अजीब शहर...


कैसा अजीब है ये शहर
यहां शाम हो या दोपहर
चीखें इमारतों से टकराती हैं
हर आह यहां गम से पहले ही जमींदोज़ हो जाती हैं

पंछियों के साये यहां छोटे लगते हैं
रिश्ते सिक्कों से खोटे लगते हैं
आवाजें अपनों तक नहीं पहुंचती
जिंदगी यहां सिर्फ अपने ही बारे में है सोचती

लोग तस्वीरों में यहां तकदीरें तलाशते हैं
फिर हताश से गांव लौट जाते हैं।
रेलगाड़ियों के धुएं मे उड़ जाते हैं सारे ख्वाब
जब ये शहर करता है खुद को बेनकाब।....



तुषार उप्रेती

हिज्र....






ये जो हिज्र* का ग़म है * separation
इक जानलेवा ज़ख़्म है
और जो तेरी यादें हैं
वो इस पीर* का मरहम है
* दर्द
ग़मे-हिज्रा* से पल-पल मर रहा हूं
* बिछड़ने का दर्द
और यादों में तेरी शफ़ा* ऐसी के
* healing power
मरके भी हर पल जी रहा हूं......




-पुनीत भारद्वाज


ये श्याम बेनेगल कौन है ?


दिल्ली के ताज पैलेस होटल में हम घुसे। माहौल काफी रंगीन था। कुछ जाने-पहचाने चेहरे आसपास खड़े बतिया रहे थे। टीवी सीरियल हम लोग फेम बाबुजी भी थे , तो नटवर सिंह और जया जेटली भी टेबल पर रखे अंगुर गप्प से निगल रहे थे । वैसे कुछ और चेहरे भी थे जिन्हें अपने बचपन के दिनों मे मैं दूरदर्शन पर देखा करता था। नाम याद नहीं। लेकिन अपने को जिस आदमी से सबसे ज्यादा मतलब था । वो थे श्याम बेनेगल , जो दिखाई नहीं दे रहे थे। या यूं कहें कि हमारी आंखें उन तक पहुंच नहीं पा रही थी। वैसे शूट पर आने से पहले ही मेरा दिल टूट चुका था। कारण सिर्फ इतना था कि कैमरापर्सन ने मुझसे पूछ लिया था..श्याम बेनेगल कौन है ? और मैंने उसे बौखलाहट में जवाब दिया कि संजय लीला भंसाली को जानते हो न , बस उसका बाप है। खैर मामला था एक बुक लांच का। पार्टी में सरगर्मियां थोड़ी तेज़ हुई। देखा तो पाया एन.डी.टी.वी वाले किसी को गन-माईक लगाकर शूट कर रहे हैं। तुरंत ताड़ गये कि श्याम दा ही हैं। अपन भी हो लिये। इच्छा तो कब से थी पर दादा के दर्शन आज हुए । सुना था काफी सज्जन आदमी हैं। लग भी रहे थे। और थे भी। हमने भी कैमरा ,माईक, बीच में घुसेड़ दिया। हांलाकि दूसरे शूट्स की तरह उनसे बात करने वालों की मारामारी यहां नहीं थी। फिर भी हम कुछ ज्यादा ही फुदक रहे थे।
पहला सवाल पूछा- श्याम दा आज दिल्ली बुक लांच पर आना हुआ और जामिया मिलिया इस्लामिया ने भी आज आपको सम्मानित किया है। तो इस बार का विजिट लकी रहा?
श्याम दा- जी, खुशी तो बहुत होती है,जब कोई सम्मानित करता है। इस बार जामिया ने डाक्टेरेट की उपाधि दे दी तो काफी अच्छा लग रहा है।
दूसरा सवाल- खबर है कि गंभीर फिल्में बनाने वाले श्याम बेनेगल अब महादेव के जरिये कामेड़ी फिल्म में हाथ आजमा रहे ?
श्याम दा- ठीक सुना है। वैसे कामेड़ी मेरे लिये कोई नई बात नहीं है। मंड़ी भी एक किस्म की कामेड़ी फिल्म थी। इस बार महादेव में भी कुछ कामिक स्टायर होंगे। देखें क्या परिणाम होता है।
तीसरा सवाल- महादेव के कैरेक्टराइज़ेशन के बारे में कुछ बताएं?
श्याम दा- जी फिल्मों का कैरेक्टराइज़ेशन एक अहम हिस्सा है। कोई भी फिल्म अकेले plot पर खड़ी नहीं रह सकती। इसलिए कैरेक्टरर्स के जरिये उस इंटरेस्टिंग बनाए रखना चाहिए।
चौथा सवाल- आपके उस चर्चित प्रोजेक्ट बुद्दा का क्या हुआ ? सुना है श्रीलंका में उसके लिए १००० एकड़ का प्लाट खरीदा गया है।
श्याम दा- उस पर अभी काफी काम होना बाकी है। हां, ये इंड़ो-श्रीलंकन प्रोजेक्ट है जिसे पूरा करने में अभी काफी समय लगेगा। अभी तो स्क्रिप्ट पर काम चल रहा है।
पांचवा सवाल- वैसे काफी समय हो गया आपको कोई फिल्म बनाए, अब क्या आपका कमबैक माना जाये ?
श्याम दा- नहीं,नहीं ऐसी कोई बात नहीं। उम्र जरुर हो चली है पर अभी तो काफी काम करना है। थोड़ा थक गया था तो ब्रेक ले लिया।
आखिरी सवाल- एक फिल्म आपने बनाई थी। सुसमन इतना बता दीजिए की वो कहां मिलेगी।
(ये सवाल आफ कैमरा पूछा गया)
श्याम दा- मुझसे ही ले लिजिएगा। (थोड़ा झिझके, फिर संभलकर बोले) वो आपको एन.एफ.डी.सी से मिलेगी।
दादा आगे बढ़ गये और किसी ने उनसे कोई सवाल नहीं पूछा


तुषार उप्रेती

हैलो-हाय.....





वो लड़कियां बेहद खुशनसीब होती हैं। जिनके नाम से उनके गली-मोहल्ले गुलज़ार हुआ करते हैं। ऐसा मैं नहीं मेरे ही कुछ उम्रदराज दोस्त कहा
करते थे।



