दर्द में भी इक मज़ा आने लगा...

ज़ख़्म-ज़ख़्म सर उठाने लगा
अब तो दर्द में भी इक मज़ा आने लगा

बीता कोई लम्हा मुस्कुराने लगा..
अब तो दर्द में भी इक मज़ा ने लगा

उसकी यादों का मौसम फिर से छाने लगा
अब तो दर्द में भी इक मज़ा आने लगा

बे-साया था मैं....मुझको वो अपनाने लगा
अब तो दर्द में भी इक मज़ा आने लगा

मैं बेहोश था..अब मैं होश में आने लगा
अब तो दर्द में भी इक मज़ा आने लगा

ज़ख़्म-ज़ख़्म सर उठाने लगा
अब तो दर्द में भी इक मज़ा आने लगा
अब तो इस दर्द की आदत सी हो गई है
उस हमदर्द की आदत सी हो गई है..

- पुनीत भारद्वाज

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

KITNA PYARA TARIQA H DARD KO BHULANE KA
hamdard k saath use baant k sab bhool jao
har zakhm chhota ho jata h ek baar wo bas pyaar se sehla de.
all in all a nice poem.

बेनामी ने कहा…

is dard ko ya tokavi hi samajh sakta h ya fir wo jisne saha ho.

isse zyada maza kisi aur dard me nahi, or fir wahi hum-dum aakar agr marham lagaye..........