हाईवे....

खूबसूरती की शुरुआत तो अपने शहर से बाहर निकलते ही हाईवे पर हो जाती है। जो गाड़ी शहर में खांस खांस कर चलती है वो भी हाईवे पर अपनी जवानी जीना जानती है। हमने भी एक्सीलेटर पर पांव टिका दिया और एक शहर से भाग कर दूसरे शहर में मुंह छिपाने पहुंच गये। इस बार कैथल (हरियाणा),चंड़ीगढ़,होते हुए गाड़ी को सीधे ब्रेक लगा शिमला में। हां हरियाणा में मां के पांव छुए तो चंड़ीगढ़ की सड़कों पर खेलते हुए शिमला जा पहुंचे। लफंटर तो हम चारों हैं ही। ऊपर से थोड़े लडाकू भी। रास्ते भर छोटी छोटी बातों पर एक दूसरे की मां-बहन एक होती रही। कभी आगे की सीट से कैसेट उछल कर बैक सीट वाले यार की खोपड़ी का मुआयना करती हुई बच निकली। तो कभी कोई दोस्त बीच रास्ते में वापस लौट जाने पर अड़ गया। दोस्त हैं साले। दो सुट्टे ज्यादा लगवाए। दो दारु की घुंट लगवाई। बंदे मस्त हो गये। लेकिन ये सफर हमें काफी कुछ सीखा गया। सबसे पहला सबक जो हमने हाईवे पर सीखा वो ये था कि दोस्ती यारी में अल्फाज़ों से नहीं खेलना चाहिए। अल्फाज़ जो ज़ुबां से फिसल कर कई बार भीतर तक कुरेद जाते हैं। हमें भी अल्फाज़ों ने सारे रास्ते जख़्मी करे रखा। काफी मुश्किलों के बाद लबों से निकलकर भागे अल्फाज़ों को दारु के नशे में भीगोकर सूखने ड़ालना पड़ा। वापसी में याद रहा तो सिर्फ इतना ही की अल्फाज़ अब पीछा नहीं कर रहे हैं। हाईवे पर गिरकर किसी मर्दाना ट्रक के नीचे आकर अपनी जान गवां चुके हैं। शायद यही दोस्ती है।

पता नहीं कितना सही है पर नेरुदा याद आ रहे हैं----
नापती हैं बमुश्किल मेरी आंखें तुम्हारा
और अधिक विस्तार पाने को
और मैं झुकाता हूं अपने आप को
तुम्हारे होठों पर समूची पृथ्वी को चूमने।

ले आऊं एक जोड़ी सांस... पुरानी वाली

कभी कभी बनना पड़ता है
सख्त दिल...
इतना सख्त
कि घुटने के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं...
इतना सख्त…
कि सब पैबन्द, पैबस्त हो जाते हैं
अपने आप...
कभी कभी
जब अतीत के पंख लगे दिन
जंजीर बनकर गर्म गर्म
तपाते रहते हैं...
कभी कभी
कुछ समझदारियां
जिंदगी की सबसे बड़ी भूल लगने लगती हैं...
तब खूब घुटने का दिल करता है...
पर यार इस तमन्ना पर भी
बड़ा होने का अहसास
तमाचा मार जाता है...
वो नासमझियां क्यों पीछे छोड़ दी मैंने...?
क्यों हो गया हूं इतना बड़ा
कि सब छूट गया
बहुत पीछे...
कभी कभी
दिल करता है
कि झुककर उठा लूं सब जो बिखर गया है...
दिल करता है
कि चूम लू एक एक किरच
और फिर जोड़ लूं...
और ले आऊं एक जोड़ी सांस
पुरानी वाली...
पर सब रास्ते बंद कर लिये हैं मैंने...
इतने सख्त,
कि अब घुट भी नहीं पाता
सांस लेकर....

-देवेश वशिष्ठ ‘खबरी’

कभी यूं भी तो हो... JAVED AKHTAR

Song- कभी यूं भी तो हो..
Lyricist- जावेद अख़्तर
Singer- जगजीत सिंह
Music- जगजीत सिंह
Album- सिलसिले





दरिया का साहिल हो
पूरे चांद की रात हो
और तुम आओ


कभी यूं भी तो हो
कभी यूं भी तो हो....

परियों की महफ़िल हो
कोई तुम्हारी बात हो
और तुम आओ


कभी यूं भी तो हो....
कभी यूं भी तो हो....

कभी यूं भी तो हो

ये नरम मुलायम ठंडी हवाऐं
जब घर से तुम्हारे गुज़रें
तुम्हारी ख़ुशबू चुराएं
मेरे घर ले आएं


कभी यूं भी तो हो....
कभी यूं भी तो हो....


सूनी हर महफ़िल हो
कोई ना मेरे साथ हो
और तुम आओ
कभी यूं भी तो हो....



कभी यूं भी तो हो....
कभी यूं भी तो हो....


ये बादल ऐसा टूटके बरसे
मेरे दिल की तरह मिलने को
तुम्हारा दिल भी तरसे
तुम निकलो घर से


कभी यूं भी तो हो....
कभी यूं भी तो हो....


तन्हाई हो दिल हो
बूंदे हो बरसात हो
और तुम आओ
कभी यूं भी तो हो....

कभी यूं भी तो हो....


दरिया का साहिल हो
पूरे चांद की रात हो
और तुम आओ
कभी यूं भी तो हो

कभी यूं भी तो हो....

पानियों में चल रही है.... SAJJAD ALI


SONG- पानियों में चल रही है ..

SINGER- सज्जाद अली
PAKISTANI ALBUM

  • ये गाना सुनिए.....


    पानियों में चल रही है
    क़श्तियां भी जल रही हैं
    हम किनारे पर नहीं है
    हो.....



    ज़िंदगी की मेहरबानी
    है मोहब्बत की कहानी
    आंसूओं में पल रही है

    हो.....



    जो कभी मिलते नहीं है
    मिल भी जाते हैं कहीं
    पर ना मिले तो ग़म नहीं,
    हो.....



    दूर होते जा रहे हैं
    ये किनारे, वो किनारे
    ना हमारे, ना तुम्हारे
    हो.....



    पानियों में चल रही है
    क़श्तियां भी जल रही है
    हम किनारे पर नहीं है..
    हो.....




    ज़िंदगी की मेहरबानी
    है मोहब्बत की कहानी
    आंसूओं में पल रही है
    हो.....

बस यादें हैं....



यादों का क्या..
बस दबे पांव चली आती हैं


देखती नहीं है,
सोचती नहीं है कुछ भी
कम्बख़्त मुंह उठाए मुझपे बरस जाती हैं


यादों का क्या..
बस दबे पांव चली आती हैं


यादों पे है जोर किसका
अजब ताक़त है यादों में
अजब तिलिस्म है इनका
ऐसी ज़ालिम है कि
जितना भूलाओ उतनी याद आती हैं


यादों का क्या..
बस दबे पांव चली आती हैं


यादें आती हैं
तो अपने साथ कितने लम्हें, कितने किस्सें लाती है
कभी हंसाती है, कभी रूलाती है
तो कभी हद से ही ज़्यादा गुदगुदाती है
अपने इशारों पे नचाती है


यादों का क्या..
बस दबे पांव चली आती हैं


यादों का क्या..
बस दबे पांव चली आती हैं



जीना मुश्क़िल करती है
तो कभी जीना सीखाती है
यादों का क्या..
बस दबे पांव चली आती हैं......