वो बाग जहां बचपन में हम क्रिकेट खेला करते थे, अब वहां यारों का मज़मा लगता था। बैठकें होती। शर्तें लगती। हर हफ्ते का यही रुटीन । हर हफ्ते हमारे मोहल्ले का नाम किसी नई लड़की के नाम पर रखा जाता। कल तक जिसे हम कन्नू मोहल्ला कहते थे वो सोमवार से पूनम मोहल्ला कहलाएगा। बैठकबाजों के उस्ताद सुमित भाई जब ये घोषणा करते तो बहुत शोर होता, सीटियां बजती और हुल्लड़बाजियां होती।
मैं हमेशा दूर से ही अपने इन दोस्तों को हाथ हिलाकर आगे बढ़ जाता। कई बार इशारे होते,आवाज़ें लगती,पर मैं हाय हेलौ से ज्यादा नहीं रुक पाता।
उस्ताद अपन से इस बात के लिए ख़फा रहते। उस्ताद....हां यही असली नाम था उनका। आठवीं तक पढ़े।फिर मन उक्ता गया। तो इधर-उधर घूम कर लोगों की लौंडियों को हांकने लगे। एक दिन बाप ने सरेआम कनपट्टी पर दे मारा,.तो सोया हुआ आत्मसम्मान जागा और रोज़ाना सुबह दस से शाम पांच तक चूड़ियों की दुकान पर लुगाइयों को चूड़ियां पहनाते। काम मुनासिब न सही,पर दिलचस्प था। इसलिए करते रहे। लेकिन शाम पांच बजे घर आकर उस्ताद अपनी उस्तादी न दिखाएं,ये कैसे हो सकता है?
बाग के टपरे(टिला)पर मजमा लगता। औऱ उस्ताद अलाने-फलाने की लड़की का किस्सा सुनाते।
..... ‘अजी उस दिन कनॉट प्लेस में बॉयफ्रेंड़ के साथ थी।’...
“मैंने बाज़ार में घुमते पकड़ लिया...तो बोली घर मत बताना”
और मेरे जैसे न सही पर मुझसे थोड़े ज्यादा बुरे हालात में रहने वाले सारे जवां लौंडे...जांघों पर हाथ मलते हुए हाय हाय करते। इस सबमें ये खासियत थी कि इनमें से कोई भी कॉलसेंटर में काम करके अपनी जिंदगी बर्बाद नहीं करना चाहता था। लेकिन दूसरी नौकरियां भी न जाने कौन सी गली में जा छुपी थीं जो ढूंढ़े नहीं मिलती थी। सबके सब अच्छे घरों के। न कोई ऐब, न कोई हरकतें। सिर्फ मजमे की लत थी। जिसने इन सबको सारे इलाके में बदनाम कर रखा था। कसूर इनका भी नहीं बेचारे नौकरी और छोकरी दोनों मामले में वर्जिन थे।
खैर किस्सों की ये श्रृंखला उस दिन टूटी,जिस दिन उस्ताद को सबने काले कुत्ते वाली पूनम से सीढ़ियों के पास बतियाते पाया। हुआ यूं कि जब टपरे पर इंतज़ार की हद हो गई तो सारे मुश्तंडे इलाके में झुंड में घुमने से लगे। तभी किसी ने बताया कि उस्ताद तो बेवफाई कर गये।
अपनी इस हरकत पर उस्ताद से भी कुछ कहते न बना। हंस-हंस के 'बस ऐसे ही'.... वाक्य का लच्छा बनाकर जरुर दोस्तों को निगलने को दिया। पर जवानी में गर सवालों के जवाब एक ही दिन में मिल जायें तो जिंदगी खत्म न हो जाये। अगले दिन टपरे पर बैठ कर उस्ताद ने खोपड़ी खुजाते हुए जब सार्वजनिक लहज़े में जैसे ही कहा....'हो गया'... तो यारों ने नाच-नाच कर ज़मीन की कुबड़ को भी समतल कर डाला।
सिर्फ इतना ही जान पाये कि एक दिन दुकान पर चूड़ियां खरीदने आईं। तब कच्ची कलाई पर उस्ताद का दिल ऐसा फिसला की , उसके कुल्हे की हड्डी टूटी यानि उठने का नो चांस। लड़की से पूछा तो पता चला वो भी दबी जुबां से हामी भर चुकी है। उस्ताद से वो आखिरी मुलाकात थी। मैं भी उस दिन मौजूद था। लड़की को पहले से जानता था। खासी मर्दखोर किस्म की है। उस्ताद से कहा नहीं,नहीं तो दिल के गुब्बारे में छर्रे लग जाते।
अब होना क्या था? उस्ताद का सारा ध्यान उस लड़की की ओर था। और इलाके के बाकी मुफ्तखोर आशिक अब उस्ताद के किस्से सुनाया करते। यानि अब कुछ ठीक वैसे ही हो रहा था,जैसा कि सदियों से होता आया है। सिर्फ़ एक लड़की ने बैठकबाज़ों की मंडली का सत्यानाश कर दिया। किसी शागिर्द पर नज़र डाली होती तो ठीक था, लेकिन उसने तो उस्ताद पर ही चाकू-छूरी, भाले-बरछे चला दिए।
कुछ दिनों बाद सुनने में आया कि दोनों प्रेमियों ने भागकर शादी करनी चाही...पर पकड़े गए। काफ़ी दिनों तक इलाके में हो-हल्ला होता रहा। फिर चुप्पी छा गई। हालात तब बद से बदतर हो गए जब चुप्पियां साज़िशों पर उतर आई। इलाके में उस्ताद और उनकी बिन बयाही बेग़म को गाली देना शग़ल सा बन गया। यारों ने भी कन्नी काटने में देर ना लगाई। जो पहले उस्ताद के क़िस्सों पे सीटियां बजाया करते थे..अब उस्ताद के क़िस्से से जी चुराया करते थे। अपनी हाय-हैलो जारी रही........

तुषार उप्रेती




ख़ामोशी ज़रूरी है....

माना के सुरूर है तेरी बातों में
मगर इक ख़ामोशी भी ज़रूरी है
कुछ निग़ाहों को भी तो कहने दो
बात इनके बिना अधूरी है....
-पुनीत भारद्वाज

कतरा-कतरा जिंदगी...

जिंदा लाशों के साथ जी रहा हूं मैं
अब अपने ही गम को
खुद-ब-खुद घोल कर पी रहा हूं मैं
कतरा-कतरा बिखरी हैं जिंदगी

उसके हर सिरे को सी रहा हूं मैं




तुषार उप्रेती

एक नज़र तो मिले....

ग़म का मौसम पल-दो-पल भर आएगा
पतझड के बाद पेड़ हरा हो जाएगा
आग लगी जो दो दिल में वो थोड़ी सी दर-परदा* है
*भीतर
एक ज़रा सी नज़र मिले और माजरा हो जाएगा...

आंखों से जो बहते हैं अश्क़ अब
ये होना भी लाज़िम था,
चलो इन अश्क़ों के बहने से दिल भी ख़रा हो जाएगा....


-पुनीत भारद्वाज

लफ़्ज़-लफ़्ज़ ज़िंदगी.....

जिन लफ़्ज़ों में ज़िंदगी के मायने छिपे हैं
उन लफ़्ज़ों की तलाश में रहता हूं
लफ़्ज़ों का सौदागर हूं
लफ़्ज़ों के बहाने मुस्कुराहटें बटोरता हूं....
-पुनीत भारद्वाज

FRUSTRATION..........




सिर पर सवार हुई फरस्ट्रेशन अब आंखें निकाल कर मुझे घूरने लगी थी। और मेरी इतनी हिम्मत नहीं हो पा रही थी कि उससे आंखें मिलाऊं। काफी दिनों से उसे पाल रहा था। पुचकार रहा था। वो रोज़ सोचती कि आज मेरे सब़्र का बांध टूटेगा और उसकी मौज होगी। लेकिन रोज़ रोज़ फरस्ट्रेशन की आंच पर दिमाग का चूल्हा गर्म होता। उस पर गालियां भी पकतीं। फिर न जाने किस डर से गैस खत्म हो जाती।

लेकिन कल शाम तक सब बर्दाश्त के बाहर हो गया। मन हुआ कि BOSS के कैबिन में घुसूं और दुनिया का सबसे छोटा रिज़ाइन मुंह पर दे मारुं Dear sir, मां... । फिर लगा who cares? यहां फर्क किसे पड़ता है। मेरे जैसे छत्तीसौ की लाईन जो लगी है। इसलिए अपनी शिफ़्ट पूरी करके मोटसाईकिल उठाई और सारी फरस्ट्रेशन को पेट्रोल के धुएं में उड़ाता हुआ निकल गया सड़कों पर। कभी-कभी लगता है कि मीडिया में नया होना गुनाह हो जाता है।

जब फरस्ट्रेशन का उबाल कम नहीं हुआ तो एक दोस्त को बुला लिया और गालियों के कंकड़ उछालने लगा। 'शर्म नहीं है इन लोगों को ...बेटी की उम्र की लड़की को भी नहीं छोड़ते।' ॥मैंने कहा 'छोड़ेगें कैसे यार... वो खिलाती हैं तो ये खायेंगे नहीं।'॥ दोस्त चाऊमीन निगलते हुआ बोला। पता नहीं हमें किस बात का फरस्ट्रेशन ज्यादा था। इस बात का कि बीस साल की लड़की पैंतालिस साल के आदमी के साथ सोती है या फिर इस बात का कि हमें इन लड़कियों के साथ सोने को नहीं मिलता।

जब कुछ समझ नहीं आया। तो श्रीराम सेंटर के बाहर चाय पीने आ गये। ये वो जगह हैं जहां से दिल्ली वाले सपने देखना शुरु करते हैं। कितनों की जिंदगी तो इन्हीं गलियारों पर चाय की चुस्कियों में गुजर गई।


दोस्त ने पूछा-तूने अपना सी.वी तैयार कर रखा है, ना? मैंने तुरंत कहा- हां,हां क्यों ?नहीं ऐसे ही। अख़बार में ऐड था कि जगह खाली है। वो बोला-'कल चलते हैं।' मैंनें कहा। नादान थे हम। भूल गये थे कि सिफारिश या so-called , contact,के न होने पर मायूस होना नियति है। पहले समझ नहीं आता था। लेकिन अब समझ आया कि फिल्मों में हीरो की नौकरी पक्की होने से पहले वो फोन क्यों बजता था। हमारे पास भी हीरो वाली वही फरस्ट्रेशन है। इस मामले में आजकल के हीरो मस्त हैं। बड़े-बाप के घर एप्लीकेशन देकर पैदा होते हैं। क्योंकि contact वो नु्क्ता है जिसके लगने से खुदा भी ख़ुदा हो जाता है। खैर इन सबकी परवाह किये बगैर पूर जोश से एक अख़बार के दफ़्तर की सीढ़ियां चढ़ गये। रिसेप्शन पर धरे जाने पर हमने बताया कि सी.वी देने आये हैं। नतीजतन सी.वी रिसेप्शनिस्ट को देने पड़े। उसने पहले से जमा सी.वी के कूड़े में हमारा सीवी भी पटक दिया। और कहा... 'हम call करेंगें '। हमने देखा सामने एक काला शीशा लगा हुआ था। अंदर अख़बार का दफ़्तर था। लोग वहां काले नज़र आ रहे थे। जिन सीढ़ियों पर कूद-कूद कर गये थे। वापसी पर उन पर अपना भार डालते हुए उतर रहे थे। साथ में थी तो बस वही फरस्ट्रेशन॥जो अब पंजे निकाल कर हमारी औऱ लपकने वाली थी....




