लकीरें...




लकीरें हैं,लकीरों का क्या ?
साहिल पर खींचे तो लेहरों को रोकती हैं लकीरें
पेशानी पर खींचे तो किस्मत का मुंह नोचती हैं लकीरें



दहलीज़ पर खींचे तो सीता का अपहरण कराती हैं लकीरें
पत्थर पर खींचे तो जीवन और मरण कराती हैं लकीरें
कभी कभी सोचता हूं कि क्या ये लकीरों का दोष है ?
कोई जिंदगी में एक ही लकीर नापता है



तो कोई लकीरों से रास्ते तलाशता है।



हर कोई एक लकीर के सामने
दूसरी लकीर खींचकर खुद को बड़ा मानना चाहता है।
कोई लकीरों से किसी का नाम काटता है



तो कोई लकीरों को मिलाकर नाम लिखता है



दुल्हन के हाथों पर खींचे लकीरें मेंहदी होती है



तो विध्वा की मांग की लकीरें सपना खोती हैं
आखिर क्या हैं ये लकीरें और कहां से आई
हैं
आप भी तलाशना और मैं भी तलाश रहा हूं



लकीर से लकीर जोड़कर नये सपने बना रहा हूं







तुषार उप्रेती








धमाके के बाद ...









ये साल भी कुछ यूं गुजर गया


जैसे बांझ हो गई धरती के


ऊपर से गुजर जाते हैं- बादल ।




हंसते हुए उसकी विवशता पर.....
ये साल भी कुछ यूं गुजर गया


जैसे गुजरती हैं ट्रेंने बदहाल गांव के


प्लेटफार्म से हंसते हुए उन


अनाथ से खड़े मुसाफिरों पर.....



ये साल भी कुछ यूं गुजर गया


जैसे गुजरते हैं पक्षी,हर शाम हमारे


बंद मकानों के ऊपर से हंसते हुए


हमारी उन कैद कर ली गई आकांक्षाओँ पर.....



ये साल भी कुछ यूं गुजर गया


जैसे गुजर जाते हैं गाड़ीवान वैश्याओं की गली से...


हंसते हुए उनकी उन प्रताड़नाओं पर...



ये साल भी कुछ यूं गुजर गया


जैसे गुजर गये थे पप्पू,छोटी, अल्का, दीनू,


चाचा,नानी, मां, बाप, बेटे-बेटियां पोते पोतियां


औऱ भी न जाने कितने संबंध


हंसते हुए धमाके के बाद


शुरु हुई हकीकतों पर.....



तुषार उप्रेती

तारे ज़मीन पर....tare zameen per







मां-बाप ज़रा गौर फरमायें...क्या वो अपने बच्चों को पाल रहे हैं? या फिर अपने सपनों को...
बचपन उस महीन रेशे की तरह होता है जो अगर धीरे धीरे खुले तो जिंदगीभर ओढ़ने को चादर बन सकती है और अगर उसे छींचा जाये तो वो टूटकर बिखर जाता है।
कुछ ऐसे ही अंदाज़ मे तारे ज़मीन पर की कहानी को फिल्म के कैनवस पर उतारा गया है। कैनवस इसलिए की उसमें एक मासूम बच्चे का बचपन है, जो अपने आसपास के माहौल से, प्रकृति की चित्रकारी से जिंदगी से सबक सीखना चाहता है। उसे एक मेहनत-कश मजदूर के हाथों दिवार को पेंट होते देखना पसंद है, उसे मछलियां पकड़ना पसंद है, उसे पतंग लूटने में मज़ा आता है, उसे स्कूल बंक करना अच्छा लगता है...यानि वो सबकुछ उसे अच्छा लगता है जो उसके नार्मल होने की निशानी है। लेकिन उसके मां-बाप की समस्या है कि उन्हें घर में एक चैंपियन चाहिए जो अंड़े-बॉनविटा के दम पर आकाश की ऊंचाई नाप ले....जैसा कि गाने से स्पष्ट है......
ये टॉनिक सारे पीते हैं
ये ऑमलट पर ही जीते हैं
दुनिया का नारा जमे रहो....

सिर्फ इतना कहना काफी होगा कि तीसरी क्लास में पढ़ने वाले बच्चे के कंधों पर जब महत्वकांक्षाओं का बोझ लादा जाता है तो उसका बचपन टूटकर बिखरने लगता है.......
इशान अवस्थी के रोल में दर्शिल सफारी और उसकी मां के रुप में तिस्का चोपड़ा का काम लाजवाब है। ऐसा लगता है मां सबकुछ समझते हुए बच्चे के मुंह से लॉलिपोप छीन रही है....उसे चैंपियन बनाने के चक्कर में उसे कमतर इंसान बना रही है। जो उसकी आंख से संवेदना के आंसू सूखा रही है।
बेहतर फिल्मों की एक खासियत होती है कि उसमें खामोशी भी आपको बोर नहीं करती बल्कि उसका भी दर्शक से एक रिश्ता बन जाता है। आमिर खान की ये कोशिश उनके भीतर छूपे कलाकार की इमानदारी है। कई दृश्यों मे बूढ़े लगते हैं फिर भी फिल्म काफी कुछ समझाती है। खासकर अपने संगीत औऱ गीतों के माध्यम से...शंकर-एहसान-लॉय उस्ताद हो गये हैं तो प्रसून जोशी शब्दों से झनकार बिखेरना जानते हैं। जो लोग कहते हैं कि कैमरा झूठ बोलता है उन्हें अमोल गुप्ते (क्रियेटिव डॉयरेक्टर) की तारे ज़मीन पर किये गए रिसर्च पर ध्यान देना चाहिए...कैमरा झूठ नहीं बोलता बल्कि हम उसे सच नहीं बोलने देते। जिंदगी के कई सत्यों मे से एक सच ये भी है कि बचपन फिर नहीं लौटता....वो बहती नदी की तरह है,उसे रोकेंगे तो वो गंदा होगा औऱ वक्त से पहले अपनी मौत मरेगा...शायद किसी ने ठीक कहा है.....

कोई स्कूल की घंटी तो बजा दे , ये बच्चा अब मुस्कराना चाहता है........


तुषार उप्रेती

खींच लें एक श्वास.....Marathi cinema


ईरानी निर्देशक माजिद मजीदी की colours of paradise और children of heaven देखी तो लगा था कि बच्चों के मामले में फिल्मों को रंगना हमने सीखा नहीं है। फिर एक दिन अचानक मराठी फिल्म श्वास देखी तो लगा कि हमने भी कच्ची गोलियां नही खेली हैं। संदीप सावंत फिल्म के निर्देशक हैं। और फिल्म भारत की ओर से Oscars की ऑफिशियल entry रह चुकी है।
फिल्म यूं तो महाराष्ट्र स्टेट अवार्ड औऱ राष्ट्रीय पुरस्कारों में लाल-पीले हर रंग के झंड़े गाड़ चुकी है। फिर भी अपन इसे मराठी न कहकर हिंदुस्तानी फिल्म कहेंगे। कहानी सिर्फ इतनी है कि एक बच्चा है जो आंखों के कैंसर (retinoblastoma) के चलते शहर में अपने दादा के साथ अपना इलाज कराने आता है। परेशानी ये है कि इस इलाज के बाद ये बच्चा अपनी आंखों से फिर कभी नहीं देख पायेगा। ऑपरेशन जरुरी है,क्योंकि परशुराम(वो बच्चा) की जान बचानी है। लेकिन बच्चे की इस पूरी यंत्रणा को उसके दादा ज्यादा भुगत रहे हैं। अंतत: वो फैसला करते हैं कि परशुराम की जान बचाना ज्यादा जरुरी है। और ऑपरेशन करने की इजाज़त डॉक्टर(संदीप कुलकर्णी) को दे देते हैं।
बाकी सारी फिल्म उस बच्चे और उसके दादा के बीच की घटनाओं को फ्लैशबैक में जाकर परत दर परत उभारती है। इस फिल्म को देखकर दादा-पोते के रिश्ते की समझ में एक नई रेखा खींच गई कि कैसे पोते में दादा अपने बचपन के पलों को तलाशता है। इसलिए मैं तो कहूंगा कि अगर कुछ पल अपने बचपन को जीना जानते हैं तो खींच लें एक श्वास.....



