक ने बहस की संभावनाओं के मुंह पर भी करारा तमाचा दे मारा है। इसलिये आलोचक गुर्राते रहेंगे। रसिया लोग मज़ा ले सकते हैं।
-तुषार उप्रेती
1 टिप्पणी:
it was great sence of humor. kisi bhi play ko samajhanay usay interesting bananay kay liye uski pahalay theam ko understude karna padta hai fir uska khubsurti say kia manchan dekha jata hai jo ki tushar tumnay dono par he gaur kia or uski theam kay saathe saathe tumnay play ko bhi khubsurti say describe kia hai well done..gud luck
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