पेन की स्याही, सूखी तो समझ आया...
प्यासा छोड़ कर एक बार फिर थम गई बारिश
और बेचारा संमदर बह गया सब...
रातभर की नींद को गिरवी रखा है...
और दिन की चांदनी को पी गया रब...
फिर मिलेगी तंग छुट्टी घूम आऊंगा...
दूर... बहुत दूर... वहीं पर रह गया सब...
जैसे नुकीली बालियां गेहूं की, सोने की...
टकटकी में ही रहा और कट गया सब...
मां का, पिताजी का, बहनों- दोस्तों का
ना पता ये सारा हिस्सा छंट गया कब...
पेन की स्याही, सूखी तो समझ आया...
स्याह सा एक दौर था... और खप गया सब...
दूर सीसा था... और बीच में बादल
रोशनी जब ना रही तो छंट गया सब...
किताब तूने दी मुझे दर्दों के गीतों की...
तोहफा था पहला इसलिये यूं रट गया सब
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336
सदस्यता लें
संदेश (Atom)