इक कारवां खड़ा है...





















किस ग़म का मुलम्मा (परत) चढ़ा है,
कौन कम्बख़्त है जो पीछे पड़ा है।
चलो किसी रोज़ हवा से खेल लें,
इन कंक्रीट के जंगलों में जीना मुश्क़िल बड़ा है...

बूंदों की सोहबत में बहे,
बादलों के कंधों पे चढ़े,
कुदरत के रंगों में नहाए,
चांद के साए में जुगनूओं सा टिमटिमाएं
कदम बढ़ाओ, इक कारवां खड़ा है.....
- पुनीत भारद्वाज

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