इंक़लाब....




कुछ ऊंगलियां अब मुड़ना चाहती हैं
वो हथेलियों से जुड़ना चाहती हैं..
अत्याचार को देना चाहती हैं एक जवाब
नारा बुलंद करो इंक़लाब.....


ये किसने ढ़ाया इंसानियत पर कहर
ये कौन देना चाहता है हमें मीठा जह़र
चुखता करेंगें सारे हिसाब
नारा बुलंद करो इंक़लाब

खून अब उबल रहा है
रातों को करवटें बदल रहा है।।।
मुठ्टियां अब भीचीं हैं
आस्तीने ऊपर खींचीं हैं
कसकर देगें हम जवाब
नारा बुलंद करो इंक़लाब



हमारी आंखों का पानी अब सूख गया है
हमने सपना भी अपना झौंक दिया है।।
अब मैदान-ए-जंग होगी
खून में नई तरंग होगी..
मिलेगा सबको मौत का खिताब
नारा बुलंद करो इंक़लाब......






तुषार उप्रेती

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

Soooo motivating n inspiring.....
It's really awesome, sets the mood of youngsters n oldies alike 2 bring changes in society, n throw out all our prejudices & injustice.
KUDOS 2 the poet.
ALL THE BEST
gr8 job.