-तुषार उप्रेती



तस्वीरें .....




मुझे तस्वीरों से सख्त नफरत है। न जाने कब किस मोड़ पर मेरे सामने पड़ जाएं और आंखें उनका मुंह नोच लें। कारण बड़ा ही सीधा सा है। एक तो तस्वीरें हमेशा सुख के शब़ाब में डूबे पलों की होती हैं। जिन्हें देखकर मन हर बार ये सवाल गेंद की तरह उछाल देता है कि शायद मेरा बिछड़ा कल ज्यादा हसीन था। दिमाग भी उसी वक्त फरमान जारी करते हुए कहता है,कि, अगर पास्ट अच्छा था तो मैं भला किस फ्यूचर की तलाश में भटक रहा हूं । जहां जिंदगी हर कदम पर फासले पैदा करती जा रही है।

इंक़लाब....




कुछ ऊंगलियां अब मुड़ना चाहती हैं
वो हथेलियों से जुड़ना चाहती हैं..
अत्याचार को देना चाहती हैं एक जवाब
नारा बुलंद करो इंक़लाब.....


ये किसने ढ़ाया इंसानियत पर कहर
ये कौन देना चाहता है हमें मीठा जह़र
चुखता करेंगें सारे हिसाब
नारा बुलंद करो इंक़लाब

खून अब उबल रहा है
रातों को करवटें बदल रहा है।।।
मुठ्टियां अब भीचीं हैं
आस्तीने ऊपर खींचीं हैं
कसकर देगें हम जवाब
नारा बुलंद करो इंक़लाब



हमारी आंखों का पानी अब सूख गया है
हमने सपना भी अपना झौंक दिया है।।
अब मैदान-ए-जंग होगी
खून में नई तरंग होगी..
मिलेगा सबको मौत का खिताब
नारा बुलंद करो इंक़लाब......






तुषार उप्रेती

करते रहिए हाय हाय….


ये हाय ,हाय का ही खेल है दोस्तों। अगर किसी से हाय बंद हो गई तो समझिए आपकी किस्मत का ताला भी बंद हो गया। अगर किसी ने हाय दे दी तो समझिए जिंदगीभर मीड़िया में मैंढ़क की तरह बैठ कर टर्राते रहेंगें कोई सुनने वाला नहीं। आखिर पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर किया भी कैसे जा सकता है। ये मगरमच्छ भी ना 'टू मच' होते हैं जी। छोटे छोटे मैंढ़कों को खाकर समझते हैं कि चैनल की प्रगति के लिए काम कर रहे हैं। लेकिन होता उल्टा है जो मैंढ़क बरसाती होने के बावजूद हर मौसम में टर्राना सीख जाता है उसे भी हाय दे देते हैं। बेचारा हाय हाय हाय॥करते हुए अपने कुएं से बाहर निकल जाता है। दुनिया है बड़ी ज़ालिम।।। कोई सुनने वाला नही।...कौन किसका सगा यहां सबने सबको ठगा। अब बताइए हमें समझाया जा रहा है कि सबसे हाय हैलो चालू रखो और किसी की हाय मत लो। अगर दुनिया छोटी है तो मीड़िया की दुनिया जिंदगी का गोल चक्कर..।एक न एक दिन सबको दौबारा वहीं मिलना है जहां से बिछड़े थे। औऱ फिर से हाय करनी है।।।मैंने अपनी आंखों से देखा है जी। अभी किसी रंग का चश्मा नहीं चढ़ा है न।। एक दिन खूब हंगामा हुआ,,तू कौन मैं खामखा का ड्रामा भी देखा।।लोगों को एक दूसरे की हाय लेते और देते भी पाया।।गालियों की बौछारें सुनी।।।कानों से खून भी निकला।।बंदे अलग हो गये।।एक दूसरे की खूब मां-बहन करने के बाद। शूट पर दोनों को फिर से हाय कहते देखा।।। जी मचल गया।.. कितना नकली बेकार शहर है ये...कोई शख्स ठीक कह गया है जो जर्नलिज़्म करना चाहता है। वो नौकरी छोड़ने के लिए तैयार रहे।।।क्योंकि अंधों के शहर में आइने बेचना बेकार है....नहीं तो करते रहिए हाय हाय...वैसे इसका एक मतलब और भी होता है।।।



तुषार उप्रेती

पिक्चर अभी बाकी है..ॐ शांति ॐ


सांवरिया देखी तो ओम शांति ओम देखने के लिए जीभ लपलपाने लगी। खैर अपन भी घुस गये टिकट लेकर रात का आखिरी शो देखने। इस बार टिकट खुद खरीदा। महंगा नही लगा। वजह, साथ में था पसंदीदा दोस्त जिससे अपनी खूब पटती है।
खैर फिल्म शुरू हुई और कब खत्म हुई पता ही नहीं चला। बीच में इंटरवल का ब्रेक भी बेमानी लग रहा था। समझ आया कि शाहरुख खान अपनी किस्मत का बुलंद सितारा क्यों है? वजह है इंडियन आडियंस का उसके साथ हर रोल में कनेक्ट होना। साधारण शक्ल,जो उसे आम लोगों से जोड़ती है और आंखों से तकलीफें बयां करने की काबिलियत। इसलिए वक्त बीतता गया और शाहरुख का सफर आसान होता चला गया। पहली बार विदेशी अंदाज़ में बदन तराशा और दर्दे डिस्को भी किया। लेकिन माया मेमसाहब और डुप्लिकेट में शाहरुख पहले भी अपने तन की सूखी हड्डियां दिखा चुके हैं।
फिल्म शुरु होते ही रोलर कोस्टर राइड़ शुरु हो जाती है। शिरीश कुंडुर ने एडिटिंग में कहर ढ़ा दिया है। कई दृश्य चौंकाते हैं। खासकर दीपिका पादुकोन का वो गाना जिसमें आप उन्हें बिना झिझक के राजेश खन्ना ,सुनील दत्त,जितेंद्र के साथ नाचने गाते देख सकते हैं। काफी अर्से बाद किसी फिल्म में लगा कि लाइटिंग कमाल की है। दास्तान गाने में आप ये महसूस कर सकते हैं। रंगमंच की तरह फिल्मों मे भी लाइटिंग का खास मतलब होता है। रेड़,ग्रीन और येलो लाइट के अपने मतलब होते हैं। फऱाह खान की कोरियोग्राफी से प्रभावित हुआ।
खल रही थी तो सिर्फ एक बात की कहानी वही घिसीपिटी या फूहड़ थी। 2007 में आप आडियंस को भूत और पुर्नजन्म की कहानी सुनाकर साबित क्या करना चाहती है? या फिर खालिस मनोरंजन और मार्केटिंग के नाम पर आप लोगों को बरगलाना चाहती हैं। बात सिर्फ इतनी सी है कि लोगों को सपने दिखाओ और अपने बड़े से पेट में पैसा गड़प कर जाओ। सिम्पल है यार। मार्केटिंग फंड़ा। फिर चाहे इसके लिए आपको मनोज कुमार का मज़ाक उड़ाना पड़े या तमाम इंडस्ट्री को एक ही गाने में नचाना पड़े।
दीपिका पादुकोण को दो किरदारों मे एक साथ उतारना गले की फांस बन सकता था। लेकिन बंदी में कान्फिड़ेंस है। निभा गई है। शाहरुख खान के साथ कई सालों से हम सपने देखते आए हैं। राजू बन गया जन्टिलमैन और चमत्कार में उसके साथ हम हंसने रोने के सिद्धस्त हो चुके थे। ओम शांत ओम में उसने जूनियर आर्टिस्ट बन कर मेरे आपके बड़ा होने के सपने को भुनाया है। मैं हूं ना मे भी कहानी नहीं थी और ओम शांति ओम में भी कहानी नही प्रजेंटेशन ज्यादा है। पैसा फेंक तमाशा देख। दृश्यों का फिल्मांकन अच्छा है। आग लगने पर शाहरुख का दीपिका को बचाने की कोशिश करना और ओके के रुप में अपनी मां से मिलने वाला सीन थोड़ी देर के लिए आंखें गीली कर सकता है। इसलिए रुमाल लेकर जाएं।
फिल्म में मेहमान कलाकार के रुप में आये अक्षय कुमार ने दिल जीत लिया है। फराह को अक्षय से सीखना चाहिए की मजाक खुद का भी बनाकर लोगों को हंसाया जा सकता है। गीत भी फिल्म की जरुरत के हिसाब से हैं। लेकिन अंत में रोमांच के बाद भी जब फिल्म देखकर बाहर आया तो सिर्फ यही जेहन में घुम रहा था कि बड़ा बनने के सिर्फ दो ही तरीके होते हैं या तो किसी बड़े आदमी के घर में पैदा होने की एप्लिकेशन दे दो या फिर दूसरों को नीचा दिखाकर खुद बड़े बन जाओ। अगर यही फिल्म है तो मैं कहूंगा....पिक्चर अभी बाकी है...........

