ये वो सहर तो नहीं...एक थी हॉकी..


अब फिर से सारा देश मुंह फुलाएगा..खिलाड़ियों को कोसेगा..फेडरेशन को गलियाएगा...ध्यानचंद दादा कि याद में टेसुए बहाएगा..इसी बहाने सही पर जनाब लोगों को हॉकी की याद तो आएगी..पता तो चलेगा कि एक खेल है जो राष्ट्रीय होने का दम भरता है..वैसे परिवर्तन प्रकृति का नियम है तो जानकारों को समझना चाहिए कि झुके हुए कंधों के साथ अपन कब तक ये बोझ सहेंगे..ऐसे में कोई ये सुझाव दे डाले कि इस देश का राष्ट्रीय खेल क्रिकेट होना चाहिए तो अचरज नहीं होगा..क्योंकि यहां का नियम,नीयत और नियति तीनों क्रिकेट है..आप सोचेगें कि अपन भी उसी बेहस के वक्ता हैं जो क्रिकेट बनाम हॉकी पर बोलना पसंद करते हैं..लेकिन हुजूर आप खुद ही सोचिए कि जब किसी चीज़ का खात्मा हो जाए तो परिवर्तन होना लाज़मी है..उदाहरण के लिए मान लीजिए कल को बाघ खत्म हो जाते हैं जो हाशिए पर हैं..कुछ चैनल तो बाघ बचाओ का नारा भी दे बैठे हैं..तब आप क्या करेंगे?क्या तब भी आप बाघ हमारा राष्ट्रीय पशु है कि लकीर पीटते रहेंगे..ऐसे में समझदारी यही है कि सड़कों पर आवारा से घुमने वाले कुत्तों को राष्ट्रीय पशु घोषित किया जाए...
इसी तरह हॉकी के खत्म होने से पहले कुछ जुगाड़ करलें तो अच्छा होगा..फजीहत से बचा जा सकेगा..वैसे भी 80साल में पहली बार ओलंपिक के लिए क्वालिफाई करने में नाकाम होने के बाद अपने पास कोई खास ऑप्शन तो बचा नहीं..न ही क्रिकेट की तरह यहां कोई शाहरुख खान पूरी की पूरी टीम की बोली लगाने वाला है..यानी अब इससे बुरा क्या होगा..भले ही खिलाड़ियों को ऐस्ट्रो-टर्फ पर खेलने को न मिले, भले ही अपने पास सपोर्ट स्टॉफ की कमी हो, भले ही अपन हॉकी से ज्यादा खुद की कुर्सी को लेकर चिंतित हों..एक सर्वे बताता है कि भारतीय खिलाड़ी 18-19 साल की उम्र में जब एस्ट्रो टर्फ पर खेलना शुरु करता है..तब तक पोलैंड समेत कई देशों के बच्चे एस्ट्रो-टर्फ पर हज़ार से भी ज्यादा मैच खेल चुके होते हैं..ये हाल सिर्फ हॉकी का ही नहीं है बल्कि अभी कुछ दिनों पहले बैडमिंटन के खिलाड़ियों को शटलकॉक की कमी की वजह से काफी दिक्कतें आई थी..समरेश जंग जैसे हाई लेवल के शूटर को सरकार एक बढ़िया पिस्टल तक मुहैया नहीं कराती.. ऐसे में हॉकी के अलावा बीजिंग ओलंपिक में बाकी खेलों का क्या हाल होगा ये तो हम देखेंगे ही..नहीं देखेंगे तो 8 बार ओलंपिक विजेता भारतीय टीम के जौहर जो हार के बावजूद सुर्खयां तो बटोरती थी..अब जब खेलना ही नहीं है तो खबरों की दुनिया में गुम हो जाने का खतरा बराबर बना रहेगा..कई बार ताज्जुब भी होता है कि एक छोटा सा आर्टिकल चक दे इंडिया जैसी फिल्म का आइडिया दे जाता है..लेकिन इतनी बड़ी हार के बावजूद भी हॉकी फेडरेशन के कान पर जूं तक नहीं रेंगती..ये वो सहर तो नहीं जिसकी हमने कल्पना कि थी..गिल साहब आप सुन रहे हैं न..वैसे गिल को गाली देना वैसा ही है जैसा अफ्रीका के जंगलों मे अफ्रीकी करते हैं..ये पहले किसी इंसान को बारिश का देवता बनाते हैं..उसे सम्मान देते हैं..और जब बारिश नहीं होती तब उसे राजगद्दी से उतारकर जूते मारते हैं..हम भी तो कुछ ऐसा ही करते हैं..1994 में गिल के आने के बाद से 15 कोच बदले जा चुके हैं..लेकिन हॉकी अब भी हाशिए पर है..गिल को भी भगाकर देख लें..हालात ज्यादा सुधरने वाले नहीं..लेकिन इतना तो तय है कि गिल को अब जाना चाहिए..पहले ही पूर्व खिलाड़ी आईएचएफ को भंग करके एडहॉक कमेटि बनाने की मांग कर चुके हैं..इससे ज्यादा बुरा अब क्या होगा..

तुषार उप्रेती

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