ज़िंदगी......



रूख़-रास्ते-रफ़्तार बदलती है ज़िंदगी
ख़ुद अपनी ही मर्ज़ी से चलती है ज़िंदगी

मैंने लाख कोशिशें की मनाने की
मुंहज़ोर है कम्बख़्त, कहां बदलती है ज़िंदगी

राहें और मंज़िलें ग़ुफ़्तगू करते रहते हैं
उनकी ग़ुफ़्तगू की नकल करती है ज़िंदगी

अब तो ख़ुद को इसके हवाले कर चुके हैं
ख़ुद गिरती है, ख़ुद ही संभलती है ज़िंदगी


- पुनीत भारद्वाज

ऐश्वर्या राय..तारीफ करूं क्या उसकी जिसने....




THE BEAUTY QUEEN

मिस वर्ल्ड.. हिंदी फिल्मों की सफल हीरोइन..मशहूर मॉडल या फिर कुछ और?..जेहन में जितने सवाल उभरते हैं..उनके जवाब में एक ही चमकदार चेहरा मिलता है...ऐश्वर्या रॉय...जिसकी नज़ाकत भी उससे कई बार सवाल करती है कि तुम इतनी नाज़ुक क्यों हो...अगर ऐश्वर्या के मकाम की बात करें तो फिर एक सवाल उभरता है कि एक मिडल क्लास लड़की ने न जाने कौन से ख्वाब के परों को पकड़कर आज अपने हिस्से का आसमान तलाश लिया है. एक नवंबर 1973 को मैंगलोर में बॉयोलोजिस्ट पिता कृष्ण राय और मां वृंदा राय के घर जब ऐश्वर्या का जन्म हुआ तो शायद ही किसी ने सोचा होगा कि एक दिन इस लड़की के हाथों में जहां भर की खुशियों की रेखाएं खीचेंगी...एक आम हिंदुस्तानी लड़की की तरह ऐश्वर्या की परवरिश हुई...ऐश्वर्या के जन्म के बाद उनके मां-बाप मुंबई आ गए जहां आर्य विद्या मंदिर में उनका दाखिला करा दिया गया,..इसके बाद जय हिंद कॉलेज में एक साल तक पढ़ने के बाद ऐश्वर्या ने रुपारेल कॉलेज से अपनी HSC कम्पिलीट की..और मन ही मन एक आर्किटेक्ट बनने का सपना देखने लगीं...इस बीच ऐश्वर्या ने मॉडलिंग में भी किस्मत आजमाने की सोची...और 1994 में मिस इंडिया कॉन्टेस्ट में सुष्मिता सेन के बाद फर्सट रनर अप रहकर भी उन्होंने मिस फोटोजैनिक का अवार्ड जीता...इसके बाद उन्हें भारत की ओर से लंदन में आयोजित मिस वर्ल्ड कॉन्टेस्ट में हिस्सा लेने का मौका मिला.....इसके बाद जो हुआ उसे न तो दुनिया भूली और न हम...आज भी वो लम्हा लोगों को याद है जब जादूभरी आंखों वाली ऐश्वर्या के सिर पर मिस वर्ल्ड का ताज सजाया गया था...और हर भारतीय खुद को भावुक होने से रोक नहीं पाया....

AN ACTRESS--
ग्लैमर के आकाश पर जितनी तेज़ चमक ऐश्वर्या के आने के बाद हुई उतनी शायद ही उनसे पहली कभी देखी गई हो....उन्हें यूं तो कई फिल्मों के ऑफर आ रहे थे..लेकिन ऐश्वर्या ने शुरुआत की जाने माने निर्देशक मणिरत्नम की फिल्म इरुवर से..1997 में आई इस फिल्म से ऐश्वर्या के हुस्न के जादू ने साउथ से लेकर मुंबई तक सबको अपना कायल बना दिया..इसी साल बॉबी देओल के साथ ऐश्वर्या की पहली हिंदी फिल्म और प्यार हो गया भी रिलीज़ हुई...फिल्म तो नहीं चली पर ऐश का जादू सबकपर छाने लगा...1998 में तमिल फिल्म जींस में ऐश्वर्या की खूबसूरती के कायल तो उन्हें आठवां अजूबा ही मानने लगे....लेकिन ऐश्वर्या की जिंदगी में एक ब्रेकथ्रू तब आया जब 1998 में हम दिल दे चुके सनम रिलीज़ हुई....इस फिल्म ने ऐश्वर्या को दिया उनका पहला फिल्मफेयर अवार्ड...इस फिल्म से ऐश्वर्या की जिंदगी में दो चीजें एक साथ आई पहली कामयाबी दूसरा सलमान खान....इसके बाद तो इन दोनों के इश्क के चर्चे हर जगह हुए....1999 में आई ताल ने ऐश्वर्या के अंदर छूपी एक मौच्योर एक्ट्रैस को उभारा तो वहीं जोश ने उनकी चुलबुली हरकतों से हमें रुबरु कराया...फिर आई देवदास जिसमें पारो के रोल में ऐश्वर्या की पर्फार्मेंस को न केवल क्रिटिक्स ने सराहा बल्कि इस रोल के लिए ऐश को बेस्ट एक्ट्रैस का दूसरा फिल्म फेयर अवार्ड मिला...जैसे जैसे फिल्में बढ़ती गई ऐश की लोकप्रियता भी बढ़ती गई.....कभी हमने उन्हें रविन्द्र नाथ टैगोर की चोखेर बाली बनते देखा तो कभी हमें वो रेनकोर्ट में एक साधारण औरत के किरदार में नज़र आई...जो एक गुमनाम जिंदगी जी रही है.....लेकिन इन सबके बीच ऐश्वर्या की मास अपील बढ़ती गई..और उन्होंने हॉलीवुड के भी कई प्रोजेक्ट्स किये...जिनंमें BRIDE & PREJUDICE ..MISTRESS OF SPICES..और THE LAST LEGION जैसी फिल्में खास रही...अपनी फिल्मों के अलावा कान फिल्म फेस्टिवल में बतौर जूरी मेंबर बनकर भी ऐश्वर्या ने काफी वाहवाही बटोरी....इस बीच धूम टू में जहां ऋतिक के साथ ऐश के किसिंग सीन के चर्चे रहे तो वहीं गुरु में ऐश की संजीदगी के कायलों की भी कमी नहीं है...इसे ऐश्वर्य का जादू ही कह सकते हैं कि लंदन के मैडम ट्यूसैड्स म्यूजियम में उनका स्टैच्यू रखा गया है...बंटी और बबली में कजरारे कजरारे करने वाली ऐश्वर्या ने जब 2007 में अमिषेक बच्चन से शादी की तो न जाने कितने गुमनाम आशिकों के दिल टूट गये होंगे...हाल फिलहाल में आई जोधा अकबर और सरकार राज ने ऐश्वर्या को बतौर एक्ट्रैस औऱ ज्यादा उभारा है और इन्हें देखकर तो यही लगता है कि भले ही वो आज देश के एक जाने-माने घराने की बहू हों लेकिन ऐश्वर्या ने अपना वजूद खुद बनाया है..


तुषार उप्रेती

फैशन का पैशन!



