बंदूकें इतनी बिक गई हैं बाज़ारों में...























आंखें बंद करता हूं तो बेज़ुबान अंधेरा नज़र आता है...
आंखें खोलता हूं तो ख़ौफ़ का चेहरा नज़र आता है

शहर की फ़िज़ाओं में रंजिशें कुछ यूं घुल गई हैं...
अब तो महकता गुलशन भी वीरान सहरा नज़र आता है..

बंदूकें इतनी बिक गई है बाज़ारों में..
के अब तो सांसों पे भी किसी का पहरा नज़र आता है...

- पुनीत भारद्वाज


1 टिप्पणी:

Dushyant ने कहा…

bahut achchhe bhai bahut achhhe bandukein itni bik gayee hain......simply superb....