विस्थापन....


चाहे ,
पानी की लकीरों से खेलते
उकडूं से बैठ बच्चे हों

चाहे,
बांध के किनारे जुगाली के लिए
जमीन को तलाशती मवेशियों की आंखें।

दोनों ही इस बात से अनजान हैं,
कि सपना कहां बह गया

लेकिन इस गांव का हर वो आदमी जानता है,
जिसने जिंदा रहने की लड़ाई में खुद को गंवा दिया,
ये शायद कभी शहीद नहीं कहलाएंगें।

कभी,
यहां फसल लहलहाती थी,
बंटती थी मिठाइयां ,
जैसे कोई बाप बना हो....

अब,
विस्थापितों के लहूलूहान चेहरे
आप देख सकते हैं।

औरतों के गले यहां खराब हैं,
उनकी चीखें दिल्ली तक नहीं पहुंच सकी।
काका भी पिछले दिनों गुज़र गये
पानी पर तैरते राजनीति के आश्वासन का तिनका
भी उन्हें बचा न पाया।।....

धीरे धीरे समझ में आ रहा है
मानवीय विकास के मायने क्या होते हैं...

बावजूद इसके,
लोहे के दरवाज़ों के पीछे से
झांकता पानी कहना चाहता है-कुछ ।

कभी-कभी बुलबुला भी उठता है उसमें,
फिर तय नियति के अनुसार दम तोड़ देता है-वह
शायद वह जानता है ,
यहां से कभी कोई नायक पैदा नहीं हो सकता । ...


यह बात उन औरतों को देख समझ आती है,
जो अब खुलेआम बैठने में शर्म महसूस नहीं करती ,
कबूतर की तरह आंख मींच लेती हैं,
उन्होंने भी नियति मान लिया है स्थितियों को,

सामाजिक कार्यकर्ता अब
बौद्धिक जुगाली में मस्त हैं
मवेशियों के मीट की दुकान पर
झूलते पैर उनकी भूख मिटाते हैं....

इस बीच,
किनारे पर खड़ा होकर कोई सुन रहा है
अपनी जमीन की आवाज़ को,
हाथ में पत्थर लिये इंतज़ार में है,
उस दृश्य के जब पानी के बीचों-बीच
दागे गये पत्थर से निकली तरंगें
फैल जाएं हर दिशा की ओर........

(आप इस कविता को नवंबर अंक में वागर्थ पत्रिका में भी पढ़ सकते हैं। )
तुषार उप्रेती

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

so much of harsh reality, it is very heart-warming...........
keep on doing this great job.
might be the voice reaches the deaf ears through ur poem
ALL THE BEST..