मधुर भंडारकर ने अपनी फिल्मों मे कहानी कहने का एक नया तरीका इजाद किया है....एक जमे जमाये माहौल में एक नये किरदार को फीट कर दीजिए...कहानी अपने आप आगे बढ़ जाएगी....चांदनी बार के माहौल में तब्बू को फीट किया गया...सत्ता के माहौल में रवीना टंडन को फीट किया... पेज थ्री के माहौल में कोंकणा को फीट किया गया...कॉरपोरेट के माहौल में बिपाशा को फीट किया गया.....सिर्फ ट्रैफिक सिग्नल ऐसी फिल्म थी जिसमें सब कुछ पहले से तय था....और अब फैशन के माहौल में प्रियंका चोपड़ा को फिट किया गया...इन सारी फिल्मों मे नए किरदार के पुराने माहौल में फिट होने के बाद क्या क्या घटनाएं घटती हैं..इसी को मधुर भंडारकर अपनी फिल्मों मे आगे बढा़ते हैं...यहां गौर करने की बात ये भी है कि मधुर की फिल्मों मे सेट्रैंल कैरेक्टर ज्यादातर महिलाएं ही होती हैं...जो कहीं न कहीं..कभी न कभी...शोषण का शिकार होती हैं...
अब बात करते हैं फैशन की...मधुर का रिसर्च तगड़ा है...लेकिन रिसर्च जब ज्यादा पक्का हो जाता है तो निर्देशक के सामने ये समस्या खड़ी हो जाती है कि क्या फिल्म में हो और क्या नहीं...फैशन की स्क्रिप्ट अच्छी है..लेकिन लंबी है.....
इसे मधुर की काबिलियत ही कहेंगे कि सारे किरदारों से उन्होंने काम ले लिया है..चाहे रोल छोटा हो या फिर लंबा...हर कोई फिल्म में सही जगह आता है और चला जाता है....तकनीकी तौर पर मधुर भंडारकर की ये सबसे पक्की फिल्म है...शाट्स सलेक्शन अच्छा है...बैकग्राउंड म्यूजिक में सलीम सुलेमान ने चक-दे वाली थीम को पकड़े रखा है...जहां तक एक्टिंग का सवाल है कंगना राणौत ने बाज़ी मारी है...उन पर तो वैसे भी गैंगस्टर और वो लम्हे करने के बाद बेवड़ी होने की जैसे छाप सी लग गई है...प्रियंका चोपड़ा का काम साधारण है जबकि कहानी उनके इर्द-गिर्द ही बुनी गई है...
हालाकि सारी फिल्म देखने के बाद एक भी ऐसा किरदार नहीं है..जो आपको याद रह जाये....फिल्हाल इतना ही कहेंगे कि फैशन में मधुर का पैशन तो दिखता ही है....


तुषार उप्रेती

शाहरुख खान...एक महानायक का उदय!


नब्बे के दशक में बहुत कुछ बदल रहा था...दुनिया ग्लोबल विलेज हो गई थी...ऐसे में सालों से परदेस में बैठे भारतीयों को हिदुंस्तान की याद आई....वो जागे और अपनी जड़ों की तलाश करने लगे......इस बीच हमारे सिनेमा में भी बदलाव हुआ..उसने अपने वक्त के नए नायक की तलाश की..लेकिन हर जगह उसे वही चालू मक्कारियां नज़र आई...जो आज से पहले भी फिल्मों मे दिखाई जा चुकी थी....बासी कहानियां..और बासी चेहरे....इस बीच दिल्ली का एक नौजवान अपने ख्वाबों को बुनकर मुंबई चला आया था...उसे नहीं मालूम था मंजिल कहां होगी...कैसी होगी..मालूम था तो बस इतना की उसमें काबिलियत है

The rising of a star…..
शाहरुख खान....एक नाम जो अपने आप में बुलंदियों की कहानी कहता है.... कहने की जरुरत नहीं कि इस शख्स ने अपनी फिल्मों से हमारी फिल्म इंडस्ट्री को कैसे नई हवा दी...मासूम शक्ल...औऱ चेहरा ऐसा जिससे कैमरा प्यार करता..एक ऐसा शख्स जो टीवी में फौजी बनकर अपने दुश्मनों को धूल चटा चुका था.अब बॉलीवुड में भी अपनी किस्मत आजमाना चाहता था..

Personal life---लेकिन हर फैसले की एक कीमत होती है..और शाहरुख ने भी उस कीमत की कई किश्तें चुकाईं...दिल्ली में 2 नबंबर 1965 को जन्मे शाहरुख ने अभी ठीक से होश भी नहीं संभाला था कि उनके पिता ताज मौहम्मद खान का निधन हो गया उसके बाद अपनी मां बेगम लतिफ फातिमा के पल्लू से बंधे रहकर भी शाहरुख ने ये बता दिया कि वो कोई साधारण इंसान नहीं है...दिल्ली के सेंट कोलंबस स्कूल में उन्हें न केवल बेस्ट स्टूडेंट होने की वजह से SWORD OF HONOUR के सम्मान से नवाज़ा गया..बल्कि स्कूल की क्रिकेट टीम में भी उन्हें जगह मिली....इसके बाद हंसराज कॉलेज से एक तरफ जहां उन्होंने इकोनॉमिक्स में अपनी ग्रेजुएशन कम्पलिट की बल्कि बैरी जॉन के एक्टिंग स्कूल से एक्टिंग की कई बारिकियां भी सीखीं...कॉलेज में ही उनकी मुलाकात गौरी से हुई...और शाहरुख दिल ही दिल में उन्हें काफी चाहने लगे...इस बीच शाहरुख की मां उन्हें दुनिया में अकेला छोड़ कर चली गई...और शाहरुख के पास सिवाए अपने सपनों के कुछ न बचा....जिसके बाद उन्होंने मुंबई जाने का फैसला किया....ये 1991 की बात है.....अपनी पहली फिल्म की रिलीज़ से कुछ पहले ही शाहरुख ने गौरी से शादी कर ली.....

Mumbai -City of dreams---

मुंबई आने पर शाहरुख को पता चला की एक टीवी स्टार होने के नाते उन्हें लोग जानते तो हैं...लेकिन उनका सफर आसान नहीं होने वाला..लेकिन खुद़ा को शायद कुछ औऱ ही मंजूर था और शाहरुख की दीवानगी का आलम पहली फिल्म से ही छाने लगा था.शाहरुख ने कभी राजू बनकर चमत्कार किया..तो कभी माया मेमसाहब जैसी फिल्मों से खुद को जोड़ा...इन फिल्मों से शाहरुख को शोहरत तो मिली लेकिन कामयाबी नहीं...
फिर एक ऐसा मोड़ आया जहां से इस सितारे में चमक पैदा होनी शुरु हुई...फिल्म थी बाज़ीगर...जहां शराफत के नकाब में छिपे एक एंटी-हीरो को जन्म लेते हमने देखा... इसके तुरंत बाद डर में एकतरफा प्यार में पागल एक सनकी आशिक के रोल में भी शाहरुख को खूब वाहवाही मिली...इस फिल्म ने शाहरुख के करियर को एक ऐसे अंजाम तक पहुंचाया जिसकी उन्हें तलाश थी...

