हैलो-हाय.....





वो लड़कियां बेहद खुशनसीब होती हैं। जिनके नाम से उनके गली-मोहल्ले गुलज़ार हुआ करते हैं। ऐसा मैं नहीं मेरे ही कुछ उम्रदराज दोस्त कहा
करते थे।



वो बाग जहां बचपन में हम क्रिकेट खेला करते थे, अब वहां यारों का मज़मा लगता था। बैठकें होती। शर्तें लगती। हर हफ्ते का यही रुटीन । हर हफ्ते हमारे मोहल्ले का नाम किसी नई लड़की के नाम पर रखा जाता। कल तक जिसे हम कन्नू मोहल्ला कहते थे वो सोमवार से पूनम मोहल्ला कहलाएगा। बैठकबाजों के उस्ताद सुमित भाई जब ये घोषणा करते तो बहुत शोर होता, सीटियां बजती और हुल्लड़बाजियां होती।
मैं हमेशा दूर से ही अपने इन दोस्तों को हाथ हिलाकर आगे बढ़ जाता। कई बार इशारे होते,आवाज़ें लगती,पर मैं हाय हेलौ से ज्यादा नहीं रुक पाता।
उस्ताद अपन से इस बात के लिए ख़फा रहते। उस्ताद....हां यही असली नाम था उनका। आठवीं तक पढ़े।फिर मन उक्ता गया। तो इधर-उधर घूम कर लोगों की लौंडियों को हांकने लगे। एक दिन बाप ने सरेआम कनपट्टी पर दे मारा,.तो सोया हुआ आत्मसम्मान जागा और रोज़ाना सुबह दस से शाम पांच तक चूड़ियों की दुकान पर लुगाइयों को चूड़ियां पहनाते। काम मुनासिब न सही,पर दिलचस्प था। इसलिए करते रहे। लेकिन शाम पांच बजे घर आकर उस्ताद अपनी उस्तादी न दिखाएं,ये कैसे हो सकता है?
बाग के टपरे(टिला)पर मजमा लगता। औऱ उस्ताद अलाने-फलाने की लड़की का किस्सा सुनाते।
..... ‘अजी उस दिन कनॉट प्लेस में बॉयफ्रेंड़ के साथ थी।’...
“मैंने बाज़ार में घुमते पकड़ लिया...तो बोली घर मत बताना”
और मेरे जैसे न सही पर मुझसे थोड़े ज्यादा बुरे हालात में रहने वाले सारे जवां लौंडे...जांघों पर हाथ मलते हुए हाय हाय करते। इस सबमें ये खासियत थी कि इनमें से कोई भी कॉलसेंटर में काम करके अपनी जिंदगी बर्बाद नहीं करना चाहता था। लेकिन दूसरी नौकरियां भी न जाने कौन सी गली में जा छुपी थीं जो ढूंढ़े नहीं मिलती थी। सबके सब अच्छे घरों के। न कोई ऐब, न कोई हरकतें। सिर्फ मजमे की लत थी। जिसने इन सबको सारे इलाके में बदनाम कर रखा था। कसूर इनका भी नहीं बेचारे नौकरी और छोकरी दोनों मामले में वर्जिन थे।
खैर किस्सों की ये श्रृंखला उस दिन टूटी,जिस दिन उस्ताद को सबने काले कुत्ते वाली पूनम से सीढ़ियों के पास बतियाते पाया। हुआ यूं कि जब टपरे पर इंतज़ार की हद हो गई तो सारे मुश्तंडे इलाके में झुंड में घुमने से लगे। तभी किसी ने बताया कि उस्ताद तो बेवफाई कर गये।
अपनी इस हरकत पर उस्ताद से भी कुछ कहते न बना। हंस-हंस के 'बस ऐसे ही'.... वाक्य का लच्छा बनाकर जरुर दोस्तों को निगलने को दिया। पर जवानी में गर सवालों के जवाब एक ही दिन में मिल जायें तो जिंदगी खत्म न हो जाये। अगले दिन टपरे पर बैठ कर उस्ताद ने खोपड़ी खुजाते हुए जब सार्वजनिक लहज़े में जैसे ही कहा....'हो गया'... तो यारों ने नाच-नाच कर ज़मीन की कुबड़ को भी समतल कर डाला।
सिर्फ इतना ही जान पाये कि एक दिन दुकान पर चूड़ियां खरीदने आईं। तब कच्ची कलाई पर उस्ताद का दिल ऐसा फिसला की , उसके कुल्हे की हड्डी टूटी यानि उठने का नो चांस। लड़की से पूछा तो पता चला वो भी दबी जुबां से हामी भर चुकी है। उस्ताद से वो आखिरी मुलाकात थी। मैं भी उस दिन मौजूद था। लड़की को पहले से जानता था। खासी मर्दखोर किस्म की है। उस्ताद से कहा नहीं,नहीं तो दिल के गुब्बारे में छर्रे लग जाते।
अब होना क्या था? उस्ताद का सारा ध्यान उस लड़की की ओर था। और इलाके के बाकी मुफ्तखोर आशिक अब उस्ताद के किस्से सुनाया करते। यानि अब कुछ ठीक वैसे ही हो रहा था,जैसा कि सदियों से होता आया है। सिर्फ़ एक लड़की ने बैठकबाज़ों की मंडली का सत्यानाश कर दिया। किसी शागिर्द पर नज़र डाली होती तो ठीक था, लेकिन उसने तो उस्ताद पर ही चाकू-छूरी, भाले-बरछे चला दिए।
कुछ दिनों बाद सुनने में आया कि दोनों प्रेमियों ने भागकर शादी करनी चाही...पर पकड़े गए। काफ़ी दिनों तक इलाके में हो-हल्ला होता रहा। फिर चुप्पी छा गई। हालात तब बद से बदतर हो गए जब चुप्पियां साज़िशों पर उतर आई। इलाके में उस्ताद और उनकी बिन बयाही बेग़म को गाली देना शग़ल सा बन गया। यारों ने भी कन्नी काटने में देर ना लगाई। जो पहले उस्ताद के क़िस्सों पे सीटियां बजाया करते थे..अब उस्ताद के क़िस्से से जी चुराया करते थे। अपनी हाय-हैलो जारी रही........

तुषार उप्रेती




1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

Hey Tushaar, it's superb yaar.
Good 2 learn the topic of boys meetings.
jst kidding,
the article provides an insight into d minds of youngsters, their topics of discussion, their career-related tensions, also the loop-holes in d mind-set of society
of course all this in a funny bone, which i think is a necessity 2day.
Besides being funny it throws light on many socially relevant issues.