तुषार उप्रेती

अजनबी शहर...

अजनबी शहर की
अजनबी राहों पे
अपने भी ये क़दम
अजनबी हो गए...

अपने ही गांव से
आंचल की छांव से
देखिए हम भी
अजनबी हो गए......

अजनबी सा घूमता हूं
ख़ुद को ही अब ढूंढता हूं
ऐसे आगे भागे हम
के पीछे धूल छोड़ गए...

अब अजनबी महफ़िलों के
अजनबी काफ़िलों में
जितने भी थे अजनबी
वो हमनशीं सब हो गए.....

- पुनीत भारद्वाज

सागर में कतरा

ये कतरा है, कतरों का क्या ?
जिंदगी मे कतरे या कतरों मे जिंदगी
जिंदगी में खतरा या खतरों मे जिंदगी
यहां हर कतरा हिसाब मांगता है
यहां हर कतरा हिसाब छानता है
सागर में होते हैं कई कतरे
बस एक कतरे में भी होता है सागर........


तुषार उप्रेती

सफलता की उड़ान...





हर रोज़ की तरह थके कदमों से और थोड़ा डरे हुए मै ऑफिस पहुंचा....न्यूज़ रुम के गेट तक धड़कते दिल से पहुंचा और ईश्वर का नाम लेकर अंदर घुसा ....पाया कि बॉस नहीं आया है....कुछ राहत मिली...मीडिया से जुड़े छह महीने पूरे होने को थे लेकिन अभी तक वो जिगरा नहीं आ पाया था कि खुलकर सांस ले सकूं....खैर..बॉस नहीं आया मै न्यूज़ रुम से कैंटीन जा पहुंचा...लोगो से नज़रे बचाकर एक कोने का सहारा लिया ताकि कोई मुझे देख नंबर बनाने के चक्कर मे चुगली न कर दे....एक कप चाय ली...कुछ खाने को लिया...कुछ और नए चेहरे जो अब मेरे अपने लगते थे मेरे पास आकर बैठ गए....बातचीत का दौर चल ही रहा था कि एक बेहद खूबसूरत चेहरे ने कैंटीन मे इंट्री मारी...हर किसी का मुंह खुल गया....बातचीत....खुसफुसाहट में बदल गई....किसी से उसने मेरा नाम पूछा मैने दूर से ही सुन लिया....मेरे अंदर तो मानो बिच्छू का डंक दौड़ गया...मै समझ गया कि आज अगर इस लडकी ने कैंटीन में सभी उम्दा और सीनियर लोगो को छोड़ मुझसे मिली तो शिकायत पक्की वो भी तड़का मार के....फिर वहीं गालियां...वहीं कटाक्ष....जो सरे आम मुझे नंगा कर देते...मै सिहर उठा....तब तक वो मेरे पास पहुंची....बोली मेरा नाम मानसी है आपके साथ आपकी टीम में हूं.....बॉस ने कल ही इन्टरव्यू लिया और पास कर दिया था....मुझे तो चक्कर काटते काटते चक्कर आने लगे थे....खैर...कैंटीन से तुरंत बाहर निकला और अपनी डेस्क पर जा बैठा...मानसी मेरे साथ थी...और सभी की नज़रे मुझे घूर रही थी....तभी बॉस की इंट्री हुई....मैने गुड मॉर्निग विश किया...लेकिन उन्होने उसे हमेशा की तरह इग्नोर करते हुए मानसी को गुड मॉर्निग विश किया...पहले दिन ही बॉस ने की गुड मॉर्निग....बॉस ने मुझे ढेर सारा काम पकड़ाया मानसी को केबिन मे बुलाया और चले गए....बस फिर क्या था सभी भूखे गिद्घ की तरह मुझ पर टूट पड़े...नाम क्या है... कहां से आई...तू जानता है क्या.....इन सभी के बीच एक हफ्ता बीत गया और मानसी को पूरा न्यूज़ रुम जानने लगा मानने लगा....काम कम...अदाएं ज्यादा, बॉस ने शिफ्ट इंचार्ज से मानसी के गुणगान गाए...बस एक कप चाय के बाद शिफ्ट इंचार्ज भी मानसी के भक्त बन गए....मेरी शिफ्ट सुबह दस से रात दस...उनकी शिफ्ट सुबह बारह से शाम छह उसमें भी चाय पानी बडे लोगो के साथ कम से कम दस बार....महीना ही बीता था कि एक दिन मानसी ने मुझसे एक सवाल पूछा- कि भारत के उपराष्ट्रपति कौन है यार....I DON’T KNOW…ये राजनीति विति मुझे नहीं आती...बोरिंग....मैं मुंह खोले सुन ही रहा था कि बॉस और शिफ्ट इंचार्ज दोनो आते दिखाई दिए....मैं खड़ा हो गया....बॉस ने मानसी को देखा मुस्कुराए और बोले तुम्हारी तरक्की हो गई है......और हां तुम्हे बुलेटिन पढने का मौका भी मिल सकता है...बस ऐसे ही काम करती जाओ....और शाबासी के लिए उठा बॉस का हाथ फिसलकर कही और पहुंच चुका था....मै देखता रहा...तभी बॉस बोले काम वाम ठीक से करो और इस लड़की से कुछ सीखो....नही तो कभी तरक्की नहीं कर पाओगे....मै सुनता रहा.......उसे देखता रहा.....



दिग्विजय सिंह

कबसे शबाब कोई देखा नहीं है.....


बड़े मुंतज़िर* हैं मिलने को तुमसे * बेताब
कबसे शबाब कोई देखा नहीं है
आंख़ों से नींद कबसे है गायब
कबसे कोई ख़्वाब देखा नहीं है..


कूचे पे अपने हैं नज़रें बिछाएं
के अब आप आएं, लो अब आप आएं
वो तेरा अदा से यूं आदाब कहना
के आदाब वो कबसे देखा नहीं
बड़े मुंतज़िर हैं मिलने को तुमसे.......



कभी तू मनाए, जो मैं रूठ जाउं
जो मैं मान जाउं तो फिर तू इतराए
वो तेरा मनाना, मेरा मान जाना
ऐसा रूबाब कबसे देखा नहीं


बड़े मुंतज़िर हैं मिलने को तुमसे
कबसे शबाब कोई देखा नहीं है
आंख़ों से नींद कबसे है गायब
कबसे कोई ख़्वाब देखा नहीं है......


-पुनीत भारद्वाज



दीदी आई लव यू ...