मस्ती,मजा,मनोरंजन,मुनाफा,मार्केटिंग और निर्देशक की मनमानी यही है ओम शांति ओम। अंत में अपनी पूरी टीम को दर्शकों से परिचित करना अच्छा प्रयास था।.....


तुषार उप्रेती





एक औरत....

आदमी हूं मगर
एक औरत की दिल की दुनिया जानता हूं
जानता हूं...
एक औरत का दिल
एक समुद्र की तरह गहरा,
आसमान की तरह विशाल,
गुलाब की पांखुड़ी से भी कोमल
और मंदिरों की घंटियों,
मस्जिदों की अज़ानों से भी पवित्र होता है

मगर जब एक आदमी और एक औरत के बीच प्यार होता है
और वो आदमी उस औरत को जब दिल से अपने दिल में रखता है
तो ये सारी दुनिया उसके दिल में समा जाती है
ये ख़ूबसूरत कायनात उसकी हो जाती है
कितना खुशनसीब होता है
वो शख़्स जिसे सच्चा प्यार मिलता है




-पुनीत भारद्वाज

जब से तुम हो मिले.....


जब से तुम हो मिले
जब से तुम हो मिले
जब से तुम हो मिले......



जब से तुम हो मिले
चल पड़े सिलसिले
ज़ोर अब ना रहा मेरा जज़्बातों पर
आंसू बनकर निकल जाते हैं ये कभी
जब तेरी याद आती है ऐ महज़बीं*
जब से तुम हो मिले
जब से तुम हो मिले
जब से तुम हो मिले.......
* ख़ूबसूरत


जब से तुम हो मिले
दिल में है जलजले
खोया-खोया सा रहता हूं मैं.. मग़र
सीने में एक ग़ुमसुम सा एहसास है
क्या पता, क्या कहूं
कैसा एहसास है
बस इतना लगा है के कुछ ख़ास है
जब से तुम हो मिले
जब से तुम हो मिले
जब से तुम हो मिले ...


जब से तुम हो मिले
मिट गए सब गिले
ज़िंदगी मुझको अब रास आने लगी
प्यार की तिश्नगी* अब तो बुझने लगी
कुछ उदास सा मैं मुस्कुराने लगा
ख़्वाब मुझको कोई अब दिखाने लगा
ख़्वाब मुझको कोई अब दिखाने लगा
ख़्वाब मुझको कोई अब दिखाने लगा....
* प्यास


ख़्वाब मुझको कोई अब दिखाने
लगा




- पुनीत भारद्वाज

जब भी चूम लेता हूं..... KAIFI AZMI



Song- जब भी चूम लेता हूं...
Lyricist- क़ैफ़ी आज़मी
Singer- रूप कुमार राठौर

Music- रूप कुमार राठौर
Album- प्यार का जश्न




जब भी चूम लेता हूं इन हसीन आंखों को
सौ चराग अंधेरे में झिलमिलाने लगते हैं



फूल क्या शग़ूफ़े(कलियां) क्या, चांद क्या सितारें क्या
सब रक़ीब(दुश्मन) क़दमों पर सरझुकाने लगते हैं



फूल खिलने लगते हैं उजड़े-उजड़े ग़ुलशन में
प्यासी-प्यासी धरती पर अब्र(बादल) छाने लगते हैं


लम्हें भर को ये दुनिया ज़ुल्म छोड़ देती है
लम्हें भर को सब पत्थर मुस्कुराने लगते हैं


सांवरिया का बांवरिया ....





हौसला तो पहले ही पस्त हो चुका था। फिर भी सांवरिया देखने की हिम्मत जुटाई क्योंकि पी.वी.आर का डेढ़ सौ वाला टिकट हमारे बॉस ने खरीद दिया । और दोनों गुरू चेला पहुंच गए भंसाली का ब्लू मैजिक देखने। पहली नज़र मे कहूं तो कमाल के सेट्स और सिनेमाटोग्राफी है। पहली नज़र मे जिस शहर से वास्ता हुआ वो फेयरीटेल की दुनिया का कोई शहर लगा। अपन झेल गये। फिर जब शहर की झलक मिली तो वो अलादिन के कार्टून का रुमानी शहर आग्रबां लगा। आंखें चौंधियाई। एक बार फिर रणबीर ने जब सोनम के साथ गाना गाया तो लगा ये भारत में बसे वैनिस का दृश्य है। जहां गौंड़ोलाज़ चलते हैं। अपन हज़म कर गये। लेकिन एक बात फिर भी हजम नही हो रही थी वो थी कहानी का एक ही जगह पर अटक जाना।
कहानी दो किरदारों के बीच ऐसे अटकी है कि उसे निगलने वाली कोई गोली भंसाली ने नहीं दी। अपन तो खिचखिच को विक्स के साथ दूर करने के आदी हैं। लेकिन भंसाली चूक गये। ऐसा लगता है कि फिल्म को म्यूजिकल टच देकर भंसाली ने ब्लैक में गाने न फिल्मा पाने की भड़ास निकाली है।
गाने मधुर हैं। दिलचस्प फिल्मांकन है। लेकिन हर पांच मिनट में अगर गाना आ जाये तो कानों मे तेल ड़ालने की नौबत आ जाती है। हर गाने पर आसपास बैठे लोगों की गालीगलौज से जी उकताया भी। फिर भी अपन झेल गये।
लेकिन फिल्म को मैं बुरा नहीं कहूंगा। देखने लायक है। सारी फिल्म में मुझे कपूर खानदान का दबदबा नज़र आया। बंदे(रणवीर) का नाम है रणवीर राज और बंदा जिस क्लब का लीड़ सिंगर है उसका नाम है आर.के बार। कहे बिना समझ आये तो वो कहना ही क्या? बंदे के नाम से लेकर काम में खानदानी ठाठबाठ है। ये अलग बात है कि बंदा गरीब है और अनाथ भी। लेकिन बंदा मस्त है। एक्टिंग भी मस्त है। शुरूआत में रणबीर का राजकपूर की तरह जी,जी करना और बाप ऋषि कपूर की तरह “तुमने कभी किसी से प्यार किया है” वाला संवाद बोलना आपको बताएगा कि क्यों करिश्मा और करीना के होने के बावजूद भी रणबीर भाई को कपूर खानदान का वारिस कहा जा रहा था।
फिर भी तमाम आलोचनाओं और बाज़ार मूल्य पर पिटने के बावजूद भी इस फिल्म ने रणवीर कपूर की प्रतिभा को उभारा है। आप उसे सुंदर चेहरे वाला मॉड़ल नहीं कह सकते। भले ही उसके नाचने में शशि कपूर और शम्मी कपूर झलकते हों , भले ही वो राजकपूर की तरह टोपी पहनता हो। फिर भी वो रोना,हंसना से लेकर तमाम बॉलीवुड़ नुमा मसालों से लैस है। हांलाकि बंदा कहीं कहीं ऋतिक रोशन की जाने-अनजाने में नकल भी कर गया है।
सोनम कपूर की अगर बात करें तो उन्हें अपने पिता अनिल से कुछ सीखना चाहिए। खासकर हंसना और रोना क्योंकि ये दोनों काम भी वो ठीक से नहीं कर पाई हैं। मासूमियत है। लेकिन मेकअप से पुती। हांलाकि भावहीन चेहरा उसका भी नहीं। थोड़ा और तराशने की जरुरत है। ..
फिल्म में मुगले-ए-आज़म की बेगम पारा भी हैं तो वहीं पृथ्वीराज कपूर के साथ काम कर चुकी ज़ौहरा सेहगल ने भी अपने जौहर बखूबी दिखाए हैं। सलमान खान और रानी मुखर्जी ने रोल और स्क्रिप्ट के मुताबिक अपना काम कर दिया है। रानी की लचक कायम है। खासकर वैश्याओं वाली लचक को मंगल पांड़े और लागा चुनरी में दाग में निभाने के बाद इस किस्म के किरदारों में उन्हें परेशानी नहीं होती।
अब बात संजय लीला भंसाली की। साहब हैं बड़े आदमी हैं। फिर भी मर्दों की प्यार के लिए कसक को समझते हैं। हम दिल दे चुके सनम , देवदास, खामोशी और सांवरिया में उनके नायक विरह में हैं। सोच अच्छी है। लेकिन दूर नहीं जाती। समाज के ताने-बाने में फिट नहीं होती। इसलिए इस बार सांवरिया को खारिज कर दिया गया। इंडियन आडियंस है भई। फिल्मी सीन में नायिका का भागना और नायक का उसे फॉलो करना देवदास के लिए फिल्माये गये दृश्यों को दुबारा ताज़ा करता है।
खैर अपन तो इतना ही कहेंगे कि अगर पॉपकॉन खाना है तो फिल्म मत देखिये। अगर किसी रचनाकार की कैनवस पर सजी म्यूजिकल पेंटिंग देखना चाहते हैं तो..सांवरिया हा हा हा.....बांवरिया..हा..हा हा हा.....