Rise of a King---

अब तक जो शख्स हिंदुस्तान में अपनी काबिलियत का लोहा मनवा चुका था..उसने जब दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे में राज मल्होत्रा के किरदार को जिया तो विदेशों मे बैठे भारतीयों के दिलों पर भी वो राज करने लगा...लोग शाहरुख में इंडस्ट्री के नए बादशाह को देखने लगे...
लोगों को उनका नया सुपरस्टार मिल चुका था...जो कभी किसी लड़की के लिए जुगनुओं के पीछे भागने की बातें करता..
तो कभी परदेस में बैठ कर दीवाने दिल के किस्से सुनाता.. शाहरुख की फिल्मों के इन्हीं उतार-चढावों ने उन्हें कहने पर मजबूर कर दिया की...
और इसके बाद शाहरुख का सितारा दिनों-दिन बुलंद होता गया...कुछ कुछ होता है....जोश..मोहब्बतें..कभी खुशी कभी गम ने जहां शाहरुख की पॉपुलैरिटी में चार चांद लगाएं..तो वहीं देवदास..चलते-चलते..मैं हूं न..स्वदेस...कल हो न हो..और वीर ज़ारा जैसी फिल्मों से शाहरुख ने अपनी एक्टिंग का लोहा मनवा लिया...इस बीच ओम शांति ओम और चक दे इंडिया जैसी फिल्मों ने शाहरुख का कद इतना बढ़ा दिया है...कि उन्हें छूना तो दूर उनकी ऊंचाई का अनुमान लगाना भी मुश्किल होता जा रहा है...अगर आने वाली फिल्मों की बात करें तो रब ने बना दी जोड़ी और बिल्लू बार्बर के दम पर एक बार फिर शाहरुख की बादशाहत को परवान चढ़ते हम देख पायेंगे....लेकिन इतनी शोहरत औऱ बुलंदियों के बाद इतना तो तय है कि शाहरुख के पास अब खुद अपने कामयाबियों का हिसाब रखने का वक्त नहीं है.....


तुषार उप्रेती....

आमची मुंबई!PART 1


हर शहर की अपनी तासिर होती है..दिल्ली में थे तो अनजान तपरों की चाय..पुरानी दिल्ली के खानों और नई दिल्ली की मक्कारियों का स्वाद लेते थे...वहां आदमी पहले मुस्कुराता था..फिर जख्म देता था..फिर उस जख्म पर मक्खी बैठती थी...और फिर अहसास होता था कि घाव हुआ है....

अब मुंबई में हैं जहां जख्म पर मक्खी नहीं खुद जख्म को ही बैठने की फुर्सत नहीं...
एक लाइन में समेटने की कोशिश करुं तो दीपक की कही एक बात ज़ेहन में अंगडाई लेती हैं---

मुंबई में जिंदगी का एक ही भाव...वड़ा पाव!

ये शहर वाकई में घूंट घूंट खुद को पीता है...इसे खुद नहीं पता कि दौड़ कहां जाकर खत्म होगी पर दौड़ हमेशा जारी रहती है...पानी यहां खारा है तो लोगों को कोई शिक़वा नहीं वो उसे जलजीरा समझ के पीने पर तुले हैं...हर आदमी का अपना वजूद है...
दिल्ली में लोग ज़मीन के नीचे कम अंदर ज्यादा होते हैं..मुंबई में लोग आइनें लेकर चलते हैं...दिल्ली में हर कोई राजा है औऱ सामने वाला रंक..य़हां हर रंक ही राजा है...




तुषार उप्रेती

अमिताभ होने का मतलब!


अमिताभ बच्चन...इंडस्ट्री का वो नाम जो अब किसी अल्फाज़ का मोहताज़ नहीं....
अमिताभ बच्चन...इंडस्ट्री का वो कलाकार जिसे लोग अपने आप में अभिनय का स्कूल मानते हों...
अमिताभ बच्चन...जिसके नाम का मतलब ही एक ऐसी रोशनी है जो कभी बुझती नहीं....
आज उसी अमिताभ का जन्मदिन है जिसने कभी एंग्री यंग मैन बनकर हम सबकी भड़ास को पर्दे पर जिया...कभी कुली बनकर ज़माने का बोझ उठाया...तो कभी विजय बनकर अपने बचपन का बदला लिया..वही अमिताभ जिसके साथ हमने सिनेमा और समाज को बदलते देखा...आज 66 साल का हो गया है...आंखों मे जिसकी 40 साल का अनुभव छिपा है...जिसकी आवाज़ में ही उसकी पहचान है...आज उसी अमिताभ का जन्मदिन है.....
11 अक्टूबर 1942 को जन्मा ये शख्स एक दिन एक्टर ऑफ द मिलेनियम कहलाएगा..ये किसी ने सोचा भी न था...हांलाकि 1969 में आई अपनी पहली फिल्म सात हिंदुस्तानी में बेस्ट न्यूकमर के नेशनल अवार्ड के बावजूद अमिताभ को कामयाबी के लिए लंबा इंतज़ार करना पड़ा...1971 में आई आनंद ने उन्हें बेस्ट स्पोर्टिंग एक्टर का फिल्म फेयर अवार्ड तो दिलाया लेकिन सोलो एक्टर के रुप में स्थापित होने में अमिताभ को इसके बावजूद लंबा वक्त लगा...और इस बीच अमिताभ ने बॉम्बे टू गोवा....परवाना..रेशमा और शेरा..गुड्डी जैसी फिल्मो मे काम किया...लेकिन 1973 में प्रकाश मेहरा के निर्देशन में बनी झंझीर अमिताभ को एंग्री यंग मैन का वो खिताब दिलाया...जिसके पास पहुंचने का सपना हर कलाकार देखता है...
इस फिल्म में अमिताभ की संवाद अदायगी लोगों के दिलो-दिमाग पर हावी हो गई...
हांलाकि इसके बाद मजबूर...रोटी कपड़ा और मकान...फरार औऱ चुपके-चुपके जैसी अमिताभ की कई फिल्में रिलीज़ हुई लेकिन पब्लिक के दिल में अमिताभ की जो इमेज़ थी उसे भुनाया 1975 में आई य़शचोपडा़ की दीवार ने...जिसमें हालात के मारे एक शख्स के फर्श से अर्श तक के सफर को अमिताभ ने बखूबी जिया है...
और इसके बाद 1975 में ही आई शोले...जिसने अमिताभ को दिया वो मकाम जिसे छूने का हौंसला अच्छे अच्छों मे नहीं है...जय जो पूरी फिल्म में लगभग खामोश सा रहता है..आखिरी में वो जब अपने दोस्त की खातिर मरता है तो इस सीन को देखने वालों की पल्कें भीगे बिना नहीं रहती..
लेकिन अमिताभ में इस संजीदगी के अलावा एक रुमानीपन भी था जो कभी कभी..से लेकर सिलसिला तक के अपने फिल्मी पड़ावों मे उन्होंने दिखाया है...तो वहीं दूसरी तरफ अपनी निजी जिंदगी में उन्होंने 1973 में जया भादुड़ी से शादी के बाद भी रेखा से अपने प्यार का सिलसिला जारी रखा था....
वैसे हर किरदार के साथ अमिताभ ने खुद को तलाशा है..उन्होंने कभी डॉन बनकर सबको ये जतलाया कि वो छोरा गंगा किनारे वाला कहलाना पसंद करेंगे तो कभी एंथनी बनकर
आइने के सामने खुद की मर्हम-पट्टी कर डाली..
दरअसल अमिताभ की शख्सियत में जो कुछ भी था उसे उन्होंने अपने अलग-अलग रोल में उडेल दिया है...इसलिए शायद पब्लिक उन्हें ढ़ेरों नामों से जानती है कोई उन्हें विजय कहता है तो किसी के लिए वो एंथनी है..कोई उन्हें डॉन बुलाता है तो किसी के लिए वो शहंशाह...
जब एक शख्स के इतने अक्स सामने आयें तो दिल ये मानने से इनकार कर देता है कि ये महज़ कोई आदमी है....और कुली की शूटिंग के दौरान चोट लगने पर जितने हाथ अमिताभ के लिए दुआ करने के लिए उठे उससे कम से कम ये तो काफी पहले साबित हो गया था कि अमिताभ होने का मतलब अपने आप में सिनेमा की आधी सदी होना है...
बॉलीवुड को एक्टिंग की नई परिभाषा देने वाले अमिताभ को वैसे राजनीति कभी रास नहीं आई...1984 में अपने दोस्त राजीव गांधी के न्यौते पर उन्होंने इलेक्शन लड़ा भी और जीता भी लेकिन जल्द ही बोफोर्स घोटाले में नाम आने और तमाम राजनीतिक फज़ीहतों के बाद अमिताभ ने राजनीति से तौबा करना ही बेहतर समझा...हांलाकि कि इसके बाद हम और अग्निपथ की कामयाबी से अमिताभ ने अपनी ज़ोर दार वापसी दर्ज कराई....जिसमें अग्निपथ के लिए उन्हें बेस्ट एक्टर के नेशनल फिल्म अवार्ड से भी नवाज़ा गया..पर जल्द ही इंसानियत और खुदा गवाह जैसी फिल्मों के failure से सबको लगने लगा कि ये सितारा अब जल्द ही अस्त हो जाएगा....
इस बीच एबीसीएल कंपनी के निर्माण और उससे हुए करोड़ों के घाटे से अमिताभ के सामने सुपरस्टार बनने के बाद पहली बार FINANCIAL क्राइसिस खड़ा हो गया.....लेकिन टीवी पर कौन बनेगा करोडपति ने अमिताभ को जल्द ही टीवी का शहंशाह बनाकर उन्हें इस स्थिति से भी उबार लिया....हाल के कुछ सालों में मोहब्बतें...एक रास्ता द बॉड ऑप लव...कभी खुशी कभी गम..बागबान..खाकी..ब्लैक..बंटी और बबली..सरकार...और द लास्ट लियर जैसी फिल्मों में काम करके अमिताभ ने ये साबित कर दिया कि उम्र के इस पड़ाव पर भी उनका कोई जवाब नहीं.........