सुबह उठा, मुंह हाथ थोया, दांत मांजे, तो देखा कि कुछ लम्हे मेरे पीछे नंगे पांव आने को बेताब हैं। मैंने उन्हें समझाया पर वो नहीं माने। बस अड्डे तक वो मेरा पीछा करते हुए आ गये... हमें टिकट लेना पड़ा पर उनकी मौज थी। बस धुंएं का लच्छा बनाती हुई मेरठ जा पहुंची। शहर छोटा है, लेकिन हर बार खबरों की दुनिया में किसी हादसे के गले में हाथ डालकर स्टाइलिश इंट्री लेता है। चारों ओर से अस्त-व्यस्तता। जैसे छोटे शहर में आकर बड़े शहर के लोग खुद को बड़ा समझने लगते हैं। हम भी सुपिरीओरिटी काम्पलेक्स से छाती फुलाए रिक्शे में जा बैठे। भाई साहब मेरठ कैंट जाना है। जवाब मिला बीस रुपये। एक बार में मान जायें तो मिडिल क्लास कैसे? पता था कैंट के २० रुपये ही लगते हैं। अजी हम भी दिल्ली के पालिका बाज़ार के बंदें हैं। बारगेंन तो खूब किया पर लगे २० रुपये ही। दो आदमी। एक छोटा बैग। और ऊपर से बिन बुलाए लम्हों का बोझ। कमबख्तों से कहा कि जूते खरीद लो। हरामी हैं, कहने लगे सेल नहीं लगी। वैसे भी इस शहर की तपिश नंगे पांव पर चलने वाला ही मेहसूस कर सकता है। रिक्शे वाला खींचता रहा औऱ रिक्शा आगे बढ़ता रहा। उतरे पर लम्हे हमसे पहले ही पुल पार करके नानी की गोद में जा बैठे। मैंने कान पकड़कर उन्हें दूर हटाया। नानी के पांव छुए मौसी को गले लगाया औऱ बेहन से जा लिपटा। रिश्तों के मायने छोटे शहर में नज़र आते हैं। छोटा शहर जो हर वक्त बैठकर ख्वाब बुनता रहता है। यहां बड़े ख्वाब औऱ छोटी हसरतें होती हैं। खूब फोटो खींचे। सबसे छोटी बहन का सबसे लाडला भाई जो हूं। इसलिए मुफ्त में ही ये काम कर दिया। लम्हों के हमशक्लों को फोटो में कैद किया। मामा के सखत हाथों के मुलायम पराठें खाये। यकीन मानिए कुछ पराठों को खाया जाता है औऱ कुछ से जूझा जाता है। देसी परांठा है भईया। शहर में हम इसका अल्पविकसित रुप परांठी खाते हैं। जितना फर्क लंगोट और लंगोटी में होता है। बस उतना ही फर्क परांठे और परांठी में होता है। शाम को तैयार होना था। ना जाने ये लम्हे अपने लिए कहां से लिबास ढ़ूढ़ लाये। सुंदर लग रहे थे। मैंने भी मेरठ में ही शापिंग कर ली थी। इसलिए तैयार हुआ। जैसा कि उम्मीद थी दूल्हे को मैंने ही गोद में उठाया। सबसे हट्टा-कट्टा जो हूं। रस्मों औऱ कस्मों को अंजाम दिया जाता रहा। औऱ पता ही न चला कब शादी हो गई। कल तक जिसके कान मरोड़ा करता था। वो बहन अब विदा होने को थी। आंसू आंखों से झांक रहे थे। जोर से उसे गले लगाया। और कहा दीदी आई लव यू...


उसने कभी अपने हाथ से मेरी कलाई पर राखी नहीं बांधी । न वो मेरी सगी बहन थी। फिर भी मेरे खून में रिश्तों की पैदाइश जैसी थी। बड़े होने पर मां के बाद जिस बहन को सबसे नज़दीक पाया वो यही थी। मैं खुश था उसे उसकी पसंद का लड़का मिला। बस लम्हे थे जो रो रहे थे.....

तुषार उप्रेती




दिल्ली अभी दूर है....





ये शहर नहीं, ये रिश्तों का चोर है
ये दिल्ली नहीं ,ये कुछ और है..




यहां रिक्शें हैं , तांगे हैं, मेट्रो का शोर है

ये दिल्ली नहीं,ये कुछ और है








यहां धूल है , धूप है, धुआं हरामखोर है


ये दिल्ली नहीं,ये कुछ और है..








यहां संसद है, सड़क है, ये दिल मांगे मोर है


ये दिल्ली नहीं, ये कुछ और हैं..








यहां खादी है , खाकी है, गांधी के स्टैचू हर ओर हैं


ये दिल्ली नहीं, ये कुछ और है...








यहां आदमी है, औरतें हैं, कमला मार्किट के धंधे का ज़ोर है

ये दिल्ली नहीं , ये कुछ और है..








यहां पंजाब है, हरियाणा है, फिर भी बिहारी लतखोर हैं


ये दिल्ली नहीं, ये कुछ और है...











यहां सर्दी है, गर्मी है, यमुना की चुप्पी करती बोर है


ये दिल्ली नहीं,ये कुछ और है..








यहां पंडे हैं, गुंडे हैं, बाबू रिश्वत-खोर है




ये दिल्ली नहीं,ये कुछ औऱ है.








यहां स्कूल हैं, कालेज हैं, अख़बार बचपन की हत्या से सराबोर हैं

ये दिल्ली नहीं, ये कुछ और है...








यहां मंज़िल है, फासले हैं, गाडफादरों का ज़ोर है




ये दिल्ली नहीं कुछ और है...








यहां किस्से हैं,सीटियां हैं, मनचले मुफ्तखोर हैं




ये दिल्ली नहीं, ये कुछ और है....








.यहां मंदिर हैं, गुरुद्वारें हैं, लुटी इज्ज़त हर ओर है




ये दिल्ली नहीं, ये कुछ और है..














यहां होटल है, यहां बोतल है, बेशुमार मर्दखोर हैं




ये दिल्ली नहीं, ये कुछ और है..








यहां जंतर है, यहां मंतर है, दिखता नहीं कोई छोर है




ये दिल्ली नहीं, ये कुछ और है....








यहां आप हैं, यहां मैं हूं, दिल बहलाने को वन टू का फोर है




ये दिल्ली नहीं, ये कुछ और है....











तुषार उप्रेती



मौत....








कुछ ख़लिशें(उलझनें) पाल रहा हूं

मैं उसका आना टाल रहा हूं


यूं तो पहले भी जख़्म खाये थे

अब उनके निशान संभाल रहा हूं


आंखे अब बुझने ही वाली हैं

अहसासों को मन से निकाल रहा हूं


सरे-शाम अब दर्द से कटती है

मैं उसके लिए खुद को पाल रहा हूं


वो दिख रहा है मुझे आता हुआ

लो खलाओं( अंतरिक्ष ) की ओर हाथ उछाल रहा हूं



तुषार उप्रेती

औरत......
















वो आ़ज़ाद होना चाहती थी
कुछ बदलना चाहती थी,




वो आ़ज़ाद हुई
उसने खुद को बदला
लेकिन क्या बदला ?

बिस्तर बदले
चूल्हे बदले
मर्द बदले
किंतु मर्द वही थे
सिर्फ मुखौटे बदले

सब कुछ बदला

हालात न बदले
दर्द वही थे
बस मरहम बदले

चादर वही थी
बस तकिये बदले


वो आ़ज़ाद होना चाहती थी
कुछ बदलना चाहती थी




घुटन वही थी
बस तैखाने बदले
अंधेरा वही था
बस डर बदले


सब कुछ बदला
लेकिन हकीकत न बदली ....




वो आज़ाद होना चाहती थी
कुछ बदलना चाहती थी..........




तुषार उप्रेती


चाय की चुस्कियां....


कुछ ख्वाबों को समेट कर
कुछ किस्सों को लपेट कर
चाय की चुस्कियों में गुजरती है अपनी शाम,
इसलिए सारे शहर में हम हैं बदनाम....


कुछ ऊंगलियों को थाम कर
अपने अधूरे काम कर
चाय का हर घूंट अपन पीते हैं
खाली जेबों से यूं ही मौज लेते हैं


कुछ बातों को संभालकर
कुछ वक्त निकाल कर
चाय से चुप्पियां भगाया करते हैं
हम यूं ही आंसू सुखाया करते हैं


कुछ धुओं को फूंक कर
थोड़ी देर को रुक कर
चाय की हर चुस्की का मज़ा लेते हैं
अपने होठों को गर्मी की सजा देते हैं..


