श्याम बेनेगल: सिनेमा जगत के दादा

अंकुर, मंथन, भूमिका, निशांत जैसी बेहतरीन फिल्मों के
जरिए हिंदी सिनेमा में नई इबारत लिखने वाले श्याम बेनेगल को भारतीय फिल्मों का
सर्वोच्च सम्मान दादासाहब फाल्के पुरस्कार देने की घोषणा की गई है। बेनेगल को 2005
के लिए यह पुरस्कार दिया गया है। भले ही कुछ देर से ही सही लेकिन इस बार का ये
पुरस्कार श्याम बेनेगल को दिया जाना इस पुरस्कार की साख को
और बढ़ा देता है...

  • एक नजर बेनेगल के फिल्मी सफर पर...
    अगर कहें कि सिनेमा एक प्रतीकात्मक माध्यम है तो कहना पडेगा कि श्याम बेनेगल की फिल्में प्रतीकों में बात करती है। सन् 1973 में अंकुर फिल्म के जरिये उन्होंने सेल्युलायड की दुनिया में कदम रखा था। अंकुर का वो द्रश्य आज भी उतना ही दमदार लगता है जिसमें एक बच्चा जमींदार के अन्याय और अत्याचार के खिलाफ जमींदार के घर की खिड़की पर पत्थर दे मारता है।अंकुर का वो बच्चा दरअसल और कोई नहीं खुद श्याम बेनेगल का ही एक रुप है।और वो पत्थर बालीवुड की झूठी और फरेबी दुनिया के राजमहल की खिडकी पर मारा गया था।यह अहसास दिलाने के लिए कि रंगीन और चमकदार कांच के दायरे के इस ओर धूल,धूप और धुएँ से भरी एक दुनिया और भी है,जिसमें नायक नायिकाओं के लिए जीवन का मतलब जडों के इर्द-गिर्द नाचकर इज़हार -ए -मोहब्बत करना ही नहीं है।

    दरअसल श्याम बेनेगल की फिल्में अपने आप में एक आंदोलन की शुऱुआत हैं..जहां समाज के हर वर्ग का चेहरा हमें झांकता हुआ मिलता है...फिर चाहे बात मंडी की रुकमिनी बाई की हो ...
    जिसके कोठे में हर वक्त कोई न कोई हलचल मची रहती है..या फिर इंसानियत के बूते जिंदा रहने वाली मम्मो की..इतना ही नहीं बल्कि भूमिका में तो एक औरत की जिंदगी से जुडे कई पहलुओं पर श्याम बेनेगल ने बिना किसी झिझक के रोशनी डाली....वो भी तकनीक के हर छोटे बडे पहलुओं पर ध्यान देते हुए ..इसलिए उनकी हर फिल्म अपने आप में एक कलासिक का दर्जा पा गई है....

    शायद यही वजह है कि दादा साहेब फालके पुरस्कार पाने के बावजूद भी श्याम बेनेगल रुकने का नाम नही लेने वाले बल्कि भारत की एक नए सिरे से खोज करने के लिए वो बुद्द के जीवन पर एक फिल्म बनाने का विचार कर रहे हैं...दरअसल इन बीते चौंतीस सालों में श्याम बेनेगल की फिल्मों ने जिंदगी के हर लम्हे को छू डाला है.....
    -तुषार उप्रेती

ये आग लगने से पहले क्यों बुझी ?

धुआं उठा तो आग भी होगी,पर ये वक्त से पहले क्यों और कैसे बुझ गई थोड़ा खोपड़ी खुझाते हुए सोचें तो समझ आयेगा।
मुनाफा, मार्केटिंग और मनोरंजन(निश्चित तौर पर यहां हम एक खास तबके के मनोरंजन की बात कर रहे हैं) में हमेशा अव्वल रहने वाले रामू कैंप पर इस बार लोगों ने कैंची चला दी है। ‘शोले’ ‘आग’ पकड़े उससे पहले ही रामू के अरमानों पर किसी ने मानो पानी डाल दिया हो..पहले दिन ही रामगोपाल वर्मा की आग सिर्फ 50 प्रतिशत का बिज़नेस करते हुए हांफने लगी है। ये एक देसी बनारसी पहलवान की तरह चारों खाने चित्त हो गई है। जो लंगोट बांध कर तो अखाड़े में पूरे दम-खम से उतरता है लेकिन उसका लंगोट जल्द ही उतार लिया जाता है।
-तुषार उप्रेती

किसने चक-दिया इंडिया...




किसी ने ठीक कहा है कि आने वाले समय में स्किप्ट ही असली स्टार होगी ...यानि फिल्मों में चेहरे नहीं कहानी ज्यादा बिकेगी..शायद तब कहीं जाकर हम जैसे चवन्नी-छाप लेखकों का कुछ भला हो।इस बात को हम सुभाष घई के उस ऐलान से जोड़ कर देख सकते हैं ,जिसमें उन्होंने घोषणा कर डाली है कि वो एक उम्दा स्किप्ट लिखने वाले को एक करोड रुपये देंगे..।
अब बात करते हैं हाल-फिल्हाल में रिलीज हुई फिल्म चक-दे इंडिया की इसमें भी वो सब-कुछ है जो यशराज फिल्मों से आज से पहले एक्सेप्ट करना थोडा मुश्किल था। कहां हाथ में भारी भरकम थाल लिये चालिस हज़ार का लेहंगा पहने टेसुए बहाती वो औरतें जो कभी खुशी कभी गम के बड़े बड़े ढ़कोसले करती भारतीयता का ढ़ोग रचती थी...और कहां साधारण सी दिखने वाली वो महिलाएं जो हॉकी की एबीसीडी एक नये कोच के साथ ,नये तरीके से सीखने की जुगत में लगी पड़ी हैं।
साफ तौर पर कहें तो चक-दे इंडिया यशराज बैनर की फिल्म है ही नहीं ये पूरी तरह से शिमीत अमीन की फिल्म है..जो इससे पहले अब तक छप्पन जैसी यथार्थवादी फिल्म बनाकर साबित कर चुके हैं कि उनमें कहानी कहने का एक अदभुत और नया साहस कूट-कूट के भरा हुआ है.....

- तुषार उप्रेती

एक रिश्ता....

क्या अजब है ये सिलसिला...
ना देखा तुम्हे, ना तुमसे कभी मिला..
ना जाने इस रिश्ते को क्या नाम देते हैं..
यार मुझको सभी पागल कहते हैं..

सोचता हूं तेरे दामन को छोड़ दूं कभी..
इस बेनाम से रिश्ते को तोड़ दूं कभी..
जाने किस दुनिया में हम दो रहते हैं..
यार मुझको सभी पागल कहते हैं...
- पुनीत भारद्वाज

ज़िंदगी...

इक दरार सी पड़ गई है फ़लक़ में कहीं
और चांद भी ठहर गया है वहीं का वहीं
ज़िंदगी में अब दूर तलक़ रात ही रात होगी
ग़र होगी कोई बात

तो मद्धम पड़ चुके चांद की बात होगी.....


- पुनीत भारद्वाज

मेरा ख़्याल मेरे बारे में...

खुली क़िताब हूं पढ़ले कोई,
करले तर्ज़ुमा कैसा भी
जो समझ नहीं आया

तो कभी तो आउंगा,
और जो इक बार आ गया

तो ज़हनो-ओ-दिल पे छा जाऊंगा....


- पुनीत भारद्वाज