सफर एक कहानियां तीन....मीनाक्षी..


बतौर चित्रकार एम.एफ हुसैन ने अपनी कूची से कई चित्र बनाए हैं...उन्हें समझना बिल्कुल वैसा ही है जैसे किसी मजदूर की कूची से पुती दिवार में चित्रकारी ढूंढना...लेकिन हुसैन की चित्रकारी की तरह ही उनकी फिल्म मीनाक्षी में भी कुछ बात जरुर है..जो लंबे समय तक फिल्म से बांधे रखती है..रंगों का खेल सिनेमाई कैनवस पर उन्होंने बखूबी किया है..संतोष सीवन ने बतौर सिनेमाटोग्राफर इसमें उनका बखूबी साथ दिया है.. हर दृश्य अपने आप में नई पेंटिंग सा लगता है... हुसैन ने रेगिस्तान से लेकर प्राग तक अपने अनुभव का उम्दा इस्तेमाल किया है.
हर शहर की अपनी दास्तान होती है..जहां किरदार भी लगभग वैसे ही होते हैं..बदलते हैं तो सिर्फ चेहरे..ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है कि आजकल समस्याएं ग्लोबल हो गई हैं जिसने हर जगह के लोकलाइट को अपनी पकड़ में ले रखा है..जैसे शहर अलग-अलग हैं पर अकेलापन वही है..
इस फिल्म में लेखक रघुवीर यादव से लेकर, मीनाक्षी तब्बू और कार मैकेनिक कुणाल कपूर तक सभी की एक ही समस्या है अकेलापन..लेखक सोचता है कि उसकी कहानी में किरदार अब बासी हो चुके हैं..इसलिए वो एक ऐसी कहानी तलाशता है जिसमें कुछ नयापन हो..मुलाकात होती है इत्र बेचने वाली तब्बू से..जो अपनी जिंदगी को इतना दिलचस्प समझती है कि उसके मुताबिक उसका जीवन लेखक के लिए उपन्यास लिखने का एक सब्जेक्ट हो सकता है..दूसरी तरफ मैकेनिक मियां हैं जो बचपन के थपेड़ों से अब तक उबर नहीं पाये हैं..बनना चाहते थे म्यूज़िशियन औऱ बन गये कार मैकेनिक..
इधर उधर किरदारों की तलाश में भटकते लेखक को लगता है कि अपने आसपास के वातावरण से किरदारों को चुन कर उन्हें कहानी के सांचे में ढालना बेहद मुश्किल है..फिर भी वो नयेपन के लिए ये चुनौती स्वीकार करता है..अंतत: होता ये है कि किरदार लेखक से ज्यादा ताकतवर हो जाते हैं..और लेखक कि जिंदगी की कहानी लिखने लगते हैं..ये है क्या..समझने में देर लगेगी फिल्म देखिए धन्य हो जाएंगे...





तुषार उप्रेती

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