मंज़िलें....


रात-रात भर ढूंढते हैं हम
एक आशियाना और एक रहगुज़र


हम तो चल दिए आंखों में लिए
ख़्वाबों का एक लंबा सफ़र


" ख़ून में हरारत जिस्म में जान बाकी है
चंद लाल क़तरों में अभी कितने तूफ़ान बाकी है
हर हद तक करले ऐ वक़्त तू जितना भी सितम
हौसला अभी ज़िंदा है, अभी ख़ून भी है ग़रम
ऐ मौत ठहर थोड़ा इंतज़ार करले

अभी तो ज़िंदगी में बहोत काम बाकी हैं......"



अकेले थे हम, अकेले चल दिए
ख़ुद ही राही और ख़ुद ही हमसफ़र


हमने थाम ली डोर प्यार की
प्यार में ही अब कटेगा हर पहर..



मानते हैं ये के है कठिन डगर
हौसलों से ऊंची पर नहीं मगर
कट ही जाएगी, मिट ही जाएगी
दूरियां ये.. तू कुछ कर गुज़र......


-पुनीत भारद्वाज



1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

Kudos to the poet 4 writing such a b'ful poem inspiring all those in love...