आज भले ही अमिताभ जवान न हों पर आज भी जब किसी गांव मे अमिताभ की कोई फिल्म चलती है,तो गांव का नौजवान एक बूढ़े़ की बगल से चींखता है कि मार अमिताभ..साले को और मार...ये अमिताभ की उस शख्सियत का महज़ एक टुकड़ा है जिसे लोग जानते हैं...असल में अमिताभ बच्चन होने का मतलब जानने के लिए एक उम्र कम पड़ सकती है....




तुषार उप्रेती

रेखा जो कई बिन्दुओं से बनी.....


फिल्मी दुनिया में बहुत कम एक्ट्रैस ऐसी आई हैं जिन्हें देखकर एक आम-आदमी ने ये समझा है कि एक औरत की तकलीफें और अकेलेपन में कई कहानियां छिपी होती हैं... अपनी पहली हिंदी रिलीज्ड फिल्म 'सावन-भादो' से इंडियन सिनेमा में कदम रखने वाली रेखा के साथ भी शुरु से कई कहानियां जुड़ी हुई हैं...जिन्हें उन्होंने अलग-अलग वक्त पर बयां किया है...
10 अक्टूबर 1954 को चेन्नई में जन्मी भानुरेखा गनेशन यानी रेखा ने जब होश संभाला तो पाया कि उसका बचपन बेहद अकेलेपन में गुज़रा है...तेलुगु एक्ट्रैस पुष्पापल्ली की बेटी रेखा को कभी बाप का प्यार नसीब नहीं हुआ..बहुत बाद में जाकर 1970 के दशक में एक मैग्ज़ीन को दिये इंटरव्यू में रेखा ने ये जब ये ख़ुलासा किया कि वो जाने-माने तमिल एक्टर जैमिनी गनेशन की औलाद हैं तो सबकी आंखें खुली की खुली रह गई...
दरअसल अपनी जिंदगी की शुरुआत से लेकर अब तक रेखा ने कई उतार चढ़ाव देखे हैं...अपनी पहली ही फिल्म दो शिकारी में एक्टर विश्वजीत के साथ रेखा के किसिंग सीन ने इतना हंगामा मचाया था की बाद में सेंसर इश्यू की वजह से इस फिल्म को रिलीज़ नहीं होने दिया गया...लेकिन अपनी पहली रिलीज्ड़ फिल्म सावन-भादो से रेखा की कामयाबी का सिलसिला जो शुरु हुआ उसके इंडियन सिनेमा को आगे चलकर दी पहली ओरिजनल दीवा..
ये वही रेखा थी जिनकी शुरुआती फिल्मों 'गोरा और काला' , 'रामपुर का लक्ष्मण' और 'कहानी किस्मत की' को देखकर लोगों ने उन्हें मोटी और नॉन ग्लैमरस बताया था...लेकिन रेखा कि जिंदगी में 1976 में उस वक्त एक बदलाव आया जब उन्हें दुलाल गुहा कि फिल्म 'दो-अनजाने' में अमिताभ बच्चन के अपोज़िट एक OVER-AMBITIOUS एक्ट्रैस का किरदार निभाने को मिला..
इस फिल्म के जरिये रेखा ने न केवल अपने लुक्स बल्कि अपनी एक्टिंग से भी सभी क्रिटिक्स का मुंह बंद कर दिया...इसके बाद 1978 मे विनोद मेहरा के साथ रेखा ने 'घर' फिल्म में काम किया...जिसमें उन्होंने एक शादीशुदा रेप विक्टिम का रोल अदा किया...हांलाकि कुछ जानकारों का ये मानना है कि विनोद मेहरा औऱ रेखा इस फिल्म के रिलीज़ होने से पहले ही घर बसा चुके थे..लेकिन रेखा ने इस बात को हमेशा सिरे से खारिज किया है....,,इसी साल रेखा और अमिताभ की 'मुक्द्दर का सिंकदर' को भी लोगों ने बहुत पसंद किया...खासतौर से इस फिल्म में रेखा पर फिल्माया गया 'सलामे-इश्क' गाना लोगों की जब़ान से आज तक नहीं उतरा है....
इस फिल्म में रेखा और अमिताभ की ऑन-स्क्रीन कैमेस्ट्री लोगों को इतनी पसंद आई की उसे कई डॉयरेक्टर्स ने आगे चलकर कई फिल्मों मे दोहराया...इसकी एक वजह रेखा-और अमिताभ का रियल लाइफ कनेक्शन भी रहा....और 'मिस्टर नटवर लाल' फिल्म में आय़े 'परदेसिया ये सच है पिया' गाने को लोगों ने इन दोनों के प्यार का एनथम मान लिया...
1981 में आई सिलसिला में यूं तो अमिताभ और रेखा आखिरी बार एक साथ नज़र आये लेकिन फिल्मी पंडितों ने इस फिल्म में रेखा-अमिताभ-और जया भादुडी की जिंदगी के फलसफे की बात कही है.....वैसे 2004 में सिमी ग्रेवाल को दिया इंटरव्यू में रेखा ने भी अमिताभ के बारे में कई खुलासे किये थे...
अमिताभ से भले ही कितनी भी दूरी हो लेकिन अभिनय से रेखा का हमेशा नज़दीकी नाता रहा है..1981 में ही रेखा को अपनी चुलबुली पर्फार्मेंस के लिए फिल्म 'खूबसूरत' में बेस्ट एक्ट्रैस के फिल्म-फेयर अवार्ड से नवाजा़ गया तो वहीं इसके बाद 1982 में आई 'उमराव जान' ने रेखा के एक्टिंग करियर को नई बुलंदी दी...इसमें निभाये अमीरन के किरदार में हमारे जमाने की नाइंसाफी को लोगों ने खोज़ निकाला...
.....1980 का दशक रेखा के लिए वैसे भी काफी अच्छा रहा..इस दशक में रेखा एकमात्र ऐसी अभिनेत्री रही जिन्होंने एक तऱफ 'खून भरी मांग' जैसी कर्मिशियल फिल्में कर के अपने करियर को एक तरफ नया लुक दिया तो वहीं 'कलयुग'..'उत्सव'..'बसेरा' जैसी फिल्मों से ये साबित किया कि रेखा होने का मतलब हर बार खुद के आगे अपनी रेखा की सीमा से बड़ी रेखा खींच देना है....
इसके बाद भी रखा ने खुद को हमेशा नई चुनौतियों दीं और उनका सामना किया एक तऱफ 90 के दशक में अपने फिल्मी करियर में उन्होंने मीरा नायर की 'कामसूत्र' जैसी फिल्में करके क्रिटिक्स से दुश्मनी मोल ली तो वहीं अपनी निज़ी जिंदगी में दिल्ली बेस्ड बिजनैसमैन मुकेश अग्रवाल से शादी की....अभी मुकेश अग्रवाल से उनकी शादी की खबर ठंडी भी नहीं हुई थी कि मुकेश की आत्महत्या की खबर आ गयी ...हाल के वर्षौं मे खिलाडियों के खिलाड़ी,...जुबैदा..कोई मिल गया औऱ परिणिता जैसी फिल्मों मे भी रेखा ने अपने आप को तराशा है...शायद यही वजह है कि अपने 37 साल लंबे फिल्मी सफर में रेखा बरकरार रहीं जबकि उनके इर्द-गिर्द चहकने वाली बाकी अभिनेत्रियों को समय ने निगल लिया......
रेखा को अगर एक सेंटेन्स में डिफाइन करना हो तो हम कहेंगे....पहेली है..जो बिल्कुल अकेली है...
बकौल गुलजार " लब हिलें तो मोगरे के फूल खिलते हैं कहीं ,आपकी आंखों में क्या साहिल भी मिलते हैं कहीं . आपकी खामोशियां भी आपकी आवाज हैं-