-पुनीत भारद्वाज

यादों की पिटारी....


ऊंगलियों पर गिनता हूं झीनी-झीनी यादें
यादें उन खुमारी के पलों की,
यादें उन आने वाले कलों की,

जो रेशे रेशे अब बिखर गई हैं
जिन्हें हर वक्त मुझे समेटना पड़ता है।

जेब में रखकर घुंमता हूं ये यादें
कि कोई देख न ले,
नहीं तो शर्मा जाएँगी।

कई बार पिटारियों मे बंद करने की कोशिश की इन्हें
फिर भी न जाने कहां से लपक कर
मेरी गोद में आ दुबकती हैं।

मैं अपने हाथों से इनका पसीना पोंछता हूं,
हर वक्त इनके ही बारे में सोचता हूं।

मैं आगे दौडूं तो ये पीछे भागें
मैं सोऊं तो ये सारी रात जागे।

यादें,यादें बस यादें

अब कुछ नहीं मेरे पास
बचीं हैं तो सिर्फ यादें,

कई बार छुपने की कोशिश की इनसे
फिर भी मेरे पीछे झुंड़ में चली आती हैं यादें,
मेरे कहने पर ही मुस्कुराती हैं यादें,


काश इनके पंख होते तो भेजता तुम्हारे पास,
दिल में सूख गया है अब ये अहसास,

कभी-कभी लगता है दुश्मनी मोल लूं इन यादों से
कम से कम पीछा तो छोड़ेगी यादें,
लेकिन यादें हैं जो तुम्हारे पर गई हैं,
ये भी भीतर तक मुझे निचौडेंगीं।



-तुषार उप्रेती

चल चले अपने घर....SAYEED QADRI


Song- चल चले अपने घर..
Lyricist- सईद क़ादरी
Singer- जेम्स
Music- प्रतीम चक्रबर्ती

Film- वो लम्हें




चल चले अपने घर
ऐ मेरे हमसफ़र
बंद दरवाज़े कर
सबसे हो बेख़बर
प्यार दोनों करें
रातभर टूटकर
चल चले अपने घर
हमसफ़र
चल चले अपने घर
हमसफ़र.........




ना जहां भीड़ हो
ना जहां भर के लोग
ना शहर में बसे लाखों लोगों का शोर
चंद लम्हें तू इनसे मुझे दूर कर



चल चले अपने घर
हमसफ़र
चल चले अपने घर हमसफ़र.........




दूरियां दे मिटा
जो भी है दरमियां
आज कुछ ऐसे मिल
एक हो जाए जां
भर मुझे बांहों में
ले डूबा चाह में
प्यार कर तू बेपनाह
ख़त्म बेचैन रातों के हो सिलसिले
यूं लगा ले मुझे आज अपने गले
खोलो हर बंदिशें
आज मुझमें उतर
चल चले अपने घर
हमसफ़र
चल चले अपने घरहमसफ़र.........



चल चले अपने घर
हमसफ़र
चल चले अपने घर



हमसफ़र.........


जम कर पिक्चरें बनाएंगें..सुधीर मिश्रा
















सुधीर मिश्रा मुंबईया फिल्म इंडस्ट्री का वो नाम हैं जिसकी काबिलियत को
काफी देर पहचाना गया 'जाने भी दो यारो' से लेकर इस 'रात की सुबह नहीं' और 'धारावी' से लेकर 'हज़ारों ख्वाइशें ऐसी' , 'चमेली' , 'खोया खोया चांद' तक उन्होंने बहुत कम फिल्मों मे काफी कुछ कह दिया है। दिल्ली में पिछले दिनों एक फिल्म फेस्टिवल के दौरान उनसे गलती से मुलाकात हो गई और यकीन मानिए गलती से काफी कुछ सिखने को मिल गया।


मैं- आप यहां कैसे?
सुधीर मिश्रा- बस कुछ दोस्तों ने बुला लिया तो हम आ गये। वैसे भी जहां-जहां सिनेमा का जमघट होता है, वहां हम पहुंच ही जाते हैं।




मैं- किस तरह का सिनेमा पसंद है आपको?
सुधीर मिश्रा- देखिए सिनेमा, सिनेमा होता है। अच्छा बुरा नहीं। कई लोगों की मेहनत छुपी होती है ,उसके पीछे। वैसे ईरान वाले अच्छा काम कर रहे हैं।






मैं- यानी आप भी माजिद मजिदी और मौहसिन मखमलबाफ के फैन हैं।



सुधीर मिश्रा-देखिये मुझे लगता है कि लोगों को अब कुछ दूसरे फिल्मकारों की फिल्में भी देखनी चाहिए। जहां तक इन दोनों फिल्मकारों का सवाल है। मैंने इनकी ज्यादा फिल्में नहीं देखी हैं।






मैं- पिछले दिनों एक फिल्म देखी नाम था 'जाने भी दो यारो' उसमें एक नाम पढ़ा सुधीर मिश्रा।वहां से आज इस मकाम पर पहुंच कर खुद में कितने बदलाव महसूस करते हैं?( जाने भी दो यारो का स्क्रीन प्ले सुधीर मिश्रा ने लिखा है)
सुधीर मिश्रा- बदल तो मैं गया हूं। पिछले बीस सालों से भी ज्यादा समय से इंडस्ट्री में हूं। बीच में 80 और 90 के दशक में कुछ खराब किस्म के लोगों का कब्ज़ा हो गया इस इंडस्ट्री पर। अब हालात थोड़े ठीक हैं। नए लोग काफी आ रहे हैं। हम भी हैं। खुदा ने चाहा तो आने वाले दस-बीस सालों तक जम कर पिक्चरें बनाएंगें।



मैं- आपकी नई फिल्म आने वाली है,'खोया खोया चांद' उसके बारे में कुछ बताएं?
सुधीर मिश्रा- खोया खोया चांद मे कहानी है इस फिल्म इंडस्ट्री की। फिल्म बनकर तैयार है। इसलिए ज्यादा तो नहीं बताऊंगा। लेकिन इतना जरुर कहूंगा कि एक खास समय को कैमरे से फिल्माना आसान काम नहीं है।






मैं- ट्रैफिक सिग्नल में आप मुंबईया भाई के किरदार में दिखाई दिये थे। अब कब हम आपको स्क्रीन पर देखेंगे?

सुधीर मिश्रा- मधुर तो अपना दोस्त है। उसने कहा इस किरदार को करो तो मैंने कर लिया। वैसे मैं इससे पहले हज़ारों ख्वाइशें ऐसी में कुछ पल के लिए नजर आया था। गौर से देखिएगा, शायद खोया खोया चांद में भी नज़र आ जाऊं। जब कोई जूनियर कलाकार नहीं आता तब डॉयरेक्टर होने के नाते उस किरदार को जीना पड़ता है।



तुषार उप्रेती




रावण जलते रहेंगे....


इस बार भी रावण जल गया । लोग राम का नाम लेकर अपने अपने घर चले गये। अगले साल दशहरा फिर आएगा । भीड़ फिर इक्ट्ठा होगी। रावण के जलने का तमाशा देखेगी। फिर घर लौट जाएगी। कभी- कभी सोचता हूं ,भीड़ को हर साल एक रावण चाहिए । जिसे जलाकर कुछ पल सुकून मिलता है। फिर सब तमाशबीन अपने अपने घर लौट जाते हैं। अगले साल दर्जनों रावण फिर से पैदा कर उन्हें फिर से जलाकर , सब अपनी अपनी छाती पिटेगें। यही होता आया है। रावण हैं जो कमबख्त खत्म नहीं होते और भीड़ है जिसका हौंसला भी कम नहीं होता।

मां.....

