सांवरिया का बांवरिया ....





हौसला तो पहले ही पस्त हो चुका था। फिर भी सांवरिया देखने की हिम्मत जुटाई क्योंकि पी.वी.आर का डेढ़ सौ वाला टिकट हमारे बॉस ने खरीद दिया । और दोनों गुरू चेला पहुंच गए भंसाली का ब्लू मैजिक देखने। पहली नज़र मे कहूं तो कमाल के सेट्स और सिनेमाटोग्राफी है। पहली नज़र मे जिस शहर से वास्ता हुआ वो फेयरीटेल की दुनिया का कोई शहर लगा। अपन झेल गये। फिर जब शहर की झलक मिली तो वो अलादिन के कार्टून का रुमानी शहर आग्रबां लगा। आंखें चौंधियाई। एक बार फिर रणबीर ने जब सोनम के साथ गाना गाया तो लगा ये भारत में बसे वैनिस का दृश्य है। जहां गौंड़ोलाज़ चलते हैं। अपन हज़म कर गये। लेकिन एक बात फिर भी हजम नही हो रही थी वो थी कहानी का एक ही जगह पर अटक जाना।
कहानी दो किरदारों के बीच ऐसे अटकी है कि उसे निगलने वाली कोई गोली भंसाली ने नहीं दी। अपन तो खिचखिच को विक्स के साथ दूर करने के आदी हैं। लेकिन भंसाली चूक गये। ऐसा लगता है कि फिल्म को म्यूजिकल टच देकर भंसाली ने ब्लैक में गाने न फिल्मा पाने की भड़ास निकाली है।
गाने मधुर हैं। दिलचस्प फिल्मांकन है। लेकिन हर पांच मिनट में अगर गाना आ जाये तो कानों मे तेल ड़ालने की नौबत आ जाती है। हर गाने पर आसपास बैठे लोगों की गालीगलौज से जी उकताया भी। फिर भी अपन झेल गये।
लेकिन फिल्म को मैं बुरा नहीं कहूंगा। देखने लायक है। सारी फिल्म में मुझे कपूर खानदान का दबदबा नज़र आया। बंदे(रणवीर) का नाम है रणवीर राज और बंदा जिस क्लब का लीड़ सिंगर है उसका नाम है आर.के बार। कहे बिना समझ आये तो वो कहना ही क्या? बंदे के नाम से लेकर काम में खानदानी ठाठबाठ है। ये अलग बात है कि बंदा गरीब है और अनाथ भी। लेकिन बंदा मस्त है। एक्टिंग भी मस्त है। शुरूआत में रणबीर का राजकपूर की तरह जी,जी करना और बाप ऋषि कपूर की तरह “तुमने कभी किसी से प्यार किया है” वाला संवाद बोलना आपको बताएगा कि क्यों करिश्मा और करीना के होने के बावजूद भी रणबीर भाई को कपूर खानदान का वारिस कहा जा रहा था।
फिर भी तमाम आलोचनाओं और बाज़ार मूल्य पर पिटने के बावजूद भी इस फिल्म ने रणवीर कपूर की प्रतिभा को उभारा है। आप उसे सुंदर चेहरे वाला मॉड़ल नहीं कह सकते। भले ही उसके नाचने में शशि कपूर और शम्मी कपूर झलकते हों , भले ही वो राजकपूर की तरह टोपी पहनता हो। फिर भी वो रोना,हंसना से लेकर तमाम बॉलीवुड़ नुमा मसालों से लैस है। हांलाकि बंदा कहीं कहीं ऋतिक रोशन की जाने-अनजाने में नकल भी कर गया है।
सोनम कपूर की अगर बात करें तो उन्हें अपने पिता अनिल से कुछ सीखना चाहिए। खासकर हंसना और रोना क्योंकि ये दोनों काम भी वो ठीक से नहीं कर पाई हैं। मासूमियत है। लेकिन मेकअप से पुती। हांलाकि भावहीन चेहरा उसका भी नहीं। थोड़ा और तराशने की जरुरत है। ..
फिल्म में मुगले-ए-आज़म की बेगम पारा भी हैं तो वहीं पृथ्वीराज कपूर के साथ काम कर चुकी ज़ौहरा सेहगल ने भी अपने जौहर बखूबी दिखाए हैं। सलमान खान और रानी मुखर्जी ने रोल और स्क्रिप्ट के मुताबिक अपना काम कर दिया है। रानी की लचक कायम है। खासकर वैश्याओं वाली लचक को मंगल पांड़े और लागा चुनरी में दाग में निभाने के बाद इस किस्म के किरदारों में उन्हें परेशानी नहीं होती।
अब बात संजय लीला भंसाली की। साहब हैं बड़े आदमी हैं। फिर भी मर्दों की प्यार के लिए कसक को समझते हैं। हम दिल दे चुके सनम , देवदास, खामोशी और सांवरिया में उनके नायक विरह में हैं। सोच अच्छी है। लेकिन दूर नहीं जाती। समाज के ताने-बाने में फिट नहीं होती। इसलिए इस बार सांवरिया को खारिज कर दिया गया। इंडियन आडियंस है भई। फिल्मी सीन में नायिका का भागना और नायक का उसे फॉलो करना देवदास के लिए फिल्माये गये दृश्यों को दुबारा ताज़ा करता है।
खैर अपन तो इतना ही कहेंगे कि अगर पॉपकॉन खाना है तो फिल्म मत देखिये। अगर किसी रचनाकार की कैनवस पर सजी म्यूजिकल पेंटिंग देखना चाहते हैं तो..सांवरिया हा हा हा.....बांवरिया..हा..हा हा हा.....





-तुषार उप्रेती

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