फिल्म बनाने का अनूठा अंदाज़…जॉनी गद्दार

अगर मैं आपसे कहूं की फिल्म की शुरुआत में ही अगर आप को बता दिया जाये कि आप जो फिल्म देखने जा रहे हैं, उसमें फलां शख्स कातिल है तो क्या फिर भी आप निर्देशक की प्रतिभा पर यकीन करते हुए उस फिल्म को देखेंगे। यकीन मानिय़े इस सवाल का जवाब आपको जॉनी गद्दार में मिलेगा। यहां गीतकार से लेकर फिल्म के निर्देशक तक एक भी ब्रैंड नेम नहीं है..। न तो निलेश मिश्रा और जयदीप साहनी के गीतों में गुलज़ार सी ताज़गी है और न ही नील नितिन मुकेश का इंतज़ार सांवरिया के रणबीर कपूर की तरह हो रहा है। बावजूद इसके निर्देशक श्रीराम राघवन ने जॉनी गद्दार के जरिये कहानी कहने का एक नया तरीका इजाद किया है.। जहां निर्देशक ने खालिस कहानी कही है वो भी बिना कोई सफाई दिये। अंग्रेजी में अगर कहें तो just do it ,no explanation. इस फिल्म की शुरुआत से ही छायांकन आपके दिलो दिमाग पर हावी हो जाता है। पात्र ठीक वैसा ही अभिनय करते हैं जैसा कि निर्देशक चाहता है। हां, जहां तक बैकग्रांउड स्कोर की बात है तो उसमें शंकर ,एहसान,लॉय की जोड़ी ने एक खास किस्म की स्वायत्ता ले ली है। इसलिए तो हर दृश्य में जिस तरह से पुरानी थ्रिलर फिल्मों के संगीत का रिमिक्स कानों में घोला गया है। वो कहानी की मांग के मुताबिक माहौल बनाता है। अगर फिल्म के अलग अलग पहलुओं पर बात करें तो छायांकन में मुरलीधरन ने गज़ब ढ़ा दिया है। कैसे एक साधारण से बातचीत के सीन को भी कैमरे के एक नये कोण से तराशकर मज़ेदार बनाया जा सकता है ये उन्हें बखूबी आता है। इसलिये फिल्म इंटरवल तक आपको खुद से चिपटाये रखती है। इंटरवल के बाद अभिनेता अपने फार्म में और भी धाकड़ होते गये हैं। खासकर नील नितिन मुकेश जिनके तराशे हुए नैन नक्शों को भूलकर अब तक आप ये समझ चुके होते हैं कि ये आदमी सिर्फ सही मौके की फिराक में है और अगर इसे ये मौका मिल गया तो वो हमारी इंडस्ट्री के जमे-जमाये नायकों के पसीने छुड़ा सकता है। जहां तक बात धर्मेंद्र की है वो तो फिल्म में its not about age ,its about mileage वाला संवाद बोलकर स्क्रीन पर अपनी धाक पहले ही जमा लेते हैं। विनय पाठक भी खोसला का घोंसला और भेजा-फ्राई के बाद इस बार भी सही गेंद(संवाद) पर सही टाईमिंग करके चौका मारने के अभ्यस्त हो गये हैं। रही बात रिमी सेन की तो उनका इस्तेमाल फिल्म में एक मकसद से किया गया है। मकसद जॉनी की गद्दारी का औऱ फिल्म के सारे खेल का। आप चाहें तो उन्हें फिल्म का सबसे वेस्ट मैटिरियल कह सकते हैं या फिर कहानी को बुनने में मदद करने वाली सूई जो तीखापन लिये है। पर अफसोस जब हीरो इतना हैंडसम हो तो हिरोइन सोच समझ के चुननी चाहिये। ये श्रीराम राघवन को समझना होगा। नहीं तो वो उम्दा फिल्म बनाते जायेंगे और दर्शक उसे नकारते जायेंगे। आखिर बेहतर फिल्म को बेहतर बाज़ार मुहैया कराने में निर्देशक का भी योगदान होना चाहिये।
-तुषार उप्रेती

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

खरगोश का संगीत राग रागेश्री पर आधारित
है जो कि खमाज थाट का सांध्यकालीन राग है, स्वरों में कोमल निशाद और बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं,
पंचम इसमें वर्जित है, पर हमने इसमें अंत
में पंचम का प्रयोग भी
किया है, जिससे इसमें राग बागेश्री भी झलकता है.
..

हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर ने दिया है.
.. वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा जंगल में चिड़ियों कि चहचाहट से
मिलती है...
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