कुछ जख्मों को साथ लिये
कुछ पट्टियों को बांध लिये
चाय से गप लड़ाते हैं
बैठक अपनी रोज़ यूं ही जमाते हैं.......




तुषार उप्रेती

मित्र-मंडली


तुषार, पुनीत, प्रशांत और दीपक


ना शहर की भीड़ में दिल लगता है
ना तन्हाईयों की गहराई में
ना किसी की याद में दिल खोता है
ना किसी की अंगडाई में
अपना दिल तो तब लगता है
जब अपने यार अपने साथ हों
अपना दिल तो तब जवां होता है
जब हाथों में यारों का हाथ हो..

क्यों खोया चांद..khoya khoya chand review


कोई भी निर्देशक अपने समय का साक्षी होता है,हांलाकि मौजूदा फिल्मी दुनिया को देखकर ये कहना थोड़ा मुश्किल है। बावजूद इसके कहना पड़ेगा कि सुधीर मिश्रा ने अपने समय को बखूबी देखा है, जिया है,और फिल्मों में उसे उतारने की ईमानदार कोशिश वो करते ही रहते हैं।

हज़ारों ख्वाइशें ऐसी में ये कोशिश 70 के दशक की राजनीतिक चालाकियों को सामने लाने में बखूबी कामयाब रही थी...और 2007 में 50-60 के दशक की फिल्मी दुनिया को पर्दे पर दोबारा जिंदा रखने मे भी सुधीर मिश्रा कामयाब हुए हैं..लेकिन इस बार ये कामयाबी उन्हें ज्यादा दूर तक नहीं ले जा रही...पहली नज़र मे फिल्म अच्छी है...थोड़ी बोझिल भी...सुधीर मिश्रा की शुरु से ही ये खासियत रही है कि उनके पात्र एक आम इंसान की तरह ‘आईडियलिज़्म’ और ‘रियलीज़्म’ के बीच झूलते रहते हैं..और फिर अंत में जीत रियलीज़्म की होती है..इसलिए उनकी फिल्मों मे कोई बड़ा नायक पैदा नहीं होता जो अपनी फरस्ट्रेशन किसी को गोली मारकर मिटाये...बल्कि बड़े बनने की ख्वाइश में जिंदगी के हर कदम पर परत दर परत धोखा खाता वो आदमी होता है,जो अंत मे खुद से ये सवाल पूछता है कि जिस सहर की मुझे उम्मीद थी ये वो तो नहीं ,ये वो तो नहीं...अगर आपने ‘हज़ारों ख्वाइशें ऐसी’ और ‘जाने भी दो यारों’ को ठीक से देखा है तो इतना तो है कि ‘खोया खोया चांद’ का अंत आपको पसंद नहीं आयेगा..खोया खोया चांद अचानक से बीच में खत्म हो जाती है...हांलाकि फिल्म बीच में कई दफे काफी लंबी नज़र आती है। कुछ दृश्यों का फिल्मांकन गज़ब का है खासकर शाइनी और सोहा के समंदर किनारे टहलने वाले दृश्य में थोड़ी देर के लिए ऐसा लगा कि वाकई में 'पोएट्री ऑन सेल्युलाइड़' वाली बात सही होती है।
अभिनय की बात करें तो शाइनी आहूजा को अपनी संवाद अदायगी पर मेहनत करनी चाहिए। सोहा अली खान के अंदर अभिनय की तमाम संभावनाएं होने के बावजूद संघर्षरत लड़की की वो तड़प गायब है। सोनिया जहान की अगर बात करें तो उनकी अदाएं बेहद मादक हैं। बला की खूबसूरत तो वो हैं ही। लेकिन फिल्म के तीन कलाकार ऐसे हैं जिनका कद समय के साथ बढ़ता जा रहा है। ये बंदे हैं...रजत कपूर, जो वक्त के साथ बेहतर होते जा रहे हैं, विनय पाठक, जो कम बजट की फिल्मों की खोज हैं और सोरभ शुक्ला, जिनके अभिनय को नापने वाला बैरोमीटर बनाना मुश्किल होता जा रहा है। इस फिल्म में अपनी पंजाबियत को संवादों के लच्छों मे लपेट कर फेंकने मे सौरभ शुक्ला दर्शकों को हर बार स्क्रीन पर आते ही प्रभावित करते हैं....
संगीत फिल्म का मधुर है ,लेकिन क्वालिटी को और निखारा जा सकता था। स्वानंद किरकिरे के गीतों मे ताज़गी है,आवाज़ मे कव्वालों वाला अंदाज़ है। जिसे शांतनु मोइत्रा ने पहचाना है।
अंत मे खोया खोया चांद को बनाकर सुधीर मिश्रा ने खुद के साथ तो न्याय कर लिया है। लेकिन शायद इस बीच उनके हाथ से दर्शकों की नब्ज़ छूट गई है। वो अपना खास दर्शक वर्ग विकसित कर पाने के बावजूद सफल नहीं कहलांएगें...क्योंकि फिल्मों मे जिन लोगों के दर्द की कहानी आप सुना रहे हैं वो दर्द जब तक सबको तकलीफ न पहुंचाये तक तक आप खुद को सफल नहीं कह सकते....खैर खोया खोया चांद के बारे में इतना ही कहना बेहतर होगा कि..


जो चेहरा चांद हो सकता था
वो महज़ भीड़ बनकर रह गया......
तुषार उप्रेती

ज़रा गौर कीजिए हुज़ूर...











ज़रा गौर कीजिए हुज़ूर
उन चोर निगाहों की ओर
जब मिट्टी का चूल्हा फूंकती
माई के पीछे बेसुध हो खेल रहे बच्चे
एकाएक निहार लेते हैं चूल्हे को.....
कुछ अनजान बनने का ढ़ोंग करते हुए
चूल्हे की हकीकत से...

उनके कान इंतज़ार में रहते हैं

उस पुकार के,जो मिटा जायेगी
दिन-भर से फूलते उनके उस नन्हे
पेट की भूख को....


ज़रा गौर कीजिए
जब अपना पप्पू खुशी से उछलता है
फिर चोर निगाहों से निहार लेता है

अपने बाप को....
इस बात से अनजान बनने का
ढ़ोंग करते हुए कि आज पहली ताऱीख है
वह भी इंतज़ार में खड़ा होता है
उस एक पुकार के जो महीने-भर से फटी
उसकी नेकर को सिलने का आश्वासन देती है........
लेकिन मैं जानता हूं..
आप गौर नहीं करेंगे इन सब पर..
और उन्हीं चोर निगाहों से देखने लगेंगे
अपने उस मन को..
इस बात से अनजान बनने का ढ़ोंग करते हुए ,
क्या आप ये सब पहले से नहीं जानते थे ?
आखिरकार आप भी खड़े हो जाएंगें
उस एक पुकार के इंतज़ार में
जो आपके इस मरते मन को सांत्वना देंगे..
लेकिन ज़रा गौर तो कीजिए हुज़ूर ।
















तुषार उप्रेती

चिलमन और लफ़्ज़


चिलमन के उस शहर में
नकाबपोशों का शोर था
ख़ुदा की ख़ुदाई में
हर कोई मेरी ओर था

आवाज़ें छन के मेरे पास
आ रही थी ,
तुम कुछ लफ़्ज मन ही मन
गुनगुना रही थी ,
तभी दूर से एक आवाज़ आई
मानो किसी ने आज़ान सुनाई

तुमने मेरा नाम पुकारा
दूध में भिगोकर एक लफ्ज़ मारा
मेरे होठों का रंग अब सुरमई लाल है
ये तो महज़ तुम्हारे लफ्ज़ का ख्याल है

ये लफ़्ज ही थे जो
बेवफाई कर गये
तुम्हारी सांसों को छूने से पहले
तुम्हारे होठों से झर गये

तब से चिलमनों ने अफवाह उड़ाई है
चांदनी अब साजिशों पर उतर आई है
अब कोई मेरा साथ नहीं देता
ख़ुदा भी चुप रहने को कहता

अब आज़ानें सुनाई नहीं देती
आवाज़ें अब कोने में बैठी सिसकती रहती ....