इस कविता से पहले बालकवि बैरागी की पंक्तिया

"ईश्वर, अल्हा, राम लिखा
गुरु नानक सतनाम लिखा
जब एक शब्द में होड़ लगी दुनिया लिखने की
तो मैंने मां का नाम लिखा "





वो आई झूमके,
मुझे चूमके,

फिर आई उसके चेहरे पर एक संतोष की रेखा
मुझमें भी वो सुकून आया जब मैंने उसे गहनता से देखा
उसका अंङ इतना मखमली
मानिंदे सुर्ख़ाब के पंख
आलिंगन के व्यवहार की तपिश से मुझमें होता संचार
मोक्ष व हर ख़ास से था ये अप्रतिम एहसास

उसके ह्रदय का स्पंदन सुनकर
मैं खो गया ये धुन बुनकर
कि कहां सुना है ये मिश्री जैसा साज़
जो था बेअवाज़ पर खोल रहा था सैंकड़ों राज़

तब मैं खो गया काल की गहराईयों में
उस वक़्त की खाइयों में
जब मैं प्रस्फुटित हो रहे कमल की भांति
मां के गर्भ में पल्लवित हो रहा था
उस शुचितता को तजकर
भौतिकता में आने की बांट जोह रहा था

तब यही साज़
जिसे सुनकर अकुलाहट थी मुझमे आज

यही था..
हां, यही था वह नाद
जिससे मैंने नौ महीने किया था संवाद

जिससे मैंने नौ महीने किया था संवाद......




- पुनीत भारद्वाज

मैं न बोलूंगी...


विद्या बालन इंडस्ट्री का एक जाना माना नाम हैं। पिछले दिनों दिल्ली में एक ज्वैलरी लांच के मौके पर उनसे मुलाकात हो गई। फिर क्या था पत्रकार अपना काम कर गया। अपने सवालों से उन्हें घेरने की पूरी कोशिश की।



मैं- विद्या सबसे पहले ये बताएं कि आपको खुद कितना ज्वैलरी से प्यार है?
विद्या- देखिए मुझे ज्वैलरी ज्यादा पसंद नहीं। मैं ज्वैलरी का इस्तेमाल सिर्फ उतना ही पसंद करती हूं जितने में ये आपके व्यक्तित्व को निखारे। इसलिए मैं खुद भी कान में टॉप्स और हाथों में चुड़ियां पहनना ही बेहतर समझती हूं। ज्यादा एक्सपेरिमेंट मुझको पसंद नही।


मैं- आपकी फिल्म भूल-भूलैया का डब्बा गोल हो गया आपको क्या लगता है कहां कमी रह गई?
विद्या- आपको ये किसने कह दिया। इस फिल्म को काफी अच्छे रिस्पॉंन्स मिल रहे हैं। मेरे कैरेक्टर को भी काफी सराहा जा रहा है। फिल्म तो हाऊस फुल जा रही है।

मैं- आपकी फिल्म एकलव्य को ऑस्कर में भेजने को लेकर एक विवाद घिर आया है? इस पर आपकी प्रतिक्रिया।
विद्या- देखिए मैं इस पर कुछ भी कहना नहीं चाहती। फिलहाल मामला कोर्ट में है।

( इसके बाद विद्या की पी.आर को ये लगने लगा कि इस लौंडे को अगर छूट दे दी तो ये सारे सवाल ऑस्कर विवाद से रिलेटिड पूछेगा। ऐसे में उनका ज्वैलरी लॉन्च दब जाएगा। इसलिए उसने मुझे रोकने की कोशिश की। मैं भी जाते –जाते एक सवाल और पूछता आया। शायद वहां कोलगेट छाप स्माइल करने वाले पत्रकारों कि जरुरत थी। )

तुषार उप्रेती

बढ़ती ज़िम्मेदारियां, बढ़ते कंधे..

ये वो युवा टीम है जिसने पहला ट्वेंटी-20 वर्ल्ड कप जीता और वो भी तब जब तीन बड़े दिग्गज टीम से बाहर थे। अब आने वाला समय इन्हीं युवा खिलाड़ियों का है जिन्हें विरोधी खिलाड़ियों की फ़ब्तियां सुनने की आदत नहीं । ये वो युवा चेहरे हैं जो दुश्मन की आंखों में आंखें डालकर खुलकर कर रहे हैं हम किसी से कम नहीं।

वक्त के साथ दौर बदलता है और दौर बदलने के साथ लोगों के देखने का नज़रिया भी .... बदलाव की इस दौड़ में आम जनता अपने पुराने हीरो को भूलाकर नए स्टार तलाशने लगती है। बदलाव की कुछ ऐसी आंधी आजकल भारतीय क्रिकेट पर भी हावी है। वक्त के साथ टीम इंडिया में ज़िम्मेदारियां भी बढ़ रही और इन ज़िम्मेदारियों को संभालने वाले कंधे भी। आखिर कब तक टीम इंडिया बिग थ्री यानी सचिन, सौरव और राहुल द्रविड़ के भरोसे रह पाती। एक दिन तो ऐसा आना ही था जब इन तीनों की जगह कुछ नए और काबिल चेहरों को भरनी थी। सचिन, सौरव और राहुल की गैर-मौजूदगी में एक नए कप्तान और नई टीम के साथ टीम इंडिया पहले ट्वेंटी-20 वर्ल्ड कप में खेलने उतरी। किसने सोचा था कि ये नौसिखिया टीम वर्ल्ड चैंपियन बनकर वापिस लौटेगी। आखिर उसी नौसिखिया टीम ने अपनी युवा शक्ति के बूते चैंपियनों को धूल चटाकर सबको हैरानी में डाला दिया। ट्वेंटी-20 वर्ल्ड कप की जीत के बाद ये बात और खुलकर सामने आ रही है कि टीम इंडिया अब वाकई युवाओं के भरोसे है। रोबिन उथप्पा के बयान से तो ये बात और भी पुख्ता हो गई है। मुंबई में ऑस्ट्रेलिया के साथ होने वाले ट्वेंटी-20 मुकाबले से पहले प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक पत्रकार ने उथप्पा से पूछा कि क्या ट्वेंटी-20 में बिग थ्री की ग़ैर-मौजूदगी खलेगी ? तो उथप्पा का साफ कहना था कि हमने सचिन, सौरव और राहुल के बिना ही ट्वेंटी-20 वर्ल्ड कप जीते था। उथप्पा की तरह इस सच को मानने वालों की कमी नहीं है कि अब टीम इंडिया को अगर जीतना है सचिन का बल्ला चलना ज़रूरी नहीं। जी हां, अब वो दिन लद गए हैं। अब टीम इंडिया के पास धोनी, युवराज,हरभजन ,उथप्पा, रोहित शर्मा, इरफ़ान, आर पी सिंह, श्रीसंत, गंभीर जैसे वो नाम हैं जिनमें जोश भी है और वक्त पड़ने पर टीम को संकट से निकालने की काबलियत भी। ये वो खिलाड़ी हैं जो विरोधी टीम के दबाव में आने की बजाए उन्हें ईंट का जवाब पत्थर से देना जानते हैं। टीम इंडिया के पास अब वो युवा ब्रिगेड है जो अपने विपक्षी खिलाड़ियों की आंखों में आंखें डालकर कह रही है.. हम है यंग इंडिया।

-पुनीत भारद्वाज

सौ का नोट..

