ROCK ON...


कुछ किताबें जिंदगी में अधूरी छूट जाती हैं..वक्त की हवा के साथ जब भी उस किताब के पन्ने फड़फड़ाते हैं तो हर किसी को यही लगता है कि अगर उसने ये किताब पूरी पड़ी होती तो शायद आज कहानी कुछ और होती....बतौर निर्देशक अभिषेक कपूर ROCK ON से पहले आर्यन नाम से बॉक्सिंग पर एक फिल्म बना चुके हैं...उसका हाल क्या हुआ था...ये बताने की जरुरत नहीं...लेकिन इस बार जेसन वेस्ट के कमाल के कैमरा वर्क के साथ अभिषेक ने ROCK ON से एक नई जमीन तैयार की है...हॉलीवुड में रॉक की दिवानगी को लेकर कई फिल्में बनी हैं जिसमें JAck BlacK की कॉमेडी फिल्म School of ROck जैसी हलकी-फुलकी फिल्मों की भी लंबी कतार है...लेकिन मुंबईया इंडस्ट्री में 1960 के दशक से THE BEATLES और ROLLING STONES का असर दिखना शुरु हो गया था...ये रॉक बैंड अपने आप में कैसे क्रांतिकारी आंदोलन बन गये...इसे ROCK ON देखने का बाद ज्यादा समझा जा सकता है..क्योंकि ये पहली भारतीय फिल्म होगी जो रॉक के जुनून और उसके जोश की कहानी को आधार बना कर तैयार की गई है...चार दोस्त..रॉक का जुनून..जीत की भूख..कामयाबी का नशा..तकरार..प्यार..दोस्ती..फ्लैशबैक..औऱ भी न जाने कितने शब्द इस फिल्म की जमीन को तैयार करने में काम आये होंगे...लेकिन किसी भी फिल्म में निर्देशक के सपने को नई शक्ल देते हैं उसके अभिनेता...औऱ ROCK ON में ये काम किया है अर्जुन रामपाल(joe)..ल्युक कैनी(rob) ...पूरब कोहली(kd)...प्राची देसाई(sakshi)..शहाना गोस्वामी(debbie) और फरहान अख्तर ने...(aditya shroff)
हर किरदार यहां अपनी जिंदगी से लड़ रहा है Joe Mascarenhas(अर्जुन रामपाल) को सिर्फ गिटार बजाना आता है..और कुछ नहीं आता सिर्फ यही एक किरदार है जो पूरी फिल्म में शुरु से आखिर तक संघर्ष करता रहता है...संगीत के लिए..संगीत के साथ..वो सही मायनों में कलाकार है...बाकी सब अपनी जिंदगी से समझौता कर लेते हैं...ROB (ल्युक कैनी) एक संगीतकार के हाथ के नीचे काम करने लगता है...ADITYA (फरहान अख्तर) एक सफल बिजनैस मैन बन जाता है..तो वहीं KD( पूरब कोहली) अपने पिता की ही दुकान का नौकर हो जाता है...हर कोई एक खामोश जिंदगी जी रहा है...औऱ 10 साल पुरानी जिंदगी की परछाई से बाहर आना चाहता है...जब उनका एक बैंड था...अपना संगीत था..जिसका नाम MAGIK हुआ करता था...लेकिन फिल्म के तीन छुपे रुस्तम और हैं वो हैं इसके संगीतकार..शंकर एहसान औऱ लॉय जिन्होंने रॉक की नब्ज़ को भारतीय क्लेवर में बखूबी ढ़ाला है...इसके अलावा दीपा भाटिया की एडिटिंग भी कमाल है...इस फिल्म को देखने के बाद लगा कि 1960 --से 2008 तक यानी पूरे चालीस सालों का वक्त लगा रॉक को हिंदुस्तानी फिल्म में ढ़लने के लिए...बात सिर्फ इतनी है कि कहानियां बहुत हैं पर जोखिम उठाना हर किसी के बस की बात नहीं..बतौर निर्माता औऱ कलाकार फरहान अख्तर इसमें कामयाब हुए हैं...अब उन्हें औऱ अभिषेक को कोई फिसड्डी नहीं कहेगा...



तुषार उप्रेती

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