तुषार उप्रेती

अजीब शहर...


कैसा अजीब है ये शहर
यहां शाम हो या दोपहर
चीखें इमारतों से टकराती हैं
हर आह यहां गम से पहले ही जमींदोज़ हो जाती हैं

पंछियों के साये यहां छोटे लगते हैं
रिश्ते सिक्कों से खोटे लगते हैं
आवाजें अपनों तक नहीं पहुंचती
जिंदगी यहां सिर्फ अपने ही बारे में है सोचती

लोग तस्वीरों में यहां तकदीरें तलाशते हैं
फिर हताश से गांव लौट जाते हैं।
रेलगाड़ियों के धुएं मे उड़ जाते हैं सारे ख्वाब
जब ये शहर करता है खुद को बेनकाब।....



तुषार उप्रेती

हिज्र....






ये जो हिज्र* का ग़म है * separation
इक जानलेवा ज़ख़्म है
और जो तेरी यादें हैं
वो इस पीर* का मरहम है
* दर्द
ग़मे-हिज्रा* से पल-पल मर रहा हूं
* बिछड़ने का दर्द
और यादों में तेरी शफ़ा* ऐसी के
* healing power
मरके भी हर पल जी रहा हूं......




-पुनीत भारद्वाज


ये श्याम बेनेगल कौन है ?


दिल्ली के ताज पैलेस होटल में हम घुसे। माहौल काफी रंगीन था। कुछ जाने-पहचाने चेहरे आसपास खड़े बतिया रहे थे। टीवी सीरियल हम लोग फेम बाबुजी भी थे , तो नटवर सिंह और जया जेटली भी टेबल पर रखे अंगुर गप्प से निगल रहे थे । वैसे कुछ और चेहरे भी थे जिन्हें अपने बचपन के दिनों मे मैं दूरदर्शन पर देखा करता था। नाम याद नहीं। लेकिन अपने को जिस आदमी से सबसे ज्यादा मतलब था । वो थे श्याम बेनेगल , जो दिखाई नहीं दे रहे थे। या यूं कहें कि हमारी आंखें उन तक पहुंच नहीं पा रही थी। वैसे शूट पर आने से पहले ही मेरा दिल टूट चुका था। कारण सिर्फ इतना था कि कैमरापर्सन ने मुझसे पूछ लिया था..श्याम बेनेगल कौन है ? और मैंने उसे बौखलाहट में जवाब दिया कि संजय लीला भंसाली को जानते हो न , बस उसका बाप है। खैर मामला था एक बुक लांच का। पार्टी में सरगर्मियां थोड़ी तेज़ हुई। देखा तो पाया एन.डी.टी.वी वाले किसी को गन-माईक लगाकर शूट कर रहे हैं। तुरंत ताड़ गये कि श्याम दा ही हैं। अपन भी हो लिये। इच्छा तो कब से थी पर दादा के दर्शन आज हुए । सुना था काफी सज्जन आदमी हैं। लग भी रहे थे। और थे भी। हमने भी कैमरा ,माईक, बीच में घुसेड़ दिया। हांलाकि दूसरे शूट्स की तरह उनसे बात करने वालों की मारामारी यहां नहीं थी। फिर भी हम कुछ ज्यादा ही फुदक रहे थे।
पहला सवाल पूछा- श्याम दा आज दिल्ली बुक लांच पर आना हुआ और जामिया मिलिया इस्लामिया ने भी आज आपको सम्मानित किया है। तो इस बार का विजिट लकी रहा?
श्याम दा- जी, खुशी तो बहुत होती है,जब कोई सम्मानित करता है। इस बार जामिया ने डाक्टेरेट की उपाधि दे दी तो काफी अच्छा लग रहा है।
दूसरा सवाल- खबर है कि गंभीर फिल्में बनाने वाले श्याम बेनेगल अब महादेव के जरिये कामेड़ी फिल्म में हाथ आजमा रहे ?
श्याम दा- ठीक सुना है। वैसे कामेड़ी मेरे लिये कोई नई बात नहीं है। मंड़ी भी एक किस्म की कामेड़ी फिल्म थी। इस बार महादेव में भी कुछ कामिक स्टायर होंगे। देखें क्या परिणाम होता है।
तीसरा सवाल- महादेव के कैरेक्टराइज़ेशन के बारे में कुछ बताएं?
श्याम दा- जी फिल्मों का कैरेक्टराइज़ेशन एक अहम हिस्सा है। कोई भी फिल्म अकेले plot पर खड़ी नहीं रह सकती। इसलिए कैरेक्टरर्स के जरिये उस इंटरेस्टिंग बनाए रखना चाहिए।
चौथा सवाल- आपके उस चर्चित प्रोजेक्ट बुद्दा का क्या हुआ ? सुना है श्रीलंका में उसके लिए १००० एकड़ का प्लाट खरीदा गया है।
श्याम दा- उस पर अभी काफी काम होना बाकी है। हां, ये इंड़ो-श्रीलंकन प्रोजेक्ट है जिसे पूरा करने में अभी काफी समय लगेगा। अभी तो स्क्रिप्ट पर काम चल रहा है।
पांचवा सवाल- वैसे काफी समय हो गया आपको कोई फिल्म बनाए, अब क्या आपका कमबैक माना जाये ?
श्याम दा- नहीं,नहीं ऐसी कोई बात नहीं। उम्र जरुर हो चली है पर अभी तो काफी काम करना है। थोड़ा थक गया था तो ब्रेक ले लिया।
आखिरी सवाल- एक फिल्म आपने बनाई थी। सुसमन इतना बता दीजिए की वो कहां मिलेगी।
(ये सवाल आफ कैमरा पूछा गया)
श्याम दा- मुझसे ही ले लिजिएगा। (थोड़ा झिझके, फिर संभलकर बोले) वो आपको एन.एफ.डी.सी से मिलेगी।
दादा आगे बढ़ गये और किसी ने उनसे कोई सवाल नहीं पूछा


तुषार उप्रेती

हैलो-हाय.....





वो लड़कियां बेहद खुशनसीब होती हैं। जिनके नाम से उनके गली-मोहल्ले गुलज़ार हुआ करते हैं। ऐसा मैं नहीं मेरे ही कुछ उम्रदराज दोस्त कहा
करते थे।



