नीली आसमानी छतरी...ब्लू अंब्रेला

गैंगस्टरों के जीवन पर फिल्म बनाना , हॉकी क्रिकेट पर फिल्म बनाना या फिर लव स्टोरी को कैमरे से गूंथना मुंबईया फिल्म इंडस्ट्री को बखूबी आता है। लेकिन एक छतरी जैसी बेहद साधारण चीज़ को केंद्र में रखकर एक मनोरंजक फिल्म बनाने के लिये सबसे पहले तो जिगरा चाहिये। फिर अगर फिल्म बच्चों के कोमल मन की भावनाओं को उकेरती हो तो ये बाढ़ में कागज़ की कश्ती तैराने जैसा होगा। इसलिए सबसे पहले तो विशाल भारद्वाज के हौंसले की तारीफ करनी होगी जिनकी विषय की बारिक समझ ने न सिर्फ जोखिम उठाया बल्कि एक उम्दा फिल्म भी बनाई। वैसे कैमरे के काव्यलोक में समाने के लिये तो रस्किन बांड ने अपनी कहानी में पहले ही काफी गुंजाइश छोड़ रखी थी। जिसका फायदा विशाल को सीधा मिला । लेकिन उसे भारतीयता के जामे में कैसे पिरोया जा सकता है ये कोई विशाल से सीखे। खैर ब्लू अंब्रेला साहित्य को कैमरे में उतारने की तमाम संभावनाओं के साथ फिल्माई गई है। बशर्ते आप उसे एक रसिया की दृष्टि से देखें न कि समीक्षक की। हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी इलाके में छोटी हसरतों के साथ जीता जागता एक बड़ा गांव। यहां ये समझना बेहद मुश्किल है कि बड़े यहां बच्चे हैं या बच्चे अपनी तमाम शरारतों के बावजूद बड़े हो चुके हैं। कम से कम ब्लू अंब्रेला देखकर तो यही लगा। जहां एक सौ चौंसठ रुपयों की एवज में गांव की एक मात्र परचून की दुकान का मालिक खतरी बच्चे की दूरबीन मार लेता है। तो वहीं फिल्म के अंत में बिनिया(श्रेया शर्मा) का खतरी(पंकज कपूर) को अपनी छतरी देना बच्चों के संवेदनशील मन की ओर सीधा इशारा है। खैर फिल्म में इसके अलावा भी बहुत सी दिलचस्प गुस्ताखियां हैं जो कुछ पल के लिये ही सही पर दर्शक को गुदगुदाती हैं और पहाड़ी जीवन पर उसकी समझ की गुत्थियों को सुलझाती हैं। जैसे पहाड़ों पर जीविका कमाने के लिये पर्यटन का होना आम बात है लेकिन उस पर्यटन को किसी खास दुकान तक खींच कर लाना एक बिज़नेस माइंड है। जिसमें दुकानदार और हाईवे से गुजरने वाली बसों के कंडक्टर बराबर के भागीदार हैं।
खैर फिल्म में जैसे दृश्यों को फिल्माया गया है वो प्रकृति कैमरे में कैद करने का नया व्याकरण रच गया है। रही बात अभिनय की तो पंकज कपूर की प्रतिभा को परखने के लिये आज तक कोई यंत्र बना ही नहीं। पहले चालाक दुकानदार और बाद में गांव द्वारा बहिष्कृत होने के किरदार को उन्होंने बखूबी जिया है। बाल कलाकार के रुप में श्रेया शर्मा में अभिनय की असीम संभावनाएँ तलाशी जा सकती हैं। गुलज़ार को तो वैसे भी चड्डी पहन के फूल खिला है लिखने की वजह से बच्चों की नब्ज़ पकड़नी आती है इसलिये इस फिल्म में भी गाने काफी अच्छे हैं। जो मस्ती और चुलबुलेपन को बरकरार रखते हैं। खैर फिर भी जो लोग ये कहते हैं कि भारत में बच्चों के लिये फिल्में नहीं बनती है उन्हें इस फिल्म के सर्वश्रेष्ठ बाल फिल्म के राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने से जलन हो सकती है।


- तुषार उप्रेती

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