-तुषार उप्रेती

विस्थापन....


चाहे ,
पानी की लकीरों से खेलते
उकडूं से बैठ बच्चे हों

चाहे,
बांध के किनारे जुगाली के लिए
जमीन को तलाशती मवेशियों की आंखें।

दोनों ही इस बात से अनजान हैं,
कि सपना कहां बह गया

लेकिन इस गांव का हर वो आदमी जानता है,
जिसने जिंदा रहने की लड़ाई में खुद को गंवा दिया,
ये शायद कभी शहीद नहीं कहलाएंगें।

कभी,
यहां फसल लहलहाती थी,
बंटती थी मिठाइयां ,
जैसे कोई बाप बना हो....

अब,
विस्थापितों के लहूलूहान चेहरे
आप देख सकते हैं।

औरतों के गले यहां खराब हैं,
उनकी चीखें दिल्ली तक नहीं पहुंच सकी।
काका भी पिछले दिनों गुज़र गये
पानी पर तैरते राजनीति के आश्वासन का तिनका
भी उन्हें बचा न पाया।।....

धीरे धीरे समझ में आ रहा है
मानवीय विकास के मायने क्या होते हैं...

बावजूद इसके,
लोहे के दरवाज़ों के पीछे से
झांकता पानी कहना चाहता है-कुछ ।

कभी-कभी बुलबुला भी उठता है उसमें,
फिर तय नियति के अनुसार दम तोड़ देता है-वह
शायद वह जानता है ,
यहां से कभी कोई नायक पैदा नहीं हो सकता । ...


यह बात उन औरतों को देख समझ आती है,
जो अब खुलेआम बैठने में शर्म महसूस नहीं करती ,
कबूतर की तरह आंख मींच लेती हैं,
उन्होंने भी नियति मान लिया है स्थितियों को,

सामाजिक कार्यकर्ता अब
बौद्धिक जुगाली में मस्त हैं
मवेशियों के मीट की दुकान पर
झूलते पैर उनकी भूख मिटाते हैं....

इस बीच,
किनारे पर खड़ा होकर कोई सुन रहा है
अपनी जमीन की आवाज़ को,
हाथ में पत्थर लिये इंतज़ार में है,
उस दृश्य के जब पानी के बीचों-बीच
दागे गये पत्थर से निकली तरंगें
फैल जाएं हर दिशा की ओर........

(आप इस कविता को नवंबर अंक में वागर्थ पत्रिका में भी पढ़ सकते हैं। )
तुषार उप्रेती

मेरी प्रेरणा....


धीमे-धीमे से आती हो मेरे सीने में तुम
आकर दिल के भंवर में हिंडोले खाती हो तुम
मेरी प्रेरणा हो तुम
मेरी प्रेरणा हो तुम....

मैं नाज़रीन* हूं तुम्हारा
सुरम्य मेला हो तुम
वो बाग जहां शोख़-सब्ज़
कलियां खिलती हो
उस बाग की बागबां हो तुम..
* देखने वाला

मेरी प्रेरणा हो तुम
मेरी प्रेरणा हो तुम..

दीपावली की दीपमाला हो तुम
वो आतिश नज़ारा-ए-हरसू* हो तुम
रंगों में घुली मनहर होली हो तुम
सर्दी में तपती लोहड़ी हो तुम
* चारों ओर की आतिशबाज़ी

मेरी प्रेरणा हो तुम
मेरी प्रेरणा हो तुम..

हर दर्द में जो सुकून दे
वो मरमरी एहसास हो तुम
जिसकी मुझे दिली चाहत है
हां.. ऐसी ख़ास हो तुम

वो सौंधी सी महक
जो मेरा ही अंश है
वो शोशा*, वो महकती कस्तूरी हो तुम
* कोई विलक्षण बात

मेरी प्रेरणा हो तुम
मेरी प्रेरणा हो तुम...

मेरी भाषा, मेरा अलंकार
मेरा पर्याय, मेरा तख़ल्लुस*
मेरे ह्रदय का स्पंदन हो तुम
* कवियों का उपनाम जैसे असहदुल्लाह ख़ान का तख़ल्लुस 'ग़ालिब' था

मेरी प्रेरणा हो तुम
मेरी प्रेरणा हो तुम..

जिस प्रेरणा से पिरो सकूं
मैं कविताओं सरीखे मोती
मेरा कोई तस्सव्वुर
मेरा हर ख़्याल हो तुम
ऐसी प्रेरणा हो तुम
मेरी प्रेरणा हो तुम...


-पुनीत भारद्वाज

मैं भूल जाऊं तुम्हें.....JAVED AKHTAR



Song- मैं भूल जाऊं तुम्हें...
Lyricist- जावेद अख़्तर
Singer- जगजीत सिंह
Music- जगजीत सिंह
Album- सिलसिला







मैं भूल जाऊं तुम्हें अब यही मुनासिब है
मगर भूलाना भी चाहूं तो किस तरह भूलूं
के तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो कोई ख़्वाब नहीं
यहां तो दिल का ये आलम है
क्या कहूं..कम्बख़्त..
भूला सका ना ये वो सिलसिला जो था ही नहीं
वो इक ख़्याल जो आवाज़ तक गया ही नहीं
वो एक बात जो मैं कह नहीं सका तुमसे
वो एक रब्त* जो हममे कभी रहा ही नहीं
मुझे है याद वो सब जो कभी हुआ ही नहीं
अगर ये हाल है दिल का तो कोई समझाए
तुम्हें भूलाना भी चाहूं तो किस तरह भूलूं
के तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो कोई ख़्वाब नहीं
के तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो कोई ख़्वाब नहीं
के तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो कोई ख़्वाब नहीं
के तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो
कोई ख़्वाब नहीं...........
* रिश्ता

चैन से जी रहे थे मगर...


इधर से गुज़री जब हवा तो बहार दे गई
चैन से जी रहे थे हम इक ख़ुमार दे गई


इक दिन बैठे थे हम तन्हा
सोच रहे थे काग़ज़-क़लम लिए
किसी की यादें बांहों में आ गिरी
और इक अशआर(शेर) दे गई
इधर से गुज़री जब हवा तो बहार दे गई.....