वो बाग जहां बचपन में हम क्रिकेट खेला करते थे, अब वहां यारों का मज़मा लगता था। बैठकें होती। शर्तें लगती। हर हफ्ते का यही रुटीन । हर हफ्ते हमारे मोहल्ले का नाम किसी नई लड़की के नाम पर रखा जाता। कल तक जिसे हम कन्नू मोहल्ला कहते थे वो सोमवार से पूनम मोहल्ला कहलाएगा। बैठकबाजों के उस्ताद सुमित भाई जब ये घोषणा करते तो बहुत शोर होता, सीटियां बजती और हुल्लड़बाजियां होती।
मैं हमेशा दूर से ही अपने इन दोस्तों को हाथ हिलाकर आगे बढ़ जाता। कई बार इशारे होते,आवाज़ें लगती,पर मैं हाय हेलौ से ज्यादा नहीं रुक पाता।
उस्ताद अपन से इस बात के लिए ख़फा रहते। उस्ताद....हां यही असली नाम था उनका। आठवीं तक पढ़े।फिर मन उक्ता गया। तो इधर-उधर घूम कर लोगों की लौंडियों को हांकने लगे। एक दिन बाप ने सरेआम कनपट्टी पर दे मारा,.तो सोया हुआ आत्मसम्मान जागा और रोज़ाना सुबह दस से शाम पांच तक चूड़ियों की दुकान पर लुगाइयों को चूड़ियां पहनाते। काम मुनासिब न सही,पर दिलचस्प था। इसलिए करते रहे। लेकिन शाम पांच बजे घर आकर उस्ताद अपनी उस्तादी न दिखाएं,ये कैसे हो सकता है?
बाग के टपरे(टिला)पर मजमा लगता। औऱ उस्ताद अलाने-फलाने की लड़की का किस्सा सुनाते।
..... ‘अजी उस दिन कनॉट प्लेस में बॉयफ्रेंड़ के साथ थी।’...
“मैंने बाज़ार में घुमते पकड़ लिया...तो बोली घर मत बताना”
और मेरे जैसे न सही पर मुझसे थोड़े ज्यादा बुरे हालात में रहने वाले सारे जवां लौंडे...जांघों पर हाथ मलते हुए हाय हाय करते। इस सबमें ये खासियत थी कि इनमें से कोई भी कॉलसेंटर में काम करके अपनी जिंदगी बर्बाद नहीं करना चाहता था। लेकिन दूसरी नौकरियां भी न जाने कौन सी गली में जा छुपी थीं जो ढूंढ़े नहीं मिलती थी। सबके सब अच्छे घरों के। न कोई ऐब, न कोई हरकतें। सिर्फ मजमे की लत थी। जिसने इन सबको सारे इलाके में बदनाम कर रखा था। कसूर इनका भी नहीं बेचारे नौकरी और छोकरी दोनों मामले में वर्जिन थे।
खैर किस्सों की ये श्रृंखला उस दिन टूटी,जिस दिन उस्ताद को सबने काले कुत्ते वाली पूनम से सीढ़ियों के पास बतियाते पाया। हुआ यूं कि जब टपरे पर इंतज़ार की हद हो गई तो सारे मुश्तंडे इलाके में झुंड में घुमने से लगे। तभी किसी ने बताया कि उस्ताद तो बेवफाई कर गये।
अपनी इस हरकत पर उस्ताद से भी कुछ कहते न बना। हंस-हंस के 'बस ऐसे ही'.... वाक्य का लच्छा बनाकर जरुर दोस्तों को निगलने को दिया। पर जवानी में गर सवालों के जवाब एक ही दिन में मिल जायें तो जिंदगी खत्म न हो जाये। अगले दिन टपरे पर बैठ कर उस्ताद ने खोपड़ी खुजाते हुए जब सार्वजनिक लहज़े में जैसे ही कहा....'हो गया'... तो यारों ने नाच-नाच कर ज़मीन की कुबड़ को भी समतल कर डाला।
सिर्फ इतना ही जान पाये कि एक दिन दुकान पर चूड़ियां खरीदने आईं। तब कच्ची कलाई पर उस्ताद का दिल ऐसा फिसला की , उसके कुल्हे की हड्डी टूटी यानि उठने का नो चांस। लड़की से पूछा तो पता चला वो भी दबी जुबां से हामी भर चुकी है। उस्ताद से वो आखिरी मुलाकात थी। मैं भी उस दिन मौजूद था। लड़की को पहले से जानता था। खासी मर्दखोर किस्म की है। उस्ताद से कहा नहीं,नहीं तो दिल के गुब्बारे में छर्रे लग जाते।
अब होना क्या था? उस्ताद का सारा ध्यान उस लड़की की ओर था। और इलाके के बाकी मुफ्तखोर आशिक अब उस्ताद के किस्से सुनाया करते। यानि अब कुछ ठीक वैसे ही हो रहा था,जैसा कि सदियों से होता आया है। सिर्फ़ एक लड़की ने बैठकबाज़ों की मंडली का सत्यानाश कर दिया। किसी शागिर्द पर नज़र डाली होती तो ठीक था, लेकिन उसने तो उस्ताद पर ही चाकू-छूरी, भाले-बरछे चला दिए।
कुछ दिनों बाद सुनने में आया कि दोनों प्रेमियों ने भागकर शादी करनी चाही...पर पकड़े गए। काफ़ी दिनों तक इलाके में हो-हल्ला होता रहा। फिर चुप्पी छा गई। हालात तब बद से बदतर हो गए जब चुप्पियां साज़िशों पर उतर आई। इलाके में उस्ताद और उनकी बिन बयाही बेग़म को गाली देना शग़ल सा बन गया। यारों ने भी कन्नी काटने में देर ना लगाई। जो पहले उस्ताद के क़िस्सों पे सीटियां बजाया करते थे..अब उस्ताद के क़िस्से से जी चुराया करते थे। अपनी हाय-हैलो जारी रही........

तुषार उप्रेती




ख़ामोशी ज़रूरी है....

माना के सुरूर है तेरी बातों में
मगर इक ख़ामोशी भी ज़रूरी है
कुछ निग़ाहों को भी तो कहने दो
बात इनके बिना अधूरी है....
-पुनीत भारद्वाज

कतरा-कतरा जिंदगी...

जिंदा लाशों के साथ जी रहा हूं मैं
अब अपने ही गम को
खुद-ब-खुद घोल कर पी रहा हूं मैं
कतरा-कतरा बिखरी हैं जिंदगी

उसके हर सिरे को सी रहा हूं मैं




तुषार उप्रेती

एक नज़र तो मिले....

ग़म का मौसम पल-दो-पल भर आएगा
पतझड के बाद पेड़ हरा हो जाएगा
आग लगी जो दो दिल में वो थोड़ी सी दर-परदा* है
*भीतर
एक ज़रा सी नज़र मिले और माजरा हो जाएगा...

आंखों से जो बहते हैं अश्क़ अब
ये होना भी लाज़िम था,
चलो इन अश्क़ों के बहने से दिल भी ख़रा हो जाएगा....


-पुनीत भारद्वाज

लफ़्ज़-लफ़्ज़ ज़िंदगी.....

जिन लफ़्ज़ों में ज़िंदगी के मायने छिपे हैं
उन लफ़्ज़ों की तलाश में रहता हूं
लफ़्ज़ों का सौदागर हूं
लफ़्ज़ों के बहाने मुस्कुराहटें बटोरता हूं....
-पुनीत भारद्वाज

FRUSTRATION..........




सिर पर सवार हुई फरस्ट्रेशन अब आंखें निकाल कर मुझे घूरने लगी थी। और मेरी इतनी हिम्मत नहीं हो पा रही थी कि उससे आंखें मिलाऊं। काफी दिनों से उसे पाल रहा था। पुचकार रहा था। वो रोज़ सोचती कि आज मेरे सब़्र का बांध टूटेगा और उसकी मौज होगी। लेकिन रोज़ रोज़ फरस्ट्रेशन की आंच पर दिमाग का चूल्हा गर्म होता। उस पर गालियां भी पकतीं। फिर न जाने किस डर से गैस खत्म हो जाती।

लेकिन कल शाम तक सब बर्दाश्त के बाहर हो गया। मन हुआ कि BOSS के कैबिन में घुसूं और दुनिया का सबसे छोटा रिज़ाइन मुंह पर दे मारुं Dear sir, मां... । फिर लगा who cares? यहां फर्क किसे पड़ता है। मेरे जैसे छत्तीसौ की लाईन जो लगी है। इसलिए अपनी शिफ़्ट पूरी करके मोटसाईकिल उठाई और सारी फरस्ट्रेशन को पेट्रोल के धुएं में उड़ाता हुआ निकल गया सड़कों पर। कभी-कभी लगता है कि मीडिया में नया होना गुनाह हो जाता है।