एक दिन मैंने राह में पत्रकारों का हुजूम पाया
भईया क्या चक्कर है !
जानने की उत्तेजना ने मुझे बड़ा सताया

जब मैं भी जा मिला भीड़ में
तो काफी देर बाद मेरी समझ आया
कि एक ग़रीब, अधजला, अधमरा,
नंगा बच्चा
जिसके हाथ में सौ का नोट देखकर
खा गए थे सब गच्चा

मौजूद पत्रकारों ने तब अपनी
News-Sense लगाई
आपसी मशविरा किया
और निष्कर्ष निकालकर
बोले सुनो भाई !

सुनो भाई !
ये तो एक Investigative Report है
हो ना हो यहां तो ज़रूर कोई खोट है..

क्योंकि
एक ग़रीब बच्चे के हाथ में सौ का नोट है..
तब उन्होंने मिलकर मारा
उस निहत्थे पर
तरह-तरह के सवालों का चांटा

एक पत्रकार माइक आगे करके बोला:
क्यों बे कहां से आया है ये नोट, ज़रूर किसी की जेब को काटा

तभी भीड़ में से आवाज़ आई:
अबे कैसे खड़ा है चुपचाप,जैसे सूंघ गया हो कोई सांप...
तब एक एजेंसी के पत्रकार ने दूसरे पत्रकार से ये कहकर
कि ये तो एक सनसनीख़ेज़ ख़बर है भाई,
कलम चलाकर, मिर्च-मसाला लगाकर
उसने एक मसालेदार ख़बर बनाई
और अगले दिन वो ख़बर Value-Addition के साथ
अख़बारों में मुख पृष्ठ पर छाई
शोध व संदर्भ सहित था कि
पिछली बार कब, कहां और किस ग़रीब के हाथ में
सौ का नोट होने का मामला सामने आया
और बोल्ड अक्षरों में छपा था कि
देश के वित्त-मंत्री ने इस घटना पर क्या फ़रमाया
अपने Version में मंत्री जी ने इस मौके को ख़ूब भूनाया
और सीधे अपने वोट-बैंक पर निशाना लगाया


वो बोले :

हमारी सरकार में आम जनता को
रोटी, कपड़ा , मक़ान सहित
नोट भी मयस्सर है,
ये जीवंत उदाहरण है कि
भारत विकसित राष्ट्र बनने
को अग्रसर है

लेकिन मंत्री सहित सार पत्रकार
इस घटना से थे बेख़बर
कि सैंकड़ों झुग्गियों को कहीं
आग ने जलाया
वो गफ़लत में थे कि
इस प्रचंड आग ने
कितने परिवारों को
बेघर-बेसहारा बनाया

ये ग़रीब,
अधजला, अधमरा
नंगा बच्चा भी था उसी आग का शिकार
जिस आग ने उसके मां-बाप सहित
पूरे झोंपड़े को जलाकर
कर दिया था उसे बेज़ार

अरे बचे तो केवल दो:

एक वो बच्चा जिसमें ढूंढ रहे थे सब खोट
और उस बच्चे के हाथ में वो सौ का नोट


वो सौ का नोट....



-पुनीत भारद्वाज

चरखड़ी.....


मैं हमेशा से पतंगबाज़ बनना चाहता था,लेकिन हर बार मेरे हाथ में चरखड़ी पकड़ा दी जाती। हर बार मन होता कि कहूं कि मुझे मौका दिया जाये।फिर मैं भी बता दूंगा इस दुनिया को कि पेच लड़ाना किसे कहते हैं। मौका तो दूर की बात है पतंग के कट जाने पर मुझे सद्दी लपेटने तक का मौका नहीं मिला। शायद इसलिए कि यहां छत पर पतंगें कम नैनों के पेच ज्यादा लड़ाए जाते हैं। मेरे पास आंखें तो हैं, पर पेच लड़ाने लायक नहीं। इसलिए रेस में मैं पीछे छूटता जा रहा हूं।
जब लोग अपना मांजा घिस रहे होते हैं तो मैं चरखड़ी पकड़ कर उनकी हौंसला अफजाई करता हूं। इस ड़र से की किसी दिन कोई सिरफिरा तंग आकर मुझे ड़ोर थामने को कहेगा। फिर मैं दिखाऊंगा इस दुनिया को कि पेच लड़ाए बिना भी आकाश की गहराई को नापा जा सकता है। उन सारी कहावतों को झुटला दूंगा जो sky is the limit के दावे करती हैं। लेकिन फिर मुझे याद आता है कि मैं तो चरखड़ी पकड़े खड़ा हूं। कभी कभी लगता है कि जैसे पतंगबाज़ के हाथ से मांजा फिसल जाता है । उसी तरह मेरे हाथ से उम्र फिसलती जा रही है और सद्दी है कि कमबख्त खत्म होने का नाम नहीं ले रही। फिलहाल इज़ाजत दीजिए। मुझे जाना है। पतंगबाज़ का आदेश है। फिर से चरखड़ी पकड़नी है। ढ़ील देनी है।


तुषार उप्रेती



जानलेवा शहर..


चांद ऐसे चल रहा है
कपड़ों की तरह बादल बदल रहा है

रात ऐसे मचल रही है
मानो जुगनूओं से लड़ रही है

और
धुंए की कालिख़ हावी है तारों की टिमटिमाहट पर
इसलिए केवल चांद ही नज़र आता है इस शहर की छत से

इक दिन ये शहर मेरा चांद भी हड़प लेगा....

-पुनीत भारद्वाज

क्लासरुम .....




क्लास के अंदर भी एक दहशत थी,
क्लास के बाहर भी एक दहशत है,

कुछ खोपड़ियां फिर भी हां के इशारे में
ज़ोर ज़ोर से हिल रही थी,

शायद दहशत इसी वजह से थी,

ना कहने वाले को उस दिन सरेआम प्रताड़ित
किया गया था



लेकिन सब भूल गये थे कि
पूर्णतः सहमत आदमी बड़ा ङी खतरनाक होता
है।


- तुषार उप्रेती

तारें ज़मीन पर...

लाखों तारें हैं आसमान में
धरती की ओर देखते रहते हैं रात-भर..

टिमटिमाते हैं तो यूं लगता है
ज़मीं से बातचीत कर रहे हों..

उन्हें मालूम है जिस चीज़
में खो जाना है एक दिन

उससे जान-पहचान तो बनानी ही होगी..

मैंने भी तारों से ये नसीहत ले ली..

इसलिए कभी-कभी वक्त निकालकर
आसमान से दो घड़ी गुफ़्तगू कर लेता हूं

आख़िर धुंआ बनकर आसमां में ही खो जाना होगा एक दिन
नए रिश्ते बनाने से पहले जान-पहचान करना ज़रूरी है..


-पुनीत भारद्वाज

बनना ही पड़ेगा सरपंच...



