अजीब शहर...


कैसा अजीब है ये शहर
यहां शाम हो या दोपहर
चीखें इमारतों से टकराती हैं
हर आह यहां गम से पहले ही जमींदोज़ हो जाती हैं

पंछियों के साये यहां छोटे लगते हैं
रिश्ते सिक्कों से खोटे लगते हैं
आवाजें अपनों तक नहीं पहुंचती
जिंदगी यहां सिर्फ अपने ही बारे में है सोचती

लोग तस्वीरों में यहां तकदीरें तलाशते हैं
फिर हताश से गांव लौट जाते हैं।
रेलगाड़ियों के धुएं मे उड़ जाते हैं सारे ख्वाब
जब ये शहर करता है खुद को बेनकाब।....



तुषार उप्रेती

2 टिप्‍पणियां:

DIGVIJAY SINGH ने कहा…

सुंदर कविता

बेनामी ने कहा…

bade shehro ki badi kahaaniya,
aapne bahut sundar shabdo me dhaala h is shehar ki naakamiyo ko par
kisi k khwaab todta h to kisi k i zindagi banata bhi to h na yehi shehar?!!
No doubt poem is nice!!!