जब फरस्ट्रेशन का उबाल कम नहीं हुआ तो एक दोस्त को बुला लिया और गालियों के कंकड़ उछालने लगा। 'शर्म नहीं है इन लोगों को ...बेटी की उम्र की लड़की को भी नहीं छोड़ते।' ॥मैंने कहा 'छोड़ेगें कैसे यार... वो खिलाती हैं तो ये खायेंगे नहीं।'॥ दोस्त चाऊमीन निगलते हुआ बोला। पता नहीं हमें किस बात का फरस्ट्रेशन ज्यादा था। इस बात का कि बीस साल की लड़की पैंतालिस साल के आदमी के साथ सोती है या फिर इस बात का कि हमें इन लड़कियों के साथ सोने को नहीं मिलता।

जब कुछ समझ नहीं आया। तो श्रीराम सेंटर के बाहर चाय पीने आ गये। ये वो जगह हैं जहां से दिल्ली वाले सपने देखना शुरु करते हैं। कितनों की जिंदगी तो इन्हीं गलियारों पर चाय की चुस्कियों में गुजर गई।


दोस्त ने पूछा-तूने अपना सी.वी तैयार कर रखा है, ना? मैंने तुरंत कहा- हां,हां क्यों ?नहीं ऐसे ही। अख़बार में ऐड था कि जगह खाली है। वो बोला-'कल चलते हैं।' मैंनें कहा। नादान थे हम। भूल गये थे कि सिफारिश या so-called , contact,के न होने पर मायूस होना नियति है। पहले समझ नहीं आता था। लेकिन अब समझ आया कि फिल्मों में हीरो की नौकरी पक्की होने से पहले वो फोन क्यों बजता था। हमारे पास भी हीरो वाली वही फरस्ट्रेशन है। इस मामले में आजकल के हीरो मस्त हैं। बड़े-बाप के घर एप्लीकेशन देकर पैदा होते हैं। क्योंकि contact वो नु्क्ता है जिसके लगने से खुदा भी ख़ुदा हो जाता है। खैर इन सबकी परवाह किये बगैर पूर जोश से एक अख़बार के दफ़्तर की सीढ़ियां चढ़ गये। रिसेप्शन पर धरे जाने पर हमने बताया कि सी.वी देने आये हैं। नतीजतन सी.वी रिसेप्शनिस्ट को देने पड़े। उसने पहले से जमा सी.वी के कूड़े में हमारा सीवी भी पटक दिया। और कहा... 'हम call करेंगें '। हमने देखा सामने एक काला शीशा लगा हुआ था। अंदर अख़बार का दफ़्तर था। लोग वहां काले नज़र आ रहे थे। जिन सीढ़ियों पर कूद-कूद कर गये थे। वापसी पर उन पर अपना भार डालते हुए उतर रहे थे। साथ में थी तो बस वही फरस्ट्रेशन॥जो अब पंजे निकाल कर हमारी औऱ लपकने वाली थी....




-तुषार उप्रेती



तस्वीरें .....




मुझे तस्वीरों से सख्त नफरत है। न जाने कब किस मोड़ पर मेरे सामने पड़ जाएं और आंखें उनका मुंह नोच लें। कारण बड़ा ही सीधा सा है। एक तो तस्वीरें हमेशा सुख के शब़ाब में डूबे पलों की होती हैं। जिन्हें देखकर मन हर बार ये सवाल गेंद की तरह उछाल देता है कि शायद मेरा बिछड़ा कल ज्यादा हसीन था। दिमाग भी उसी वक्त फरमान जारी करते हुए कहता है,कि, अगर पास्ट अच्छा था तो मैं भला किस फ्यूचर की तलाश में भटक रहा हूं । जहां जिंदगी हर कदम पर फासले पैदा करती जा रही है।

इंक़लाब....




कुछ ऊंगलियां अब मुड़ना चाहती हैं
वो हथेलियों से जुड़ना चाहती हैं..
अत्याचार को देना चाहती हैं एक जवाब
नारा बुलंद करो इंक़लाब.....


ये किसने ढ़ाया इंसानियत पर कहर
ये कौन देना चाहता है हमें मीठा जह़र
चुखता करेंगें सारे हिसाब
नारा बुलंद करो इंक़लाब

खून अब उबल रहा है
रातों को करवटें बदल रहा है।।।
मुठ्टियां अब भीचीं हैं
आस्तीने ऊपर खींचीं हैं
कसकर देगें हम जवाब
नारा बुलंद करो इंक़लाब



हमारी आंखों का पानी अब सूख गया है
हमने सपना भी अपना झौंक दिया है।।
अब मैदान-ए-जंग होगी
खून में नई तरंग होगी..
मिलेगा सबको मौत का खिताब
नारा बुलंद करो इंक़लाब......






तुषार उप्रेती

करते रहिए हाय हाय….


ये हाय ,हाय का ही खेल है दोस्तों। अगर किसी से हाय बंद हो गई तो समझिए आपकी किस्मत का ताला भी बंद हो गया। अगर किसी ने हाय दे दी तो समझिए जिंदगीभर मीड़िया में मैंढ़क की तरह बैठ कर टर्राते रहेंगें कोई सुनने वाला नहीं। आखिर पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर किया भी कैसे जा सकता है। ये मगरमच्छ भी ना 'टू मच' होते हैं जी। छोटे छोटे मैंढ़कों को खाकर समझते हैं कि चैनल की प्रगति के लिए काम कर रहे हैं। लेकिन होता उल्टा है जो मैंढ़क बरसाती होने के बावजूद हर मौसम में टर्राना सीख जाता है उसे भी हाय दे देते हैं। बेचारा हाय हाय हाय॥करते हुए अपने कुएं से बाहर निकल जाता है। दुनिया है बड़ी ज़ालिम।।। कोई सुनने वाला नही।...कौन किसका सगा यहां सबने सबको ठगा। अब बताइए हमें समझाया जा रहा है कि सबसे हाय हैलो चालू रखो और किसी की हाय मत लो। अगर दुनिया छोटी है तो मीड़िया की दुनिया जिंदगी का गोल चक्कर..।एक न एक दिन सबको दौबारा वहीं मिलना है जहां से बिछड़े थे। औऱ फिर से हाय करनी है।।।मैंने अपनी आंखों से देखा है जी। अभी किसी रंग का चश्मा नहीं चढ़ा है न।। एक दिन खूब हंगामा हुआ,,तू कौन मैं खामखा का ड्रामा भी देखा।।लोगों को एक दूसरे की हाय लेते और देते भी पाया।।गालियों की बौछारें सुनी।।।कानों से खून भी निकला।।बंदे अलग हो गये।।एक दूसरे की खूब मां-बहन करने के बाद। शूट पर दोनों को फिर से हाय कहते देखा।।। जी मचल गया।.. कितना नकली बेकार शहर है ये...कोई शख्स ठीक कह गया है जो जर्नलिज़्म करना चाहता है। वो नौकरी छोड़ने के लिए तैयार रहे।।।क्योंकि अंधों के शहर में आइने बेचना बेकार है....नहीं तो करते रहिए हाय हाय...वैसे इसका एक मतलब और भी होता है।।।



