शायर औऱ नज़्में


वो जो सपनों को झांकते हुए देखता था
वो जो आसमान की गिरेबान में सरेआम पत्थर फेंकता था
वो शायर अब नहीं रहा,
बची हैं तो बस ये नज़्में....

जो सुकून में बैठी किसी के लबों को
चूम रही हैं,
खुदगर्ज़ हैं साली
जब वो जिंदा था तब उसके दर्द पर
फाहे डालती थी...
अब उसकी गैर-मौजूदगी में सरगोशियां करती हैं...


तुषार उप्रेती

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

khud hi nazm likhte ho or khud hi unse shikayat b hai
koi nazm bewafa ya khudgarz nahi hoti
balki kisi ki bewafai se mile zakhmo par yahi marham ka kam karti hain
shayar ki apni hi nazmo se ye narazgi apni samajh me nahi aayi....