कुछ आवाज़ें


आज मन हुआ कि कान
में एक सुऱाख करुं
इसे शोर सुनाई देता है
पर पचा नहीं पाता ये
वो महीन आवाज़ें

ये चीखों को निगल जाता है
पर पेड़ के पत्तों की सांय-सांय
को समझता नहीं,

ये गालियां बरर्दाश़्त करता है
पर पहचानता नहीं मां की आवाज़

कभी जब कोई रोता है अकेले में
ये अनसुनी करता है सिसकियां

जब कभी दुहाई देता है
कोई किसी संबंध की
तब दोनों कान टालते हैं
दुहाई को भी...

इसलिए मन होता है
कि सुऱाख करुं कान में...

ताकि वो कम-से-कम
अपनी आवाज़ तो सुन सके
और मेरे पास लोगों के
सवालों के जवाब में
कहने के लिए इतना तो हो
कि मैं एक कान से सुनकर
दूसरे कान से निकाल देता हूं

इसलिए मैं करना चाहता हूं
सिर्फ एक सुऱाख.....

तुषार उप्रेती



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