तुषार उप्रेती

पिक्चर अभी बाकी है..ॐ शांति ॐ


सांवरिया देखी तो ओम शांति ओम देखने के लिए जीभ लपलपाने लगी। खैर अपन भी घुस गये टिकट लेकर रात का आखिरी शो देखने। इस बार टिकट खुद खरीदा। महंगा नही लगा। वजह, साथ में था पसंदीदा दोस्त जिससे अपनी खूब पटती है।
खैर फिल्म शुरू हुई और कब खत्म हुई पता ही नहीं चला। बीच में इंटरवल का ब्रेक भी बेमानी लग रहा था। समझ आया कि शाहरुख खान अपनी किस्मत का बुलंद सितारा क्यों है? वजह है इंडियन आडियंस का उसके साथ हर रोल में कनेक्ट होना। साधारण शक्ल,जो उसे आम लोगों से जोड़ती है और आंखों से तकलीफें बयां करने की काबिलियत। इसलिए वक्त बीतता गया और शाहरुख का सफर आसान होता चला गया। पहली बार विदेशी अंदाज़ में बदन तराशा और दर्दे डिस्को भी किया। लेकिन माया मेमसाहब और डुप्लिकेट में शाहरुख पहले भी अपने तन की सूखी हड्डियां दिखा चुके हैं।
फिल्म शुरु होते ही रोलर कोस्टर राइड़ शुरु हो जाती है। शिरीश कुंडुर ने एडिटिंग में कहर ढ़ा दिया है। कई दृश्य चौंकाते हैं। खासकर दीपिका पादुकोन का वो गाना जिसमें आप उन्हें बिना झिझक के राजेश खन्ना ,सुनील दत्त,जितेंद्र के साथ नाचने गाते देख सकते हैं। काफी अर्से बाद किसी फिल्म में लगा कि लाइटिंग कमाल की है। दास्तान गाने में आप ये महसूस कर सकते हैं। रंगमंच की तरह फिल्मों मे भी लाइटिंग का खास मतलब होता है। रेड़,ग्रीन और येलो लाइट के अपने मतलब होते हैं। फऱाह खान की कोरियोग्राफी से प्रभावित हुआ।
खल रही थी तो सिर्फ एक बात की कहानी वही घिसीपिटी या फूहड़ थी। 2007 में आप आडियंस को भूत और पुर्नजन्म की कहानी सुनाकर साबित क्या करना चाहती है? या फिर खालिस मनोरंजन और मार्केटिंग के नाम पर आप लोगों को बरगलाना चाहती हैं। बात सिर्फ इतनी सी है कि लोगों को सपने दिखाओ और अपने बड़े से पेट में पैसा गड़प कर जाओ। सिम्पल है यार। मार्केटिंग फंड़ा। फिर चाहे इसके लिए आपको मनोज कुमार का मज़ाक उड़ाना पड़े या तमाम इंडस्ट्री को एक ही गाने में नचाना पड़े।
दीपिका पादुकोण को दो किरदारों मे एक साथ उतारना गले की फांस बन सकता था। लेकिन बंदी में कान्फिड़ेंस है। निभा गई है। शाहरुख खान के साथ कई सालों से हम सपने देखते आए हैं। राजू बन गया जन्टिलमैन और चमत्कार में उसके साथ हम हंसने रोने के सिद्धस्त हो चुके थे। ओम शांत ओम में उसने जूनियर आर्टिस्ट बन कर मेरे आपके बड़ा होने के सपने को भुनाया है। मैं हूं ना मे भी कहानी नहीं थी और ओम शांति ओम में भी कहानी नही प्रजेंटेशन ज्यादा है। पैसा फेंक तमाशा देख। दृश्यों का फिल्मांकन अच्छा है। आग लगने पर शाहरुख का दीपिका को बचाने की कोशिश करना और ओके के रुप में अपनी मां से मिलने वाला सीन थोड़ी देर के लिए आंखें गीली कर सकता है। इसलिए रुमाल लेकर जाएं।
फिल्म में मेहमान कलाकार के रुप में आये अक्षय कुमार ने दिल जीत लिया है। फराह को अक्षय से सीखना चाहिए की मजाक खुद का भी बनाकर लोगों को हंसाया जा सकता है। गीत भी फिल्म की जरुरत के हिसाब से हैं। लेकिन अंत में रोमांच के बाद भी जब फिल्म देखकर बाहर आया तो सिर्फ यही जेहन में घुम रहा था कि बड़ा बनने के सिर्फ दो ही तरीके होते हैं या तो किसी बड़े आदमी के घर में पैदा होने की एप्लिकेशन दे दो या फिर दूसरों को नीचा दिखाकर खुद बड़े बन जाओ। अगर यही फिल्म है तो मैं कहूंगा....पिक्चर अभी बाकी है...........

मस्ती,मजा,मनोरंजन,मुनाफा,मार्केटिंग और निर्देशक की मनमानी यही है ओम शांति ओम। अंत में अपनी पूरी टीम को दर्शकों से परिचित करना अच्छा प्रयास था।.....


तुषार उप्रेती





एक औरत....

आदमी हूं मगर
एक औरत की दिल की दुनिया जानता हूं
जानता हूं...
एक औरत का दिल
एक समुद्र की तरह गहरा,
आसमान की तरह विशाल,
गुलाब की पांखुड़ी से भी कोमल
और मंदिरों की घंटियों,
मस्जिदों की अज़ानों से भी पवित्र होता है

मगर जब एक आदमी और एक औरत के बीच प्यार होता है
और वो आदमी उस औरत को जब दिल से अपने दिल में रखता है
तो ये सारी दुनिया उसके दिल में समा जाती है
ये ख़ूबसूरत कायनात उसकी हो जाती है
कितना खुशनसीब होता है
वो शख़्स जिसे सच्चा प्यार मिलता है




-पुनीत भारद्वाज

जब से तुम हो मिले.....


जब से तुम हो मिले
जब से तुम हो मिले
जब से तुम हो मिले......



जब से तुम हो मिले
चल पड़े सिलसिले
ज़ोर अब ना रहा मेरा जज़्बातों पर
आंसू बनकर निकल जाते हैं ये कभी
जब तेरी याद आती है ऐ महज़बीं*
जब से तुम हो मिले
जब से तुम हो मिले
जब से तुम हो मिले.......
* ख़ूबसूरत


जब से तुम हो मिले
दिल में है जलजले
खोया-खोया सा रहता हूं मैं.. मग़र
सीने में एक ग़ुमसुम सा एहसास है
क्या पता, क्या कहूं
कैसा एहसास है
बस इतना लगा है के कुछ ख़ास है
जब से तुम हो मिले
जब से तुम हो मिले
जब से तुम हो मिले ...


जब से तुम हो मिले
मिट गए सब गिले
ज़िंदगी मुझको अब रास आने लगी
प्यार की तिश्नगी* अब तो बुझने लगी
कुछ उदास सा मैं मुस्कुराने लगा
ख़्वाब मुझको कोई अब दिखाने लगा
ख़्वाब मुझको कोई अब दिखाने लगा
ख़्वाब मुझको कोई अब दिखाने लगा....
* प्यास


ख़्वाब मुझको कोई अब दिखाने
लगा




- पुनीत भारद्वाज

जब भी चूम लेता हूं..... KAIFI AZMI



Song- जब भी चूम लेता हूं...
Lyricist- क़ैफ़ी आज़मी
Singer- रूप कुमार राठौर

Music- रूप कुमार राठौर
Album- प्यार का जश्न




जब भी चूम लेता हूं इन हसीन आंखों को
सौ चराग अंधेरे में झिलमिलाने लगते हैं



फूल क्या शग़ूफ़े(कलियां) क्या, चांद क्या सितारें क्या
सब रक़ीब(दुश्मन) क़दमों पर सरझुकाने लगते हैं



फूल खिलने लगते हैं उजड़े-उजड़े ग़ुलशन में
प्यासी-प्यासी धरती पर अब्र(बादल) छाने लगते हैं


लम्हें भर को ये दुनिया ज़ुल्म छोड़ देती है
लम्हें भर को सब पत्थर मुस्कुराने लगते हैं