मुआं कहीं का...


अजब सा मर्ज़ है.. ना दवा लगती है, ना दुआ....
ये दिल साला ख़ुदगर्ज़ है, ना जाने इसे क्या हुआ...

आवारा राहों पे निकल पड़ता है
खुद-ब-खुद ही चलता है
दिमाग से हरदम लड़ता है
बेबाक है, अल्हड़ है, बावला है मुआं....

ख्वाबों की खान है
असलियत से अंजान है
खुराफाती है, मगर इंसान है
जब जलता है तो छोड़ता है धुआं...

अजब सा मर्ज़ है.. ना दवा लगती है, ना दुआ....
ये दिल साला ख़ुदगर्ज़ है, ना जाने इसे क्या हुआ...

- पुनीत भारद्वाज

ख़ामोशी..


कहने को कुछ नहीं तो क्या ज़ेहन तो ज़िंदा है..
लब ख़ामोश हैं लेकिन धड़कनें ताबिंदा (रोशन) है..

अब तो सवाल भी पैदा नहीं होते सीने में,
कुछ जवाब हैं दिल में जो अब तक शर्मिंदा है...

- पुनीत भारद्वाज