कई बार प्यादे से शतरंज जीत लिया जाता है... प्यादा आठ खाने फलांगता है और सरपंच बन जाता है... केवल प्यादा ही सरपंच बन सकता है... घोड़ा, वज़ीर, ऊंट, हाथी... ताकतवर सरपंच नहीं बन पाता... वो जो होता है वही रहता है... प्यादा धीरे धीरे दौड़ता है... कदम कदम चलता है.... और इसीलिए सबसे ज्यादा ख़तरा उसी को रहता है... जिसे देखो बेचारे गरीब को मारने की जुगत भिड़ाता है... उसके मरने का ज्यादा ग़म तो मालिक को भी नहीं होता... बाकी को बचाने को प्यादा शहीद कर दिया जाता है... तेज़ का जमाना है... टूट पड़ने का ज़माना है... घोड़ा बचाना है, प्यादा तो अड़ाना ही पड़ता है... ऊंट बचाना ज़रूरी है, और प्यादे का काम ही है... घर के हाथी के लिये शहादत देना... वैसे उसकी शहादत का ज्यादा मोल नहीं होता... प्यादे की ओर ज्यादा ध्यान देने की ज़रूरत नहीं होती... वो सरकता रहता है... आठ घरों तक... बस आठ घरों तक... फिर प्यादा शेर हो जाता है... वज़ीर बन जाता है... प्यादे को सब मारते हैं वो किसी को सीधे नहीं मार सकता... इसलिए तिरछा मारता है... प्यादा मज़बूर है... आठवें घर तक पहुंचना है... फिर प्यादा बड़े काम का हो जाता है... प्यादे का अहोदा बढ जाता है...वो राजा को बचाने लगता है... अकेले दम पर खेल जीत लेता है... प्यादा हमेशा फ़ायदेमंद होता है... प्यादा होता है तो वज़ीरों को बचाता है... वज़ीर बन गया तो राजा को... प्यादा सस्ता होता है... उसके लिये ज्यादा नहीं खर्चना पड़ता... उसे जाने पर शोर नहीं मचता... उसे चिल्ला चिल्ला कर अपनी कीमत बताने का अधिकार नहीं होता... प्यादे को घिसना पड़ता है... उसे आठ खाने लांघने होते हैं... प्यादे को अपनी कीमत बतानी नहीं दिखानी होती है... वज़ीर बनके... सरपंच बनके... शतरंज की बिसात बिछी है... लगता है अब बनना ही पड़ेगा सरपंच...।

यादों के झरोखे से...


संगीत की दुनिया में किशोर दा एक ऐसे नाम हैं...जिनके बारे में कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने वक्त को आवाज़ दी। आभास कुमार गांगुली यानी किशोर कुमार के गले की दुनिया आज भी कायल है...आज यानि 13 अक्टूबर 1987 के दिन इस फनकार ने दुनिया से विदाई ली थी...


नटखट चुलबुले और बदमाश कुछ ऐसे ही थे अपने किशोर दा। जिन्होंने कभी अपनी एक्टिंग से मुंबईया फिल्म इंडस्ट्री में अपनी धाक जमाई तो कभी अपनी आवाज़ के जादू से सबको अपना दिवाना बना लिया।
सही मायनों में अगर कहें तो किशोर कुमार की आवाज़ ने हर दशक में किसी मासूम से चेहरे को राजेश खन्ना बना दियाउन्हें चिंगारियों से अपने लिये आग जलाना सिखाया। तो दूसरी तरफ नौजवानों को बताया कि प्यार दिवाना होता है,मस्ताना होता है।वहीं किसी नौजवान को उन्होनें समाज की ऊंच-नीच भरी रस्मों को न मानने के लिये मनाया। दरअसल किशोर कुमार की खासियत ही ये थी कि उनकी आवाज़ में हर मौसम को बयां करने की ताकत थी। फिर चाहे वो प्यार की खामोशी हो, या फिर हसीनों के दिवानेपन में झूमता जमाना।
आज भले ही वो हमारे बीच न हों पर उन जैसे मुकद्दर के सिकंदर की वो आवाज़ आज भी कानों में गूंजती सी है।

तुषार उप्रेती

अपने-अपने हिस्से का आसमान..saregamapa




कुछ वक्त पहले तक न जाने ये शख्स देश के किस कोने में रहता था लेकिन अब इसे सारा देश जानता है।मशहूर रियेलिटी टीवी शो सारेगामापा में पश्चिम बंगाल के औनीक धर की प्रतिभा ने उन्हें 2007 का विजेता बनवा दिया। इतना ही नहीं बल्कि इस टैलेंट हंट शो में उनके साथ मुकाबला करने वाले कई प्रतियोगियों ने भी अपने अपने हिस्से की शोहरत कमा ली है।
कुछ नाम जो कुछ समय पहले तक गुमनामी के अंधेरे में जी रहे थे। महज़ एक मंच पर आने के बाद रातों रात लोगों की जुबां पर आ गये । यानि अगर कहें कि प्रतिभा को सही वक्त पर मौका दिया जाए तो हर कोई अपने हिस्से का आसमान खोज लेता है। लेकिन प्रतियोगिता में भावनाएं अपनी जगह हैं और फैसले के अपने मायने। इसलिए सारेगामापा में हर कोई अपने हिस्से की शोहरत कमाता गया और अपनी अपनी प्रतिभा का परचम लहराता गया। हांलाकि रेस में एक का जीतना और दूसरे का हारना तय होता है फिर भी ऑनिक धर ने तकरीबन 3करोड़ 65 लाख वोट के साथ जीत का सेहरा अपने सिर बांध लिया। इसके साथ ही उन्हें 50 लाख का यूनिवर्सल का कांट्रेक्ट और शेर्वले कार दिया जाना उनके आगे के सफर को थोड़ा आसान जरुर बना देगा। दूसरी ओर हैं वो लोग जो कॉम्पिटिशन की रेस में भले ही पीछे छूट गये हों पर जिंदगी की रेस में अभी उनके पास कई मौके बचे हैं। क्योंकि वैसे भी किसी ने ठीक कहा है कि जिंदगी का असली मज़ा उसके सफर में है मंजिल की खामोशी में नहीं। कुछ नाम जो कुछ समय पहले तक गुमनामी के अंधेरे में जी रहे थे। महज़ एक मंच पर आने के बाद रातों रात लोगों की जुबां पर आ गये । यानि अगर कहें कि प्रतिभा को सही वक्त पर मौका दिया जाए तो हर कोई अपने हिस्से का आसमान खोज लेता है। लेकिन प्रतियोगिता में भावनाएं अपनी जगह हैं और फैसले के अपने मायने। इसलिए सारेगामापा में हर कोई अपने हिस्से की शोहरत कमाता गया और अपनी अपनी प्रतिभा का परचम लहराता गया। हांलाकि रेस में एक का जीतना और दूसरे का हारना तय होता है फिर भी ऑनिक धर ने तकरीबन 3करोड़ 65 लाख वोट के साथ जीत का सेहरा अपने सिर बांध लिया। इसके साथ ही उन्हें 50 लाख का यूनिवर्सल का कांट्रेक्ट और शेर्वले कार दिया जाना उनके आगे के सफर को थोड़ा आसान जरुर बना देगा। दूसरी ओर हैं वो लोग जो कॉम्पिटिशन की रेस में भले ही पीछे छूट गये हों पर जिंदगी की रेस में अभी उनके पास कई मौके बचे हैं। क्योंकि वैसे भी किसी ने ठीक कहा है कि जिंदगी का असली मज़ा उसके सफर में है मंजिल की खामोशी में नहीं।
तुषार उप्रेती

आज सुबह....


