वादियों से लौटकर....



उस दिन बुधवार था पलकों ही पलकों में सारा दिन निकल गया। जो पलकें कभी फुर्सत के कुछ पल तलाशती थी, वो आज इस जुगत में थी की कब दो दिनों के लिये हम सब दिल्ली के कॉन्क्रिट के जंगल से विदा लेकर उस प्राकृतिक जंगल के आगोश में समा जायें जो यहां से तकरीबन तीन सौ किलोमीटर दूर मसूरी की ठंडी वादियों में बसा हुआ था। बस बहुत हुआ अब अपनी नई नवेली नौकरी को पहली बार हम ऑफिस की दहलीज़ पर छोड़े चले जा रहे थे। शायद यही फर्क होता है नौकरी और छोकरी में; मन में उदासी कम उमंग ज्यादा थी। चार दोस्त, एक गाड़ी और ठंड़ी हवा के झोंके बस रास्ता कब कट गया पता ही नहीं चला। रास्ते भर कई तरह की बाते हुईं- गुजरात के दंगों से लेकर लड़कियों की वर्जिनिटी तक...
शायद किसी ने ठीक कहा है जिंदगी का असली मज़ा सफऱ में हैं मंजिल की खामोशी में नहीं। वापिस आये तो अपना शहर पराया लग रहा था। मानो उसने किसी और के साथ घर बसा लिया हो।
- मित्र मंडली

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