तुषार उप्रेती

मैं वो पत्रकार हूं....


क़लम की तलवार हूं
कटाक्ष की कटार हूं
सत्य की मैं धार हूं
वैचारिक ज्वार हूं
लोकतंत्र है जिसकी मंज़िल,
मैं वो पत्रकार हूं...

भाषाई औज़ार हूं
अभिव्यक्ति का व्यवहार हूं
अंकुश हूं, हथियार हूं
ख़बरों की जो ख़बर ले
मैं ऐसा ख़बरदार हूं
लोकतंत्र है जिसकी मंज़िल,
मैं वो पत्रकार हूं...


- पुनीत भारद्वाज

क्योंकि ये मेरी जेब है... बजट प्रोमो

टैक्स पे टैक्स..

औंधे मुंह गिरता सेनसेक्स..

इनफ्लेशन का दौर..

महंगाई चारों ओर..

चिदंबरम का पिटारा तय करेगा आप पर बजट का भार

और कितनी पड़ेगी इस साल टैक्स की मार

क्या आपकी जेब झेल पाएगी... बजट 2008

क्योंकि ये मेरी जेब है !

-पुनीत भारद्वाज

अजनबी शहर है.... गुलज़ार

Song- अजनबी शहर है...
Lyricist- गुलज़ार
Singer- सोनू निगम
Music- अनू मलिक
FILM- जानेमन
DIRECTOR- शिरिष कुंडूर





अजनबी शहर है, अजनबी शाम है
जिंदगी अजनबी, क्या तेरा नाम है ?
अजीब है ये जिंदगी ये जिंदगी अजीब है
ये मिलती है बिछड़ती है, बिछड़ के फिर से मिलती है
अजनबी शहर है, अजनबी शाम है....


आप के बगैर भी हमें, मीठी लगें उदासियाँ
क्या, ये आपका, आपका कमाल है
शायद आपको खबर नहीं, हिल रही है पाँव की जमीं
क्या, ये आपका, आपका ख्याल है
अजनबी...शहर में... जिंदगी मिल गई
अजीब है ये जिंदगी, ये जिंदगी अजीब है
मैं समझा था करीब है, ये औरों का नसीब है

अजनबी शहर है, अजनबी शाम है
बात है ये इक रात की, आप बादलों पे लेटे थे
हुं वो याद है आपने बुलाया था
सर्दी लग रही थी आपको,पतली चाँदनी लपेटे थे
और शाल में ख्वाब के सुलाया था
अजनबी ही सही, सांस में सिल गई
अजीब है ये जिंदगी ये जिंदगी अजीब है
मेरी नहीं ये जिंदगी रकीब का नसीब है ।



नैना ठग लेंगें..... गुलज़ार


Song- नैना ठंग लेंगे...
Lyricist- गुलज़ार
Singer- राहत फ़तेह अली खान
Music- विशाल भारद्वाज
FILM- ओंकारा
DIRECTOR- विशाल भारद्वाज



नैणों की मत मानियो रे, नैणों की मत सुनियो
नैणो की मत सुनियो रे ,नैणा ठग लेंगे
नैणा ठग लेंगे, ठग लेंगे, नैणा ठग लेंगे,
जगते जादू फूंकेंगे रे, जगते-जगते जादू
जगते जादू फूंकेंगे रे, नींदें बंजर कर देंगे,
नैणा ठग लेंगे नैणा ठग लेंगे,
ठग लेंगे, नैणा ठग लेंगे
नैणों की मत मानियो रे.......

