
हर शहर की अपनी तासिर होती है..दिल्ली में थे तो अनजान तपरों की चाय..पुरानी दिल्ली के खानों और नई दिल्ली की मक्कारियों का स्वाद लेते थे...वहां आदमी पहले मुस्कुराता था..फिर जख्म देता था..फिर उस जख्म पर मक्खी बैठती थी...और फिर अहसास होता था कि घाव हुआ है....
अब मुंबई में हैं जहां जख्म पर मक्खी नहीं खुद जख्म को ही बैठने की फुर्सत नहीं...
एक लाइन में समेटने की कोशिश करुं तो दीपक की कही एक बात ज़ेहन में अंगडाई लेती हैं---
मुंबई में जिंदगी का एक ही भाव...वड़ा पाव!
ये शहर वाकई में घूंट घूंट खुद को पीता है...इसे खुद नहीं पता कि दौड़ कहां जाकर खत्म होगी पर दौड़ हमेशा जारी रहती है...पानी यहां खारा है तो लोगों को कोई शिक़वा नहीं वो उसे जलजीरा समझ के पीने पर तुले हैं...हर आदमी का अपना वजूद है...
दिल्ली में लोग ज़मीन के नीचे कम अंदर ज्यादा होते हैं..मुंबई में लोग आइनें लेकर चलते हैं...दिल्ली में हर कोई राजा है औऱ सामने वाला रंक..य़हां हर रंक ही राजा है...
तुषार उप्रेती