कुछ मटमैले से ख्वाब
आज सुबह लम्हों से टकरा गये
ठीक उसी पल तुम याद आ गये ,
ख्वाब जो कभी गंगा नहाया करते थे,
ख्वाब जो कभी तुम्हारे नाम की डुबकी लगाया करते थे।


आज सुबह , हां आज सुबह
लम्हों ने राहों मे रोक लिया उन्हें
घर की दहलीज़ लांघने पर मां ने टोक दिया उन्हें,


वो आज भी लड़ते हैं मुझसे
तुम्हारा नाम ले लेकर आ जुड़ते हैं मुझसे,
मैं फिर भी अनसुनी करता हूं उनकी पुकार
फिर भी तहे-दिल- से हूं उनका शुक्रगुज़ार


लेकिन आज , सुबह हां आज सुबह

पगड़ड़ियों पर खेलते हुए लम्हों ने देख लिया उन्हें ,
तब से सारे शहर में शोर मचा है
शहर की इस भीड़ में खुश रहकर भला कौन बचा है।

लेकिन आज सुबह, हां आज सुबह
मेरे कमरे में फटी कमीज़ लिये एक ख्वाब खड़ा था,
बेशक ये इस शहर से लड़ मरा था।

तब से शहर में कर्फू लगा है
शहर सोया है
खवाब जगा है


-तुषार उप्रेती

कुछ ख्व़ाब...


कुछ ख्वाब जो कल रात तुम्हारे
सिरहाने बैठ कर तुम्हें चूम रहे थे
आज सुबह से लापता हैं।
कोई कहता है उन्हें तुम्हारे हुस्न के
जादू ने डस लिया है।


कोई कहता है उन्हें तुम्हारी

बाहों ने कस लिया है।
कब खोलोगी तुम ये बाहें
ताकि सासें ले सकें ये ख्वाब,


ठीक वैसे ही जैसे तुम्हारे बालों के

तुम्हारे जिस्म को चूमने पर

सांस लेता है सारा ज़माना,
हर किसी के दिल में

तुम्हारे लिये बसा है एक अफ़साना


फिर भी हर कोई ख्वाब देखता है

तुम्हारी मुस्कुराहट का,
और

ख्वाब हैं जो कमबख्त

तुम्हारे इशारों पर मुस्कुरा रहे हैं।
-तुषार उप्रेती

बोल ना हल्के-हल्के... GULZAR

Song- बोल ना हल्के-हल्के..
Lyricist- गुलज़ार
Singer- राहत फ़तेह अली ख़ान, महालक्ष्मी अय्यर
Music- शंकर-एहसान-लॉय

Film- झूम बराबर झूम

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धागे तोड़ लाओ चांदनी से नूर के
घूंघट ही बनालो रोशनी से नूर के
शरमा गई तो आगोश में लो
हो सांसों से उलझी रहे मेरी सांसे

बोल ना हल्के-हल्के
बोल ना हल्के-हल्के
होंठ से हल्के-हल्के
बोल ना हल्के.....

आ नींद का सौदा करें
इक ख़्वाब दें इक ख़्वाब लें
इक ख्वाब तो आंखों में है
इक चांद के तकिए तले
कितने दिनों से ये आसमां भी
सोया नहीं है
इसको सुला दें...

बोल ना हल्के-हल्के
होंठ से हल्के-हल्के...

उम्रें लगीं कहते हुए
दो लफ़्ज़ थे इक बात थी
वो इक दिन सौ साल का
सौ साल की वो रात थी
कैसा लगे जो चुपचाप दोनों
हो..पल-पल में पूरी सदियां बीता दें

बोल ना हल्के-हल्के
होंठ से हल्के-हल्के...

धागे तोड़ लाओ चांदनी से नूर के
घूंघट ही बनालो रोशनी से नूर के
शरमा गई तो आगोश में लो
हो सांसों से उलझी रहे मेरी सांसे

बोल ना हल्के-हल्के
बोल ना हल्के-हल्के
होंठ से हल्के-हल्के
बोल ना हल्के.....


चक दे इंडिया... JAIDEEP SAHNI

Song- चक दे इंडिया..
Lyricist- जयदीप साहनी
Singer- सुखविंदर सिंह, सलीम मर्चेंट,
मैरिएन-डी क्रूज़
Music- सलीम-सुलेमान
Film- चक दे इंडिया
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कुछ करिए
कुछ करिए
नस-नस मेरी ख़ौले..
होए कुछ करिए



कुछ करिए
कुछ करिए
बस-बस बड़ा बोले..
अब कुछ करिए



हो.. कोई तो चल ज़िद फ़ड़िए
डबे, करिए या मरिए
हे.. कोई तो चल ज़िद फ़ड़िए
डूबे, करिए या मरिए



चक दे..
हो चक दे इंडिया
चक दे..
हो चक दे इंडिया

nowhere to run nowhere to hide

this is the time to do it now

गूंजों में गलियों में
रातों में फलियों में
महलों में बीजों में
ईदों में तीजों में
रेतों के दानों में
फ़िल्मों के गानों में
सड़कों के गड्डों में
बातों के अड्डों में



हुंकारा आज भर लें
दस-बारह बार कर लें
रहना ना यार पीछे
कितना भी कोई खींचे
टस है ना
मस है जी
ज़िद है तो
ज़िद है जी
पिसना यूं ही
पिसना यूं ही
बस करिए...



कोई तो चल ज़िद फ़ड़िए
डूबे, करिए या मरिए
हे.. कोई तो चल ज़िद फ़ड़िए
डूबे, करिए या मरिए



चक दे..
हो चक दे इंडिया
चक दे..
हो चक दे इंडिया



nowhere to run nowhere to hide
this is the time to do it now

लड़ती पंतगों में
भिड़ती उमंगों में
खेलों के मेलों में
बलखाती रेलों में
गानों के मीठे में
फक्कड़ में चींटें में
ढूढों तो मिल जाए
पत्ता वही जो मैं
रंग ऐसा आज निखरे
और खुल के आज बिखरे
मान गए ऐसी बोली
रग-रग में जल के बोली
टस है ना
मस है जी
ज़िद है तो
ज़िद है जी
पिसना यूं ही
पिसना यूं ही
पिसना यूं ही
बस करिए...



कोई तो चल ज़िद फ़ड़िए
डूबे, करिए या मरिए
हे.. कोई तो चल ज़िद फ़ड़िए
डूबे, करिए या मरिए



चक दे..
हो चक दे इंडिया
चक दे..
हो चक दे इंडिया

जब भी सिगरेट जलती है.. GULZAR

Song- जब भी सिगरेट जलती है
Lyricist- गुलज़ार
Singer- अदनान सामी
Music- विशाल भारद्वाज
Film- नो स्मोकिंग
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hey!! i wana tell u abt this thing
this stick call da cigratte yeah hhh

हुमम फिर तलब-तलब है तलब-तलब
बेसबब-बेसबब फिर तलब है तलब


शाम होने लगी है
शाम होने लगी
लाल होने लगी है
लाल होने लगी


जब भी सिगरेट जलती है
मैं जलता हूं
आग पे पांव पड़ता है
कम्बख़्त धुंए में चलता हूं....


जब भी सिगरेट जलती है
मैं जलता हूं


फिर किसी ने जलाई एक दियासलाई-2
आसमां जल उठा है
शाम ने राख उड़ाई
उबले जैसा सुलगता हूं
कम्बख़्त धुएं में जलता हूं...

लंबे धागे धुंए के -2
सांस सिलने लगी हैं
प्यास उधड़ी हुई है
होंठ छिलने लगे हैं
शाम होने लगी है
शाम होने लगी
लाल होने लगी है
लाल होने लगी


हर बार धुंआ जो निगलता हूं
कम्बख़्त धुंए में चलता हूं
जब भी सिगरेट जलती है
मैं जलता हूं
आग पे पांव पड़ते हैं
कम्बख़्त धुंए पे चलता हूं


जब भी सिगरेट जलती है
मैं जलता हूं

ख़ूंख़ार ज़िंदगी...