भला मन्दा देखे ना पराया ना सगा रे,
नैणों को तो डसने का चस्का लगा रे
भला मन्दा देखे ना पराया ना सगा रे,
नैणो को तो डसने का चस्का लगा रे
नैणो का जहर नशीला रे, नैणों का जहर नशीला.....
बादलों मे सतरंगियाँ बोवें, भोर तलक बरसावें
बादलों मे सतरंगियाँ बोवे, नैणा बावरा कर देंगे,
नैणा ठग लेंगे, नैणा ठग लेंगे,
ठग लेंगे, नैणा ठग लेंगे

नैणा रात को चलते-चलते, स्वर्गा मे ले जावें
मेघ मल्हार के सपने दीजे, हरियाली दिखलावें
नैणों की जुबान पे भरोसा नही आता,
लिखत पढत ना रसीद ना खाता
सारी बात हवाई रे, सारी बात हवाई
बिन बादल बरसावें सावण, सावण बिण बरसाता
बिण बादल बरसाए सावन, नैणा बावरे कर देंगे,
नैणा ठग लेंगेनैणा ठग लेंगे, नैणा ठग लेंगे
नैणा ठग लेंगे, नैणा ठग लेंगे
नैणों की मत मानियो रे.......
जगते जादू फूंकेंगे रे, जगते जगते जादू
नैणा ठग लेंगे, नैणा ठग लेंगे नैणा ठग लेंगे, नैणा ठग लेंगे



तेरे इश्क़ में.... गुलज़ार




Song- तेरे इश्क़ में..
Lyricist- गुलज़ार
Singer- रेखा भारद्वाज
Music- विशाल भारद्वाज
Album- इश्क़ा-इश्क़ा


तेरे इश्क़ में
हाय तेरे इश्क़ में
राख से रूखी
कोयल से काली
रात कटे ना हिज़्राँ* वाली (वियोग की रात)



तेरे इश्क़ में
हाय तेरे इश्क़ में




तेरी जुस्तजू
करते रहे
मरते रहे
तेरे इश्क़ में
तेरे रू-ब-रू
बैठे हुए
मरते रहे
तेरे इश्क़ में



तेरे रू-ब-रू
तेरी जुस्तजू*(तलाश)
तेरे इश्क़ में
हाय तेरे इश्क़ में


बादल धुने
मौसम बुने
सदियाँ गिनीं
लमहे चुने
लमहे चुने
मौसम बुने
कुछ गर्म थे
कुछ गुन-गुने

तेरे इश्क़ में
बादल धुने
मौसम बुने
तेरे इश्क़ में
तेरे इश्क़ में
हाय तेरे इश्क़ में




तेरे इश्क़ में
तन्हाईयाँ-तन्हाईयाँ
तेरे इश्क़ में
हमने बहुत बहलाईयाँ
तन्हाईयाँ
तेरे इश्क़ में
रूसे कभी मनवाईयाँ
तन्हाईयाँ तेरे इश्क़ में



मुझे टोह कर
कोई दिन गया
मुझे छेड़ कर
कोई शब गई
मैंने रख ली सारी आहटें
कब आई थी
शब कब गई

तेरे इश्क़ में
कब दिन गया
शब कब गई
तेरे इश्क़ में
तेरे इश्क़ में
हाय तेरे इश्क़ में
राख से रूखी ...



दिल सूफी था
हम चल दिये
जहाँ ले चला
तेरे इश्क़ में
हम चल दिये
तेरे इश्क़ में
हाय तेरे इश्क़ में

मैं आस्माँ
मैं ही ज़मीं
गीली ज़मीं
सीली ज़मीं
जब लब जले
पी ली ज़मीं
गीली ज़मीं

तेरे इश्क़ में

बुल्ला की जाना मैं कौण..... सूफ़ी बुल्लेशाह








Song- बुल्ला की जाना

Lyricist- सूफ़ी बुल्ले शाह
Singer- रब्बी शेरगिल
Music- रब्बी शेरगिल







बुल्ला कि जाणां मैं कौन ?
ना मैं मोमिन विच मसीताँ-1
ना मैं विच कुफ्र दियां रीताँ-2
ना मैं पाकां विच पलीताँ-3
ना मैं अन्दर वेद किताबाँ-4
ना मैं रहदाँ भंग शराबाँ-5
ना मैं रिंदाँ मस्त खराबाँ-6
ना मैं शादी ना ग़मनाकी-7
ना मैं विच पलीति पाकी-8
ना मैं आबी ना मैं खाकी-9
ना मैं आतिश ना मैं पौण-10


बुल्ला कि जाणां मैं कौन ?


1-ना मेरी मस्जिद में आस्था है. 2- ना व्यर्थ की पूजा पद्धतियों में.
3- ना मैं शुद्ध हूँ ना मैं अशुद्ध. 4-मैं नहीं वेदों और धर्मग्रंथों में हूं.
5- ना ही मुझे भांग या शराब की लत है 6- ना ही शराब सा मतवालापन
. 7- ना तुम मुझे पूर्णतः स्वच्छ मानो. 8-ना ही गंदगी से भरा हुआ.
9-ना जल, ना थल. 10-ना अग्नि ना वायु


ना मैं अरबी ना लहोरी-1
ना मैं हिन्दी शहर नगौरी-2
ना हिन्दु ना तुर्क पेशावरी-3
ना मैं भेद मज़हब दा पाया-4
ना मैं आदम हव्वा जाया-5
ना मैं अपणा नाम कराया-6
आव्वल आखिर आप नूँ जाणां-7
ना कोइ दूजा होर पहचाणां-8
मैं थों होर न कोई सियाणा-9
बुल्ला शाह खडा है कौण-10


बुल्ला कि जाणां मैं कौन?


1- ना मैं अरब का हूँ, ना लाहौर का.
2-ना नगौर मेरा शहर है ना मैं हिंदभाषी हूं
3-ना तो मैं हिंदू हूँ, ना पेशावरी तुर्क. 4-ना मुझे धर्मों का ज्ञान है
5-ना मैं दावा करता हूँ कि मैं आदम और हव्वा की संतान हूँ.
6-ये जो मेरा नाम है वो ले कर इस दुनिया में मैं नहीं आया
7-मैं पहला था, मैं ही आखिरी हूँ.
8- ना मैंने किसी और को जाना है ना मुझे ये जानने की जरूरत है.
9-गर अपने होने का सत्य पहचान लूँ.
10-तो फिर मुझ सा बुद्धिमान और कौन होगा?



ना मैं मूसा न फरौन-1
ना मैं जागन ना विच सौण-2

ना मैं आतिश ना मैं पौण-3
ना मैं रहदां विच नादौण-4
ना मैं बैठां ना विच भौण-5

बुल्ला शाह खडा है कौण-6
बुल्ला कि जाणां मैं कौन


1-ना तो मैं मूसा हूँ और ना ही फराओ .
2-ना मैं जाग रहा हूं, ना ही निंद्रा में हूं.
3- ना तो मैं आग में हूं, ना ही हवा में.
4- ना मैं ठहरा हूं, ना लगातार चल रहा हूं
5- मैं बुल्ले शाह आज तक अपने अक्स की तालाश में हूँ.
6- मैं नहीं जानता हूं मैं कौन हूं ?

ROCK ON...