जाते-जाते बेकल नज़रें ढूंढती रही..
गलियों के मोड़ पे आवारा घूमती रही..
इक पल की मुलाक़ात कैसा इंतज़ार दे गई


चैन से जी रहे थे इक ख़ुमार दे गई.....


-पुनीत भारद्वाज

सिलसिले.......

कुछ किस्से ऐसे होते हैं आपकी ज़िंदगी में.. जो लगता है पूरी दुनिया में सिर्फ आपके साथ ही हुए हों... एक ऐसा किस्सा मेरी 22 बरस की ज़िंदगी में मेरे साथ भी हुआ। लेकिन किस्सागोई के इस कॉलम में मैं वो क़िस्सा अपने ही अंदाज़ में बताना चाहूंगा।
एक लड़की थी जिससे तक़रीबन डेढ़ साल पहले तक सिर्फ़ फोन पर ही बातें होती थी.. और कुछ रोज़ पहले तक मैने इतने पुराने इस साथी का चेहरा भी नहीं देखा था। पता नहीं था मगर सोचता था आखिर कैसी है वो...ज्यादा नहीं दिनभर वो तभी याद आती थी जब उसका कोई एसएमएस या फिर फोन आता था। हमारे बीच बातों के ऐसे सिलसिले होते थे के मेरे करीबी दोस्त इस अजनबी और अनूठे से रिश्ते को लेकर मेरा मज़ाक तक उड़ाने लगे । मुझे पागल कहने लगे थे मेरे दोस्त। और तब मैने अपनी ये नाराज़गी अपने जाने-पहचाने से उस अजनबी दोस्त से भी की.. जिसकी आवाज़ ही बस एक पहचान थी मेरे लिए...

"अजब है ये सिलसिला
ना देखा तुम्हें ना तुमसे कभी मिला
जाने इस रिश्ते को क्या नाम देते हैं
यार मुझको सभी पागल कहते हैं..."


मगर ये सिलसिला कुछ रोज़ पहले ही टूट गया...उसकी बीमारी तो ठीक थी लेकिन उसकी अचानक मुझसे मिलने की बेकरारी मुझे अजब लगी। क्योंकि उसने वो कहा जिसकी गुज़ारिश इससे पहले हमारे रिश्ते में नहीं हुई थी। मेरी और उसकी तरफ से इससे पहले कभी मिलने की कोशिश नहीं की गई। मन तो तब भी नहीं था मिलने का..लेकिन जो दोस्त मुझे पागल कहते थे..उनके लाख कहने पर मुझे उस अजनबी मगर जाने-पहचाने दोस्त से और ज़्यादा जान-पहचान बढ़ाने हॉस्पिटल जाना ही पड़ा। हम तीन दोस्त बाईक से निकल दिए..और मुझे थोड़ा डर, थोडी खुशी हो रही थी और साथ ही इस बात को लेकर काफी हद तक सुकून था कि कुछ लम्हों के बाद मैं अपने दोस्तों के सामने सीना चौड़ा करके खड़ा होने वाला था। आखिर जिस शख़्स के लिए मेरे दोस्त मेरा मज़ाक उड़ाते थे.. मैं उसी शख़्स से मिलने वाला था। सफ़र ज्यादा लंबा नहीं था... लेकिन सफ़र लंबा लगने लगा। क्योंकि एक लंबा सिलसिला जो टूटने वाला था। इस बीच कई बार मुझे लगा कि आखिर ये सब जो मैं कर रहा हूं.. क्या वाकई ठीक है (तौल-मौल की आदत है..आखिर आम-इंसान जो ठहरा) तब एकबारगी मन तो करा कि वापिस लौट जाउं। मगर वही किस्मत, भाग्य, नियती, DESTINY वगैरह-वगैरह।
आखिरकार इतने कशमकश भरे सफ़र के बाद बाईक वहीं रूकी जो उसकी DESTINY थी...जहां उसे रूकना चाहिए था.. वो हॉस्पिटल जहां मेरी बीमार दोस्त मेरा इंतज़ार कर रही थी। बाईक गुडगांव के उसी हॉस्पिटल के आगे रूकी। रात के 10 बजे थे। सबकुछ बिल्कुल नया था मेरे लिए..इसलिए थोड़ी उलझनें भी थी मन में। और इस बीच उस कम्बख़्त कशमकश का क्या करें जो पूरे सफ़र में मेरी बाईक की पिछली सीट पर बैठी मेरे साथ चल रही थी.. फिर हावी होती गई मुझ पर । जैसे-जैसे मैं उस अंजान चेहरे के नज़दीक जा रहा था..बढ़ती जा रही थी उलझनें। और तब हद ये हो गई कि बीमार दोस्त के रूम के आगे कई बार जाकर वापिस लौटना पड़ा...क्या कहूं लाज केवल लड़कियों का ही सामान नहीं है। और फिर शर्म के मारे दोस्तों के सामने सीना चौड़ा करना तो दूर उनकी फब्तियां सुननी पड़ी। मन ही मन बैचेन दिल ने हौसला बढ़ाने के लिए दुष्यंत कुमार की कुछ पंक्तियां गुनगुना ली। लो अब तो वो होना ही था जो मैं करने आया था। सब बंदिशें हटाकर दरवाज़ा खोला और सीधा दीदार हुआ उस चेहरे का। चेहरा आम था लेकिन मुझे खुशी बेहद थी। इतनी खुशी थी के दिल में दबानी पड़ी और पूरा माजरा तब शायद मेरी नज़रें ही बयान कर रही थी।

आखिर इक साल से भी लंबा सिलसिला जो ठहर गया था। वो चेहरा जिसकी आवाज़ में कोई जादू था और वो जादू भरी आवाज़ जो बेशक्ल थी अब तक... हां उसका चेहरा मुझे जो मिल गया था। उन लम्हों ने एक सिलसिला तो खत्म कर दिया मगर उन लम्हों की मेहरबानी रही कि एक सिलसिला और शुरू हो गया है...जो पता नहीं कब खत्म हो। शायद हो... या शायद कभी भी ना हो...
-पुनीत भारद्वाज

मेरी रातें और तेरी बातें.....


तुझसे भी दिलक़श तेरी बातें लगती हैं
जैसे चांद से प्यारी चांदनी रातें लगती हैं

बातें तेरी इधर-उधर की
बातें तेरी जहान भर की

बातें तेरी जिनमें तेरा क़िस्सा रहता है और वो बातें भी जिनमें मेरा कोई हिस्सा रहता है

और बातों ही बातों में जब बढ़ जाती हैं तेरी-मेरी बातें

तब तेरे बाद भी मुझसे लड़ती है, झगड़ती हैं और अपनी बात मनवाने पर मजबूर करती हैं तेरी बातें

और तब ये तेरी मीठी और शरारती बातें कुछ इस तरह करती हैं मुझपे अपना असर

के तेरे होंटों से गिरकर मेरे कमरे में खनकते रहते हैं तेरे अल्फ़ाज़ रात-भर*


तब बस रह जाती है

मेरी रातें और तेरी बातें


-पुनीत भारद्वाज


*आखिरी लाइन दोस्त की एक लाइन से प्रेरित है, जज़्बातों के करीब लगी इसलिए लिया इसे..

क्या कहूं...

ख़ुशबू कहूं,
आफ़ताब कहूं,
या उजले कोसे में लिपटा ग़ुलाब कहूं......


कोई दुआ कहूं,
या नमाज़ कहूं,
या मंदिरों में गूंजती ख़ुदा की आवाज़ कहूं......


इक मुक़्क़म्मल ख़्याल कहूं,
या फिर कोई अधूरा सवाल कहूं,
या अरमानों से भी उंचा परवाज़* कहूं.....
* उड़ान


शोख़ अदा कहूं,
या मस्त अंदाज़ कहूं,
या फिर वक़्त से बेअसर कोई रिवाज़ कहूं....




तुम ही
बताओ मैं तुम्हें क्या कहूं...


-पुनीत भारद्वाज

बस अकेले हम थे....


चांदनी रातें भी थी
फूल भी थे
और बहारों के मौसम थे
ये हमारी क़िस्मत थी के बस अकेले हम थे....

सितारों का साथ भी था
ख़ुशबू कोई फ़िज़ा में थी
मग़र फिर भी कई ग़म थे
ये हमारी क़िस्मत थी के बस अकेले हम थे...