ज़िंदगी इक दौड़ है...

आगे हिरण है,

पीछे शेर है,

जीने की

और जीने ना देने की

इक मुसलसल (लगातार) होड़ है

ज़िंदगी इक दौड़ है....



शेर भूखा है,

वहशी है,

दरिंदा है;

हिरण को खाना चाहता है

और वो हिरण तो बस जीना चाहता है



इक शेर है,

इक हिरण है,

इक होड़ है,

ज़िंदगी इक ख़ूंख़ार दौड़ है....
- पुनीत भारद्वाज

ऑपरेशन थ्री स्टार–एक करारा तमाचा



अरविंद गौड के निर्देशन में काफी पहले एक नाटक देखा था नाम ठीक से याद नहीं। लेकिन अपनी उस भूल को जल्द ही मैंने ऑपरेशन थ्री स्टार देख कर मिटा लिया। वैसे ये नाटक Dario fo के An accidental death of an anarchist का हिंदी adaptation है। जिसके लिये अमिताभ श्रीवास्तव का शुक्रिया अदा किया जाना चाहिए। लेकिन नाटक में असली औकात तो निर्देशक की नज़र आती है। जिन्होंने हास्य व्यंग्य के तालमेल से इस नाटक को ज्यादा प्रासंगिक बना दिया है।
इंडिया हैबिटैट सेंटर में अस्मिता (अरविंद गौड़ का ग्रुप) सोसाइटी की ओर से इस नाटक में crimes of the state की मंशा का पर्दाफाश किया गया है। यानि जब राज्य अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करता है तो हालात कैसे बेकाबू हो जाते हैं।
खैर नाटक में ज्यादा दृश्य परिवर्तनों की गुंजाइश नहीं थी और न ही ज्यादा ढ़ोल नगाड़े के तमाशे की जिसे निर्देशक ने बखूबी समझा है। तभी तो पीयूष मिश्रा के गानों को सही जगह पर इस्तेमाल किया गया है। जहां तक मंच सज्जा की बात की जाये तो वो और बेहतर हो सकती थी लेकिन हमें थियेटर की सीमाओं को समझना होगा। जहां बिना प्रायोजकों के नाटक खेलकर जिंदगी बसर करना खासा जोखिम भरा काम होता है।
नाटक में कहानी सिर्फ इतनी है कि एक आतंकवादी पुलिस हैडक्वार्टर की बिल्डिंग से कूद कर आत्महत्या कर लेता है और उसके बाद कैसे एक पागल ये साबित करता है कि ये किस कदर पुलसिया ढ़ोग है। वो आतंकवादी नहीं बल्कि एक रेलवे कर्मचारी था,जिसे झूठे इल्ज़ाम में फंसाकर फाईल बंद करने का समाधान तलाशा जा रहा था। लेकिन नाटक की असली ताकत उसके एलिमेंट ऑफ सरप्राइज़ में होती है (कम से कम इस नाटक की तो) । दिलचस्प पहलुओं की अगर बात करें तो इस पूरे घटनाक्रम को मंचित करते समय निर्देशक ने जैसे न्याय-व्यवस्था से लेकर उमा खुराना तक के प्रकरण को सामने रखा है। वह पल भर के मनोरंजन के साथ सारे तंत्र की बखूबी धज्जियां उड़ाता है। दरअसल आज व्यांगयकार के सामने जो सबसे बड़ी समस्या ‘नंगों के कपड़े उतारने’ की है।उसे निर्देशक ने समझते हुए दर्शकों की नब्ज़ को पकड़े रखा है। पागल के किरदार में संदीप श्रीवास्तव ने प्रभावित किया। जहां तक अंत की बात है इसमें भी निर्देशक की दूरदर्शिता दिखाई दी। दो अंत देकर निर्देशक ने बहस की संभावनाओं के मुंह पर भी करारा तमाचा दे मारा है। इसलिये आलोचक गुर्राते रहेंगे। रसिया लोग मज़ा ले सकते हैं।

-तुषार उप्रेती

चेहरे....


शहर की इस भीड़ में ढूंढ़ता हूं एक चेहरा
और

चेहरों की इस भीड़ में हर चेहरा
इश्तेहार लगता है
जहां चेहरे इश्तेहार हो गये

वहां रिश्ते बाज़ार हो गये
लोग घरों की तलाश में क्यों भटकते हैं यहां ?

यहां जेबें भरी हैं लोग बेरोज़गार हो गये
मैं फिर भी तसल्ली से जी रहा था

इस उम्मीद में कि होगी सहर
पर ना जाने कब इस भीड़ में

हम भी होशियार हो गये।

तुषार उप्रेती

दिल दोस्ती के अलावा कुछ एक्सेक्ट्रा

हुआ यूं कि घूमते घामते हम तीनों दोस्तों ने सिगरेट के सुट्टों के बाद अचानक ये प्लैन बना लिया कि दिल दोस्ती और एक्सेक्ट्रा देख ली जाए। मेरे अलावा किसी को भी फिल्म में दिलचस्पी नहीं थी। मेरी दिलचस्पी का निजी कारण था। ये फिल्म मेरे ही कॉलेज में शूट की गई है। खैर पहली नज़र में फिल्म बंडल ,बोगस और बेफिजूल जान पड़ी। लेकिन धीरे धीरे इसने हमारे इर्द-गिर्द के वातावरण की पोल खोलनी शुरु की तो अचंभा हुआ। इस फिल्म में निर्देशक से लेकर किरदार तक हर कोई एक कनफ्यूजन में जी रहा है। इमाद शाह जो फिल्म में अपूर्व का किरदार निभा रहे हैं वो फिल्म के सूत्रधार हैं। जिनकी पंचलाईन है WHEN YOU ARE YOUNG YOU BELIEVE POSSIBILITIES ARE ENDLESS. ठीक इसी तरह अपूर्व जीवन की गुत्थियों को सुलझा रहा है,परेशानी है तो बस इतनी कि उसके सामने SEX जीवन की सबसे बड़ी उलझन है। सही मायनों मे कहें तो साला ठरकी है। या फिर जहां मिले दो, वहीं गये सो। उसका ये रास्ता दिल्ली की जीबी रोड़ से लेकर एक वर्जिन स्कूली लड़की के बिस्तर तक ले जाता है। और आखिर में वो अपने दोस्त की गर्लफ्रेंड़(निकिता आनंद) के साथ भी सोता है। जिसकी भनक उसके दोस्त संजय मिश्रा (श्रेयस तलपड़े) को लग जाती है । जो कॉलेज प्रेसिडेंट बनने के चक्कर में अपनी गर्लफ्रेंड़ से कुछ दूर सा हो चुका है। फिल्म के आखिर में श्रेयस का चीखपुकार मचाना कुछ अजीब लगता है। शायद इसलिए कि फिल्म का सूत्रधार इमाद है। निर्देशक मनीश तिवारी दरअसल यहीं पर थोड़ा चूक गये हैं। फिल्म में सबसे ज्यादा जो चीज़ अखरती है तो वो है इसका बैकग्रांउड स्कोर। फिर भी निर्देशक जो प्रूव कर पाये वो ये कि ये दो अलग किस्म के हिंदुस्तानियों की कहानी है।
-तुषार उप्रेती