कुछ किताबें जिंदगी में अधूरी छूट जाती हैं..वक्त की हवा के साथ जब भी उस किताब के पन्ने फड़फड़ाते हैं तो हर किसी को यही लगता है कि अगर उसने ये किताब पूरी पड़ी होती तो शायद आज कहानी कुछ और होती....बतौर निर्देशक अभिषेक कपूर ROCK ON से पहले आर्यन नाम से बॉक्सिंग पर एक फिल्म बना चुके हैं...उसका हाल क्या हुआ था...ये बताने की जरुरत नहीं...लेकिन इस बार जेसन वेस्ट के कमाल के कैमरा वर्क के साथ अभिषेक ने ROCK ON से एक नई जमीन तैयार की है...हॉलीवुड में रॉक की दिवानगी को लेकर कई फिल्में बनी हैं जिसमें JAck BlacK की कॉमेडी फिल्म School of ROck जैसी हलकी-फुलकी फिल्मों की भी लंबी कतार है...लेकिन मुंबईया इंडस्ट्री में 1960 के दशक से THE BEATLES और ROLLING STONES का असर दिखना शुरु हो गया था...ये रॉक बैंड अपने आप में कैसे क्रांतिकारी आंदोलन बन गये...इसे ROCK ON देखने का बाद ज्यादा समझा जा सकता है..क्योंकि ये पहली भारतीय फिल्म होगी जो रॉक के जुनून और उसके जोश की कहानी को आधार बना कर तैयार की गई है...चार दोस्त..रॉक का जुनून..जीत की भूख..कामयाबी का नशा..तकरार..प्यार..दोस्ती..फ्लैशबैक..औऱ भी न जाने कितने शब्द इस फिल्म की जमीन को तैयार करने में काम आये होंगे...लेकिन किसी भी फिल्म में निर्देशक के सपने को नई शक्ल देते हैं उसके अभिनेता...औऱ ROCK ON में ये काम किया है अर्जुन रामपाल(joe)..ल्युक कैनी(rob) ...पूरब कोहली(kd)...प्राची देसाई(sakshi)..शहाना गोस्वामी(debbie) और फरहान अख्तर ने...(aditya shroff)
हर किरदार यहां अपनी जिंदगी से लड़ रहा है Joe Mascarenhas(अर्जुन रामपाल) को सिर्फ गिटार बजाना आता है..और कुछ नहीं आता सिर्फ यही एक किरदार है जो पूरी फिल्म में शुरु से आखिर तक संघर्ष करता रहता है...संगीत के लिए..संगीत के साथ..वो सही मायनों में कलाकार है...बाकी सब अपनी जिंदगी से समझौता कर लेते हैं...ROB (ल्युक कैनी) एक संगीतकार के हाथ के नीचे काम करने लगता है...ADITYA (फरहान अख्तर) एक सफल बिजनैस मैन बन जाता है..तो वहीं KD( पूरब कोहली) अपने पिता की ही दुकान का नौकर हो जाता है...हर कोई एक खामोश जिंदगी जी रहा है...औऱ 10 साल पुरानी जिंदगी की परछाई से बाहर आना चाहता है...जब उनका एक बैंड था...अपना संगीत था..जिसका नाम MAGIK हुआ करता था...लेकिन फिल्म के तीन छुपे रुस्तम और हैं वो हैं इसके संगीतकार..शंकर एहसान औऱ लॉय जिन्होंने रॉक की नब्ज़ को भारतीय क्लेवर में बखूबी ढ़ाला है...इसके अलावा दीपा भाटिया की एडिटिंग भी कमाल है...इस फिल्म को देखने के बाद लगा कि 1960 --से 2008 तक यानी पूरे चालीस सालों का वक्त लगा रॉक को हिंदुस्तानी फिल्म में ढ़लने के लिए...बात सिर्फ इतनी है कि कहानियां बहुत हैं पर जोखिम उठाना हर किसी के बस की बात नहीं..बतौर निर्माता औऱ कलाकार फरहान अख्तर इसमें कामयाब हुए हैं...अब उन्हें औऱ अभिषेक को कोई फिसड्डी नहीं कहेगा...



तुषार उप्रेती

कुछ आवाज़ें


आज मन हुआ कि कान
में एक सुऱाख करुं
इसे शोर सुनाई देता है
पर पचा नहीं पाता ये
वो महीन आवाज़ें

ये चीखों को निगल जाता है
पर पेड़ के पत्तों की सांय-सांय
को समझता नहीं,

ये गालियां बरर्दाश़्त करता है
पर पहचानता नहीं मां की आवाज़

कभी जब कोई रोता है अकेले में
ये अनसुनी करता है सिसकियां

जब कभी दुहाई देता है
कोई किसी संबंध की
तब दोनों कान टालते हैं
दुहाई को भी...

इसलिए मन होता है
कि सुऱाख करुं कान में...

ताकि वो कम-से-कम
अपनी आवाज़ तो सुन सके
और मेरे पास लोगों के
सवालों के जवाब में
कहने के लिए इतना तो हो
कि मैं एक कान से सुनकर
दूसरे कान से निकाल देता हूं

इसलिए मैं करना चाहता हूं
सिर्फ एक सुऱाख.....

तुषार उप्रेती



कत्ल

सन्नाटा वहीं है
लोग आगे बढ़ गये हैं,


धूल वैसे ही लेटी है
शव उसमें सड़ गये हैं,


कत्ल तो किया था उसने
वो दोष मुझ
पर मढ़ गये.......



तुषार उप्रेती

चार्ली चैप्लिन यानी हम सब ....



दुनिया ने कभी उसे दुत्कारा था। बाद में उसी दुनिया ने उसे सिर आंखों पर बिठाया... उसने हमेशा अपने आसपास मक्कारी का समुद्र पाया..जिसमें बड़े बड़े मगरमच्छ घात लगाए बैठे थे.. इसलिए पर्दे पर उसने कुछ ऐसी लातें मारी जिसने मक्कारी की कमर तोड़ दी... ये वो लातें थी जो कमज़ोर से दिखने वाले इस शख्स ने अपने से आकार में बड़े..हाथी जैसे शरीर वाले उस आदमी की चूतड़ पर मारी थी..जो भोलेपन के नकाब में अपना मक्कार चेहरा छिपाता था..यकीनन लोग जब ये देखते तो उनके पेट में हंस-हंस के बल पड़ जाते...
ये कारनामा था उस शख्स का जिसे दुनिया चार्ली चैप्लिन के नाम से जानती है...



चार्ली चैप्लिन जिसने दुनिया को पहली बार बताया कि खुद पर हंसने का सुख ही कुछ और है..वो जिंदगी भर दूसरों को हंसाता रहा और जिंदगी उसे हर वक्त रुलाती रही... शायद इसलिए उसने एक बार कहा था कि 'मुझे बारिश में रोना पसंद हैं क्योंकि आपका दुख आप तक ही रहता है'... कभी लंदन की गलियों में पागल मां के प्यार के लिए भटकता भूखा चार्ली आने वाले दिनों मे इतना मशहूर होगा ये किसी ने भी नहीं सोचा होगा.. उसकी शख्सियत से डर कर जापान के आतंकवादियों ने उसकी हत्या करने की योजना बनाई थी.. वो समझते थे कि उसकी हत्या से बौखलाकर अमेरिका जापान में दूसरा विश्व युद्द शुरु होगा.. चार्ली उन दिनों अपनी लोकप्रियता के चरम पर था औऱ उन दिनों अमेरिका में रह रहा था.. बाद में जब आतंकवादियों को ये पता चला कि चार्ली अमेरिका का गौरव नहीं बल्कि ब्रिटेन के नागरिक हैं तो उन्होंने उसकी हत्या का विचार त्याग दिया...