चांद भी बुझ गया
रात फिर ढल गई
तन्हाईयों के शोर में हाथ से निकल गई
और जो बाकी रहे वो सब क़िस्से नम थे
ये हमारी क़िस्मत थी के बस अकेले हम थे....



-पुनीत भारद्वाज

ख्वाब जो हकीकत न हुए…...


मेरे एक ख्वाब को चेहरा मिल गया है
जब से तुम मिले हो मौसम बदल गया है
ख्वाब जो देखे थे छत पर बादलों के नीचे
अब न जाने क्यों लगने लगा की आसमान खुल गया है ।

अब पता नहीं क्या करुं मैं
ख्वाब जो देखा था वो अब पिघल गया है।

जब से तुम को देखा मौसम बदल गया है।।…..

धूप की चादर पर सर रखकर सोया था मैं
अब लगने लगा है वक्त मुझे निगल गया
मेरे एक ख्वाब को चेहरा मिल गया है।
जब से तुम मिले हो मौसम बदल गया है....

आज बरसों बाद नींद आई थी
लेकिन शायद ख्वाब था ये भी
एक लम्हा न जाने क्यों तुम्हारी गोद मे संभल गया है
मेरे एक ख्वाब को चेहरा मिल गया है।
जब से तुम मिले हो मौसम बदल गया है...

पिरोया था आज मैंने जिसे सिरहाने
दगाबाज़ निकला ये ख्वाब भी
जबसे देखा इसने तु्म्हें ये भी मुझ सा फिसल गया है
मेरे एक ख्वाब को चेहरा मिल गया है
जब से तुम मिले हो मौसम बदल गया है....



तुषार उप्रेती

ये रात कितनी सुहानी लगती है.......



ये रात कितनी सुहानी लगती है
दिन में तो हर शै बेमानी लगती है

इक खोया-सा सुक़ून देती है
कोई दादी-नानी की कहानी लगती है
ये रात कितनी सुहानी लगती है..



आती है चली जाती है इक इंतज़ार में
कोई बावरी दीवानी लगती है
ये रात कितनी सुहानी लगती है...
चांद सितारों की जगमगाहटें
सच्चे शायर की ज़ुबानी लगती है


पल-दो-पल में ही ढ़ल जाती है
मुझको मेरी पेशानी लगती है

क़ैद करना चाहता हूं इसको
ये मुझको मेरी नादानी लगती है


ये रात कितनी सुहानी लगती है
दिन में तो हर शै बेमानी लगती है




-पुनीत भारद्वाज

ब्लू लाईन का बुलबुला.....

सुबह उठकर कुल्ला करके जैसे ही अपन ने अख़बार खोला तो होश उड़ गये। सारी रात दोस्तों के साथ एग, पेग, लेग के चक्कर में हम ये भूल गये थे कि कमबख्त इस देश और शहर के लिये अपनी भी कोई नैतिक जिम्मेदारी बनती है। इसलिए तो सुबह-सुबह हाजरी लगाने से पहले अख़बार खोल कर बैठ गये। सोचा था चाय की चुस्कियों के बाद पेट अंदर से ऐंठेगा (ऐसा रोज़ ही नियमित तौर पर होता था) और हम आराम से जायके के साथ मज़े लेते हुए ख़बरों से खेलेंगें। यही तो मज़ा है ख़बरों से खेलने का , सारा तंत्र समझता है कि केवल उसे ही ख़बरों से खेलना आता है। लेकिन सही मायनों में पाठक ख़बरों के खूब चटखारे लेता है। आप उसे बताएं कि कालाहांड़ी में बच्चे भूख से मर रहे हैं और वो तो शिल्पा शेट्टी के फिगर को ताड़ रहा होता है। जब तक आप उसे ये बताते हैं कि दिल्ली में ब्लू – लाईन ने सात लोगों को एक ही झटके में कुचल डाला तब तक वो हाजरी लगाने चला जाता है।
लेकिन अब भला इस कमबख़्त नज़र से कौन सी खबर कहां छिपी है। जो अब छिपेगी। इसलिय़े हमारी भी नज़र पड़ गई एक ऐसे कार्टून पर जो हमें नहीं देखना चाहिए था। कार्टून कुछ ऐसा था कि ब्लू-लाईन बस लोगों को उनके घरों में घुस-घुस कर रौंद रही है और साथ में caption लिखा हुआ है….Still Searching for more victims….अपने तो हलक में निवाला ही अटक गया। रोज़ सुबह ब्लू लाईन हादसों की खबरें पड़ना आम बात थी। लेकिन इस एक अदद कैप्शन को पढ़ कर ऐसा लगा जैसा ब्लू लाईन मेरी कॉलोनी में घुस कर मेरा पता पूछ रही है। वैसे भी ब्लू लाईन को अगर सामने से बेतरतीबी से आते हुए आपने देखा हो तो उस पर अदृश्य अक्षरों मे लिखा पाया होगा। रौंद दूंगी। ठीक वैसे ही अदृश्य अक्षर जो हमारी सरकार के मुंह पर लिखे होते हैं जिन्हें पढ़ने में हमे पूरे पांच साल लग जाते हैं। खैर गलती अपनी भी नहीं। पढ़ने-लिखने का शौक कभी था भी नहीं। और सरकार की मिड़ डे मिल योजना तो पहले ही फेल हो चुकी है। इसलिए लालच भी नहीं रहा।
घबराइये नहीं बात अगर ब्लू लाईन की है तो हम उसी की बात करेंगे। मुझे याद है दिल्ली में ये बसें लाल रंग के साथ शुरु की गई थी और काफी हादसों के बाद ये फैसला लिया गया कि इसका रंग अशुभ है इसलिये इसे लाल से नीला कर दिया जाये तो हादसे कम हो जाएंगे। भई सरकार है लाजिक से नहीं समर्थन से चलती है। बच्चों को न्यूटन लॉ भले ही आज तक न समझा पाई हो लेकिन ये जरुर समझा देगी कि बस का रंग लाल से नीला कर देने से हादसे कम हो जाते हैं। खुद के मुंह में कालिख पुतने से तो अच्छा है कि बस पर नया रंग पोत दो। अभी भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। अब सरकार डीटीसी के भरोसे चलेगी।

-तुषार उप्रेती

मामाजी......

उस दिन अचानक कई खौफ एक साथ मेरे ज़ेहन में लौट आये। मैं आज पूरे तीन सालों बाद उसी के इलाके में खड़ा था। लोग अनजाने चेहरों से ड़रते हैं। लेकिन मेरी खासियत है कि मुझे जाने-पहचाने चेहरों से ड़र लगता है।
यही जगह थी। यही पार्क था। जहां आखिरी बार मैंने उसे देखा था। उस दिन भी उसे कुछ कह न पाया। वो जानती थी। मैं जानता था। सिर्फ अल्फ़ाज़ तलाशने में देरी हो गई और पता ही न चला जिंदगी कब मेरी गिरफ्त से निकल भागी। वक्त, वक्त को धकेल कर जैसे आगे बढ़ जाता है। ठीक वैसे ही आज घुम-फिर के जिंदगी ने वहीं ला पटका। जेब से फोन निकाला। ड़रते-ड़रते नंबर मिलाया। ऊंगलियां पहले से ही अपने प्रेमी नंबर से वाकिफ थी। अचानक से उससे जा लिपटी। और टेलिफोन की घंटी बजती चली गई।
‘हैलो’..।ओफ्फ ..वही मासूम आवाज़। ‘मैं बोल रहा हूं’..फिर कुछ देर चुप्पी छा गई।
ये जानने के लिए कि कहीं फोन का नेटवर्क जिंदगी की तरह द़गा न दे गया हो। मैंने चुप्पी को तोड़ते हुए कहा.. ‘पहचाना’ जवाब मिला ‘हां’।
ये लड़की बिल्कुल नहीं बदली। कभी कभी सोचता हूं प्यार की फितरत होती है, न बदलना।फिर वही रटे-रटाये मुहावरे जेहन में कौंधते हैं कि ‘जिंदगी परिवर्तन का नाम है’, ‘पानी की तरह बह जाती है’ वगैरह वगैरह। तो लगता है शायद बदल गई हो।
‘तुम्हारे इलाके मे खड़ा हूं मिलोगी मुझसे’ बिना कांफिडेंस के कहा तो डर सा लगा।
जवाब मिला ‘हां’
‘कहां’-मैंने पूछा।
‘वहीं जहां पहले मिलते थे’

