बस यादें हैं....



यादों का क्या..
बस दबे पांव चली आती हैं


देखती नहीं है,
सोचती नहीं है कुछ भी
कम्बख़्त मुंह उठाए मुझपे बरस जाती हैं


यादों का क्या..
बस दबे पांव चली आती हैं


यादों पे है जोर किसका
अजब ताक़त है यादों में
अजब तिलिस्म है इनका
ऐसी ज़ालिम है कि
जितना भूलाओ उतनी याद आती हैं


यादों का क्या..
बस दबे पांव चली आती हैं


यादें आती हैं
तो अपने साथ कितने लम्हें, कितने किस्सें लाती है
कभी हंसाती है, कभी रूलाती है
तो कभी हद से ही ज़्यादा गुदगुदाती है
अपने इशारों पे नचाती है


यादों का क्या..
बस दबे पांव चली आती हैं


यादों का क्या..
बस दबे पांव चली आती हैं



जीना मुश्क़िल करती है
तो कभी जीना सीखाती है
यादों का क्या..
बस दबे पांव चली आती हैं......





-पुनीत भारद्वाज

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

yaadein- zindagi k tamam raasto par saath deti hui' khatti or meethi yaadein.
tanhai me gudgudati or mehfil me bhi rula jaati khoobsurat yaadein.

in yaadon ko bayan karti utni hi khoobsurat aapki kavita.