ये दुनिया संभल भी सकती है......




हर रोज़ नज़ारा लगता है
हर शाम किनारा सजता है
कोई प्यार का मारा रोता है
कोई पेट से भूखा हंसता है

वो जेब से खाली है लेकिन
वो दिल का मालिक है लेकिन
पर इससे भी क्या होता है
हर रात वो भूखा सोता है

क्यूं नफ़रत से बर्बाद रहें
चलो प्यार से दिल आबाद करें
हर बंदिश से आज़ाद करें
इस दुनिया को शादाब* करें * हरा-भरा

ये आग भड़क भी सकती है
ये शोला भी बन सकती है
तू एक ज़रा हुंकार तो भर
कोई आंधी भी चल सकती है

कैसे हो, क्यों हो भूलो तुम
हर मुश्क़िल का हल ढूंढों तुम
जो रस्ते में थक जाएगा
तो कैसे मंज़िल पाएगा

अब तो दिल से तूफ़ान उठे
और भीतर का भगवान उठे
ये दुनिया संभल भी सकती है
जो तुझमे छिपा इंसान उठे....





- पुनीत भारद्वाज

ख़्वाहिश


ख़्वाहिशों को पंख लगाऊं
मैं यूं उड़ जाऊं
अंबर की सारी हवा बटोर के लाऊं....

छू लूं छोर गगन का
खोलूं चोर मन का
बादलों की सड़क पे ऐसे दोनों हाथ फैलाऊं
अंबर की सारी हवा बटोर के लाऊं....

एक हाथ में सूरज थामू
एक हाथ में चंदा मामू

आंखों से थामू मैं तारें
झिलमिलाएं मेरे सपने सारे
कोई तारा टूटे मैं जग जाऊं

अंबर की सारी हवा बटोर के लाऊं...

- पुनीत बालाजी भारद्वाज

इक उम्मीद...
























इक उम्मीद पे टिका है सारा जहां
उम्मीद है तो फिर है अंत कहां

उम्मीद है तो नींदों में ख़्वाबों का बसेरा है
उम्मीद के साथ कुछ ढूंढने निकलो तो पूरा संसार तेरा है

ग़र उम्मीद है तो कैसी भी कोई भी हद नहीं
ग़र उम्मीद है तो आसमां से आगे भी सरहद नहीं

उम्मीद पाने से पहले, उम्मीद खोने के बाद भी
उम्मीद हर मुस्कान में, उम्मीद रोने के साथ भी

उम्मीद है तो कुछ भी नामुमकिन नहीं है
वो होगा नहीं नाउम्मीद कभी जिसे ख़ुद पे यकीं है

इक उम्मीद से हर दिन नया सूरज निकलता है
उम्मीद से धरती घूमती है, रात दिन में बदलता है
और उम्मीद से ही काले-स्याह आसमान में चांद भी आगे चलता है

क्योंकि इक उम्मीद पे टिका है सारा जहां
उम्मीद है तो फिर है अंत कहां

- पुनीत बालाजी भारद्वाज

आगे लगे और धुंआ उठे.....


आग लगे तो इस तरह लगे
के निग़ाहें मिले और धुंआ उठे


सांसों से सांसे छू जाए
बातों ही बातों में तूफ़ान चले

आग लगे तो इस तरह लगे.....


मेरी धड़कनें तेरी धड़कनों से टकराए
मेरी धड़कनें तेरी धड़कनें बन जाएँ
जज़्बातों का सिलसिला कुछ इस तरह चले
के निग़ाहें मिले और धुंआ उठे....


मेरी बातों में इतना असर हो
ना तुझे दिन में चैन मिले,
ना रात में बसर हो
लफ़्ज़ होंटों से गिरे और कोई जादू करे
आगे लगे तो इस तरह लगे
के निग़ाहें मिले और धुंआ उठे....


वो पल के जिसमें जन्नत नसीब होती है
रूह जिस्मों से निकलकर ख़ुदा के क़रीब होती है
आओ उस एक पल को आबाद करें


आग लगे तो इस तरह लगे
के निग़ाहें मिले और धुंआ उठे......



- पुनीत भारद्वाज