वहीं जहां पहले मिलते थे। उसके इन शब्दों का मतलब मैं बखूबी जानता हूं। उसके इलाके में गलियों को निगलने वाली एक सड़क बनाई गई थी। वहीं पर पास में एक चाट-भंड़ार था। अक्सर वहीं मिलना हुआ करता था।

कुछ और कहने की हिम्मत न मुझमें थी, न उसमें। तो वक्त तय करके मैं अपना आफिशियल काम निबटाने चला गया।
..दिन के तीन बज चुके थे। इसलिए सड़क पर रिक्शा नहीं मिल रहा था। सबके सब कमबख्त सुस्ता रहे थे। ओटो पकड़ा और तयशुदा जगह पहुंचा।
वो पहले से मौजूद थी। मैं भी जाकर उसके साथ खड़ा हो गया। वो बोल रही थी मैं सुन रहा था। लेकिन शायद नहीं सुन रहा था। जब बातें अपनी मंजिल तक पहुंचने लगती तो मैं किसी पुराने किस्से को खोल बातों का रुख उस ओर मोड़ देता। पागल था, मैं। रेत को मुट्ठी में ज़ोर से दबाने से क्या वो आपकी हो जाती है। बातों मे सिर्फ इतना जान पाया कि वो अब शादीशुदा है। एक दो साल की छोटी बच्ची की मां भी है। लेकिन लगा बिल्कुल नहीं। वर्किंग वुमेन है न , शायद इसीलिये। किस्सों को ब्रेक लगा तब,जब एक आदमी ने उसका नाम पुकारा...अराधना....। कितना बेसुरा था उस मुंह से ये नाम। मैंने तो हमेशा इसे इबादत की तरह सुना था, पर ये क्या?
एक बंदा हमारे सामने खड़ा था। कहने की जरुरत नहीं वो उसका पति था। सारी बेफिक्री काफूर हो गई। मैंने थोड़ी देर के लिए खुद को जकड़न में पाया। पहला सवाल जो उस शख्स ने अपनी बीवी से नहीं मुझसे पूछा ...अमित राइट? यस , मैंने एक नकली मुस्कराहट से कहा।…. ‘तो जनाब आप हैं जो हमारी मोहर्तमा को कॉलेज में सताया करते थे’… बंदा बेबाकी से बोल गया। आखिर क्यों सताते थे इन्हें इतना?
‘अगर सताता नहीं तो मुझसे शादी न कर लेती आपसे क्यों करती?’ मैंने कुछ सहज होते हुए कहा।
फिर क्या था? जब इस इलाके में आया तो अकेला था,फिर दुकेला हुआ और अब तिकेला हो चुका था। यहां वहां की बाते हुईं। ठहाके लगे। बीच-बीच में कई बार चुप्पियों भी आईं। लेकिन कहते हैं न कि खून के रिश्ते समेटने आसान होते हैं। बेनाम रिश्ते समेटने बेहद मुश्किल। काफी देर तक वहीं खड़े रहे। रात हो चुकी थी। सड़क के कुत्ते ने भौंख कर हमें बताया कि अब राहगीरों का समय खत्म हो चुका है। मैंने भी दोनों मियां-बीवी से इज़ाज्त चाही। आगे बढ़ने ही वाला था कि उसके पति ने कहा...
‘ घर पर वान्या अकेली है। बहुत शरारती है। अगली बार आयें तो घर आइएगा। वो भी इसी बहाने अपने मामाजी से मिल लेगी’.. कुछ पल के लिए ऐसा लगा जैसे किसी ने कोई अल्फ़ाज ज़मीन पर ज़ोर से पटक कर मेरे सर पर दे मारा हो।
हां,हां जरुर। कहता मैं आगे बढ़ गया। रास्ते में याद आया कि मेरे पास घर का पता तो है नहीं।
खैर मैं आगे बढ़ता जा रहा था । उसका इलाका पीछे छूटता जा रहा था। सारे इलाके में एक ही शब्द था जो गूंज रहा था, वो था मामाजी।............




तुषार उप्रेती.....

इशारे......





अब गलियां नहीं है, इसलिए नहीं है इशारे।
इशारे जो बिन अल्फ़ाज़ों के काफी कुछ कह जाते थे।

इशारे जिनके दम पर तुम ,

दूर होकर भी पास रह जाते थे।


इशारे जो झुकती नज़रों की तारीफ करते थे,
इशारे जो छज्जों से कूद मरते थे।



कोई हवा गर निकलती थी गली से

उन्हें चौखट पर चूम लेते थे इशारे।



इशारे जो जवानी की कहानी थे,

इशारे जो आंखों की ज़बानी थे।




इशारों ने एक दिन दिल की जुबां बयां कर दी
सारी दुनिया अपने खिलाफ कर दी




सुनते हैं उस दिन नालियों मे खून बहा था

शायद सबने ठीक कहा था

उस दिन बाज़ार में सरेआम निलाम हुए थे इशारे
कोई गली से पकड़कर खींच लाया था उन्हें बाहर

न जाने कौन था वो कायर

जो इशारों से जी चुराता था
जो दूर से ही इनके हालात पर मुस्कुराता था



लेकिन अब गलियां नही हैं न हैं वो इशारे

जो कुछ थे हमारे, कुछ थे तुम्हारे














तुषार उप्रेती

मैने दिल से कहा..... NEELESH MISRA




Song- मैने दिल से कहा...


Lyricist- नीलेश मिश्रा
Singer- के.के
Music- एम.एम. क़रीम
Film- रोग


मैने दिल से कहा ढूंढ लाना ख़ुशी
नासमझ लाया ग़म तो ये ग़म ही सही


बेचारा कहां जानता है
ख़लिश है ये क्या ख़ला है
शहर-भर की ख़ुशी से ये दर्द मेरा भला है
जश्न ये रास ना आए
मज़ा तो बस ग़म में आया है


मैने दिल से कहा ढूंढ लाना ख़ुशी
नासमझ लाया ग़म तो ये ग़म ही सही

कभी है इश्क़ का उजाला
कभी है मौत का अंधेरा
बताओ कौन भेस होगा
मैं जोगी बनूं या लुटेरा
कई चेहरे है इस दिल के
ना जाने कौन सा मेरा


मैने दिल से कहा ढूंढ लाना ख़ुशी
नासमझ लाया ग़म तो ये ग़म ही सही
हज़ारों ऐसे फ़ासले थे
जो तय करने चले थे
राहें मगर चल पड़ी थी
और पीछे हम रह गए थे
क़दम दो-चार चल पाए
किए फेरे तेरे मन के


मैने दिल से कहा ढूंढ लाना ख़ुशी
नासमझ लाया ग़म तो ये ग़म ही सही

क्या मुझे प्यार है... NEELESH MISRA


Song- क्या मुझे प्यार है...
Lyricist- नीलेश मिश्रा
Singer- के.के

Music- प्रतीम चक्रबर्ती
Film- वो लम्हें




क्यूं आजकल नींद कम ख़्वाब ज़्यादा है
लगता ख़ुदा का कोई नेक इरादा है
कल था फ़क़ीर आज दिल शहज़ादा है
लगता ख़ुदा का कोई नेक इरादा है
क्या मुझे प्यार है या
कैसा ख़ुमार है या
क्या मुझे प्यार है या
कैसा ख़ुमार है या



पत्थर के इन रस्तों पे
फूलों की इक चादर है
जबसे मिले हो हमको
बदला हर इक मंज़र है
देखो जहां में नीले-नीले आसमां तले
रंग नए-नए हैं जैसे घुलते हुए
सोए से ख़्वाब मेरे जागे तेरे वास्ते
तेरे ख़्यालों से है भीगे मेरे रास्ते
क्या मुझे प्यार है या
कैसा ख़ुमार है या

क्या मुझे प्यार है या
कैसा ख़ुमार है या


तुम क्यों चले आते हो
हर रोज़ इन ख़्वाबों में
चुपके से आ भी जाओ
इक दिन मेरी बाहों में
तेरे ही सपनें अंधरों में उजालों में
कोई नशा है तेरी आँख के प्यालों में
तू मेरे ख़्वाबों में जवाबों में सवालों में
हर दिन चुरा तुम्हें मैं लाता हूं ख़्यालों में
क्या मुझे प्यार है या
कैसा ख़ुमार है या
क्या मुझे प्यार है या
कैसा ख़ुमार है या