मुआं कहीं का...


अजब सा मर्ज़ है.. ना दवा लगती है, ना दुआ....
ये दिल साला ख़ुदगर्ज़ है, ना जाने इसे क्या हुआ...

आवारा राहों पे निकल पड़ता है
खुद-ब-खुद ही चलता है
दिमाग से हरदम लड़ता है
बेबाक है, अल्हड़ है, बावला है मुआं....

ख्वाबों की खान है
असलियत से अंजान है
खुराफाती है, मगर इंसान है
जब जलता है तो छोड़ता है धुआं...

अजब सा मर्ज़ है.. ना दवा लगती है, ना दुआ....
ये दिल साला ख़ुदगर्ज़ है, ना जाने इसे क्या हुआ...

- पुनीत भारद्वाज

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

badia likha hai.