इक लौ जलने दो....


क माटी का दीया सारी रात अंधियारे से लड़ता है...
तू तो ख़ुदा का दिया है, किस बात से डरता है*

इक लौ...
जलने दो...
पलने दो...
दर्द को....

इक लौ....
मचलने दो...
बढ़ने दो...
दर्द को.....

इक लौ...
लड़ती है...
भिड़ती है...
तूफां से अब...

इक लौ...
दहकती है...
वो कहती है...
जहां से अब...

क्यूं...
चुप रहते हो
सब सहते हो...
अब ना सहो
इस दर्द को......

क्यूं...
घर बैठे हो...
घर से निकलो...
अब तो कुचलो
इस दर्द को....


*ऊपर की दो लाइन किसी अंजान शख़्स की हैं...
- पुनीत भारद्वाज


1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

Punnet mujhe lab jana hai, kaam pada hai sara, par tumhari poems uthne hi nahi deti, nayi purani sabhi, bas ek baar padhne lag jao to fir utha hi nahi jata........
keep posting