नीली आसमानी छतरी...ब्लू अंब्रेला

गैंगस्टरों के जीवन पर फिल्म बनाना , हॉकी क्रिकेट पर फिल्म बनाना या फिर लव स्टोरी को कैमरे से गूंथना मुंबईया फिल्म इंडस्ट्री को बखूबी आता है। लेकिन एक छतरी जैसी बेहद साधारण चीज़ को केंद्र में रखकर एक मनोरंजक फिल्म बनाने के लिये सबसे पहले तो जिगरा चाहिये। फिर अगर फिल्म बच्चों के कोमल मन की भावनाओं को उकेरती हो तो ये बाढ़ में कागज़ की कश्ती तैराने जैसा होगा। इसलिए सबसे पहले तो विशाल भारद्वाज के हौंसले की तारीफ करनी होगी जिनकी विषय की बारिक समझ ने न सिर्फ जोखिम उठाया बल्कि एक उम्दा फिल्म भी बनाई। वैसे कैमरे के काव्यलोक में समाने के लिये तो रस्किन बांड ने अपनी कहानी में पहले ही काफी गुंजाइश छोड़ रखी थी। जिसका फायदा विशाल को सीधा मिला । लेकिन उसे भारतीयता के जामे में कैसे पिरोया जा सकता है ये कोई विशाल से सीखे। खैर ब्लू अंब्रेला साहित्य को कैमरे में उतारने की तमाम संभावनाओं के साथ फिल्माई गई है। बशर्ते आप उसे एक रसिया की दृष्टि से देखें न कि समीक्षक की। हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी इलाके में छोटी हसरतों के साथ जीता जागता एक बड़ा गांव। यहां ये समझना बेहद मुश्किल है कि बड़े यहां बच्चे हैं या बच्चे अपनी तमाम शरारतों के बावजूद बड़े हो चुके हैं। कम से कम ब्लू अंब्रेला देखकर तो यही लगा। जहां एक सौ चौंसठ रुपयों की एवज में गांव की एक मात्र परचून की दुकान का मालिक खतरी बच्चे की दूरबीन मार लेता है। तो वहीं फिल्म के अंत में बिनिया(श्रेया शर्मा) का खतरी(पंकज कपूर) को अपनी छतरी देना बच्चों के संवेदनशील मन की ओर सीधा इशारा है। खैर फिल्म में इसके अलावा भी बहुत सी दिलचस्प गुस्ताखियां हैं जो कुछ पल के लिये ही सही पर दर्शक को गुदगुदाती हैं और पहाड़ी जीवन पर उसकी समझ की गुत्थियों को सुलझाती हैं। जैसे पहाड़ों पर जीविका कमाने के लिये पर्यटन का होना आम बात है लेकिन उस पर्यटन को किसी खास दुकान तक खींच कर लाना एक बिज़नेस माइंड है। जिसमें दुकानदार और हाईवे से गुजरने वाली बसों के कंडक्टर बराबर के भागीदार हैं।
खैर फिल्म में जैसे दृश्यों को फिल्माया गया है वो प्रकृति कैमरे में कैद करने का नया व्याकरण रच गया है। रही बात अभिनय की तो पंकज कपूर की प्रतिभा को परखने के लिये आज तक कोई यंत्र बना ही नहीं। पहले चालाक दुकानदार और बाद में गांव द्वारा बहिष्कृत होने के किरदार को उन्होंने बखूबी जिया है। बाल कलाकार के रुप में श्रेया शर्मा में अभिनय की असीम संभावनाएँ तलाशी जा सकती हैं। गुलज़ार को तो वैसे भी चड्डी पहन के फूल खिला है लिखने की वजह से बच्चों की नब्ज़ पकड़नी आती है इसलिये इस फिल्म में भी गाने काफी अच्छे हैं। जो मस्ती और चुलबुलेपन को बरकरार रखते हैं। खैर फिर भी जो लोग ये कहते हैं कि भारत में बच्चों के लिये फिल्में नहीं बनती है उन्हें इस फिल्म के सर्वश्रेष्ठ बाल फिल्म के राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने से जलन हो सकती है।


- तुषार उप्रेती

सईंया-सईंया....(कैलाश खेर) KAILASH KHER

Song- सईंया-सईंया..
Lyricist- कैलाश खेर
Singer- कैलाश खेर
Music- कैलासा बैंड (कैलाश-परेश-नरेश)
Album- झूमो रे..
बहुत कम लोग जानते हैं कि कैलाश खेर गाने भी लिखते हैं। कैलाश के पास केवल जादूई आवाज़ ही नहीं है वो रूहानी कलम के भी फ़नकार है। उन्होंने अपनी पहली एलबम 'कैलासा' के लिए भी लिखा है और उनकी नई एलबम 'झूमो रे..' में भी उनके गाए गीत, उन्ही के लिखे हुए हैं। आपको उनका एक ख़ूबसूरत गाना तो याद ही होगा- 'तेरे नाम से जी लूं, तेरे नाम से मर जाउँ'

आपके लिए पेश है कैलाश खेर का लिखा और उन्हीं का गाया एक गाना...

ये गाना सुनने के लिए आप यहां क्लिक करें।



"हीरे-मोती मैं ना चाहूं, मैं तो चाहूं संगम तेरा..
मैं तो मेरी सईंया तू है मेरा..

तू जो छू ले प्यार से आराम से मर जाऊं,
आजा चंदा बाहों में
तुझ में ग़ुम हो जाऊं
मैं तेरे नाम में खो जाऊँ
सईंया... सईंया..

मेरे दिन खुशी से झूमें, गाए रातें
पल-पल मुझे डूबाए जाते-जाते
जीत-जीत हारूं, ये प्राण-प्राण वारूं
हो.. ऐसे मैं निहारूं
तेरी आरती उतारूं
तेरे नाम से जुड़ें हैं सारे नातें
सईंया....

बनके माला प्रेम की तेरे तन पे झर-झर जाऊं
बैठूं नईया प्रीत की संसार से तर जाऊं
तेरे प्यार से तर जाऊं
सईंया.....

ये नरम-नरम नशा है बढ़ता जाए
कोई प्यार से घुंघटिया देता उठाए
अब बावरा हुआ मन
जग हो गया है रोशन
ये नई-नई सुहागन
हो गई है तेरी जोगन
कोई प्रेम की पुजारन मंदिर सजाए
सईंया... सईंया....

हीरे-मोती मैं ना चाहूं
मैं तो चाहूं संगम तेरा
मैं ना जानूं, तू ही जाने
मैं तो तेरी, तू है मेरा................ "

कशमकश..


कौन हूं मैं,
क्या है मेरे मायने...



लाखों की भीड़ में लावारिस पड़ा सामान सा लगता हूं
शक़ होता है कभी कि जानवर हूं या इंसान हूं...



इक नौकरी है साली,
घोड़े की तरह
नाक में नाल डली है,
उसे कोई दो हाथ खींचते दिखाई देते हैं
आज तक चेहरा नहीं दिखा उस माई-बाप का..



डर लगता है जिस दिन थककर बैठ गया तो
रेस से निकाल दिया जाउंगा
डर लगता है उस दिन से
जब हारा हुआ कहलाउंगा...



इसलिए दौड़ता रहना चाहता हूं
इस अंधी दौड़ में

थक गया हूं फिर भी दौड़ रहा हूं...

-पुनीत भारद्वाज