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अब गलियां नहीं है, इसलिए नहीं है इशारे। इशारे जो झुकती नज़रों की तारीफ करते थे, इशारे जो छज्जों से कूद मरते थे। कोई हवा गर निकलती थी गली से उन्हें चौखट पर चूम लेते थे इशारे। इशारे जो जवानी की कहानी थे, इशारे जो आंखों की ज़बानी थे। इशारों ने एक दिन दिल की जुबां बयां कर दी सारी दुनिया अपने खिलाफ कर दी सुनते हैं उस दिन नालियों मे खून बहा था शायद सबने ठीक कहा था उस दिन बाज़ार में सरेआम निलाम हुए थे इशारे कोई गली से पकड़कर खींच लाया था उन्हें बाहर न जाने कौन था वो कायर जो इशारों से जी चुराता था जो दूर से ही इनके हालात पर मुस्कुराता था लेकिन अब गलियां नही हैं न हैं वो इशारे जो कुछ थे हमारे, कुछ थे तुम्हारे |
तुषार उप्रेती
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