FRUSTRATION..........




सिर पर सवार हुई फरस्ट्रेशन अब आंखें निकाल कर मुझे घूरने लगी थी। और मेरी इतनी हिम्मत नहीं हो पा रही थी कि उससे आंखें मिलाऊं। काफी दिनों से उसे पाल रहा था। पुचकार रहा था। वो रोज़ सोचती कि आज मेरे सब़्र का बांध टूटेगा और उसकी मौज होगी। लेकिन रोज़ रोज़ फरस्ट्रेशन की आंच पर दिमाग का चूल्हा गर्म होता। उस पर गालियां भी पकतीं। फिर न जाने किस डर से गैस खत्म हो जाती।

लेकिन कल शाम तक सब बर्दाश्त के बाहर हो गया। मन हुआ कि BOSS के कैबिन में घुसूं और दुनिया का सबसे छोटा रिज़ाइन मुंह पर दे मारुं Dear sir, मां... । फिर लगा who cares? यहां फर्क किसे पड़ता है। मेरे जैसे छत्तीसौ की लाईन जो लगी है। इसलिए अपनी शिफ़्ट पूरी करके मोटसाईकिल उठाई और सारी फरस्ट्रेशन को पेट्रोल के धुएं में उड़ाता हुआ निकल गया सड़कों पर। कभी-कभी लगता है कि मीडिया में नया होना गुनाह हो जाता है।

जब फरस्ट्रेशन का उबाल कम नहीं हुआ तो एक दोस्त को बुला लिया और गालियों के कंकड़ उछालने लगा। 'शर्म नहीं है इन लोगों को ...बेटी की उम्र की लड़की को भी नहीं छोड़ते।' ॥मैंने कहा 'छोड़ेगें कैसे यार... वो खिलाती हैं तो ये खायेंगे नहीं।'॥ दोस्त चाऊमीन निगलते हुआ बोला। पता नहीं हमें किस बात का फरस्ट्रेशन ज्यादा था। इस बात का कि बीस साल की लड़की पैंतालिस साल के आदमी के साथ सोती है या फिर इस बात का कि हमें इन लड़कियों के साथ सोने को नहीं मिलता।

जब कुछ समझ नहीं आया। तो श्रीराम सेंटर के बाहर चाय पीने आ गये। ये वो जगह हैं जहां से दिल्ली वाले सपने देखना शुरु करते हैं। कितनों की जिंदगी तो इन्हीं गलियारों पर चाय की चुस्कियों में गुजर गई।


दोस्त ने पूछा-तूने अपना सी.वी तैयार कर रखा है, ना? मैंने तुरंत कहा- हां,हां क्यों ?नहीं ऐसे ही। अख़बार में ऐड था कि जगह खाली है। वो बोला-'कल चलते हैं।' मैंनें कहा। नादान थे हम। भूल गये थे कि सिफारिश या so-called , contact,के न होने पर मायूस होना नियति है। पहले समझ नहीं आता था। लेकिन अब समझ आया कि फिल्मों में हीरो की नौकरी पक्की होने से पहले वो फोन क्यों बजता था। हमारे पास भी हीरो वाली वही फरस्ट्रेशन है। इस मामले में आजकल के हीरो मस्त हैं। बड़े-बाप के घर एप्लीकेशन देकर पैदा होते हैं। क्योंकि contact वो नु्क्ता है जिसके लगने से खुदा भी ख़ुदा हो जाता है। खैर इन सबकी परवाह किये बगैर पूर जोश से एक अख़बार के दफ़्तर की सीढ़ियां चढ़ गये। रिसेप्शन पर धरे जाने पर हमने बताया कि सी.वी देने आये हैं। नतीजतन सी.वी रिसेप्शनिस्ट को देने पड़े। उसने पहले से जमा सी.वी के कूड़े में हमारा सीवी भी पटक दिया। और कहा... 'हम call करेंगें '। हमने देखा सामने एक काला शीशा लगा हुआ था। अंदर अख़बार का दफ़्तर था। लोग वहां काले नज़र आ रहे थे। जिन सीढ़ियों पर कूद-कूद कर गये थे। वापसी पर उन पर अपना भार डालते हुए उतर रहे थे। साथ में थी तो बस वही फरस्ट्रेशन॥जो अब पंजे निकाल कर हमारी औऱ लपकने वाली थी....




-तुषार उप्रेती



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