उसने जिंदगी भर कई महिलाओं से संबंध बनाए पर अफसोस वो जिंदगी भर अकेलेपन से जूझता रहा.. साथ रहा तो बस हेटी केली नाम की लड़की से प्यार का अहसास..जो उसे कभी न मिल पाई... उसके साथ अगर जिंदगी में किसी ने दिया तो वो था उसका भाई सिडनी चैप्लिन और उसकी कला..यानि कि उसकी फिल्में जैसे द ट्रैम्प, सिटी लाईट्स,द ग्रेट डिक्टेटर(जो हिटलर की खिल्ली उड़ाती थी), लाइमलाइट... इत्यादि...
दुनिया ने शायद ही कभी इतना ताकतवर चरित्र पर्दे पर कभी देखा हो... वो पिट कर भी पीट देने की प्रेरणा देता है.. उसने फिल्में नहीं सपने बेचे एक ऐसे समाज को जो सिर्फ अपने तक क्रेंद्रित था.. उसने बताया कि भोलेपन से भी मक्कारों की इस दुनिया को जीता जा सकता है...



तुषार उप्रेती

गुलामी

आज फिर कुछ ख्याल फेंके हैं शाह ने
दौड़ पड़े हैं सारे गुलाम,
हाथ में कुछ कल-पुर्जे लिए
हर कोई फुर्सत से बीन रहा अपने
हिस्से के ख्याल को....
अपने हाथों से तराशकर ये देंगे
ख्याल को एक नई शक्ल....
कोई मीनार बनाएगा,कोई जहाज़ तो कोई ताजमहल...
और ईनाम में पाएगा दो कटे हाथ...
लेकिन कोई तो होगा जो ख्याली पुलाव बनाकर
खुद की आज़ादी का ख्वाब बुनेगा....



तुषार उप्रेती

उम्मीदें अभी बाकी हैं...

और कोशिशें भी जारी हैं....

हाथ में फिर से क़लम पकड़ने की तैयारी है....



सीने में लावा है..

दिल में अज़ाब (तूफ़ान) है...

उंगलियां अब मुट्ठी हैं...

हर लफ़्ज़ इंक़लाब है...







- पुनीत भारद्वाज

कमाल के कमल


कमल हासन की दशावतारम को अगर अजूबों का पुलिंदा कहा जाय तो कुछ गलत नहीं होगा... दशावतारम के साथ भारतीय सिनेगा में कई चीजें पहली बार होगीं... जैसे पहली बार किसी भारतीय फिल्म का बजट डेढ़ अरब बैठा है इस लिहाज से दशावतारम अब तक की सबसे महंगी भारतीय फिल्म बन गई है... पहली बार एक ही अभिनेता दस अलग अलग किरदारों को एक साथ निभागेगा...दशावतारम के लिए पहली बार पांच एकड़ जमी पर पानी जमा कर सेट तैयार किया गया... पहली बार हेलीकॉप्टर पर चेन्नई के आस पास के इलाकों में इतने करीब से शूटिंग की इजाजत दी गई... अब तक भारत सरकार ने बड़े महानगरों में इस तरह की शूटिंग पर मनाही थी... जब हमने आपको फिल्म के बारे में इतना कुछ बताया है, तो चलिए आपको फिल्म ‘दशावतार’ की कहानी की एक झलक भी दिखला दें। इसकी कहानी एक ऐसे वैज्ञानिक की है, जो वक्त के साथ चलने वाली एक मशीन का अविष्कार करता है, लेकिन कुछ शैतानी ताकतें उसका गलत इस्तेमाल करना चाहती हैं। इसे बचाए जाने की कोशिश में ये मशीन तमिलनाडु में रहने वाली एक बूढ़ी महिला के हाथ लग जाती है। दक्षिण के सुपरस्टार कमल हासन ने फिल्म ‘दशावतारम’ में दस अलग-अलग भूमिकाएं निभाई हैं। इस फिल्म में कमल हासन वैष्णव संप्रदाय के अनुयायी से लेकर जॉर्ज बुश तक के किरदार में दिखाई पड़ेंगे।  पर जरा सोचिए कि 80 साल की बूढ़ी महिला से लेकर अगर वे चीन की एक मार्शल आर्टिस्ट, वैज्ञानिक और पंजाबी गायक जैसी भूमिका में दिखें तो कितनी दिलचस्प बात होगी। आइए हम आपकी जानकारी में कुछ और इजाफा करते हैं। कलम हासन इस फिल्म में जिन दस किरदारों में दिखेंगे उनके नाम होंगे रंगराजा नांबी, बलराम नायडू, गोविंद रामास्वामी, अवतार सिंह, कृष्णवेणि पट्टी, किश्चियन फ्लेट्ज़र, शिग़्हेन नारहसी, जॉर्ज बुश, विन्सेंट पूवारगन और कैलीफुल्ला खान। फिल्म ‘दशावतारम’ में ऐतिहासिक, वैज्ञानिक, फंतासी, धार्मिक और अत्याधुनिकत जमाने से जुड़ी घटनाओं को दृश्याने के लिए कला निर्देशन के पहलू पर भी काफी ध्यान दिया गया है। फिल्म के कला निर्देशन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता समीर चन्दा और थोट्टा ईरानी की मदद भी ली गई है... दिलचस्प बात तो यह है कि इस फिल्म में सूनामी को दर्शाने के लिए 5 एकड़ जमीन पर पानी जमा करके उसे समुद्र का प्रभाव दिया गया। इस खास दृश्य के लिए अमेरिका से एक विशेष टीम ने आकर इस जमे हुए पानी में लहरों का प्रभाव उत्पन्न किया। जरा सोचिए, कि सूनामी के एक दृश्य को फिल्माने के लिए फिल्म ‘दशावतार’ की टीम ने इतनी मेहनत की है, तो फिर पूरे फिल्म के लिए उन्होंने अपनी पूरी कला ही दांव पर लगा दी होगी। इस फिल्म की पटकथा 12वीं शताब्दी के भारत से शुरु होती है, और फिर पहुंचती हैं आज के जमाने में। ‘दशावतारम’ की कहानी के जरुरतों के मुताबिक की फिल्म की शूटिंग कन्याकुमारी, चेन्नई से लेकर मलेशिया, वाशिंगटन, टोक्यो, न्यूयॉर्क, लॉस एजेंल्सि और फ्लोरिडा तक जाकर फिल्माई गई है। इस हफ्ते ही रिलीज होने वाली फिल्म ‘दशावतारम’ के 1000 प्रिंट जारी किए गये हैं, जो कि दक्षिण भारतीय सिनेमा के क्षेत्र में एक अनोखी पहल है... भारतीय सिनेमा में ऐसा पहली बार होगा कि एक ही फिल्म 40 देशों में एक साथ रिलीज की जाएगी। फिल्म ‘दशावतारम’ की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मद्रास विश्वविद्यालय, तंजौर विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों की विशेष समिति ही नहीं बल्कि तमिलनाडु के पुरातत्वविद विभाग भी फिल्म के लिए शोध पत्र, और ऐतिहासिक तथ्य जुटाने में लगा हुआ है। इसका मकसद है कि फिल्म की कहानी और पटकथा की प्रामाणिकता को बनाए रखना। रावण के दस सिर थे और ‘दशावतारम’ फिल्म में कमल हसन के दस किरदार हैं। हालांकि हिंदी बेल्ट के दर्शकों को अभी दशावतारम के लिए दो हफ्तों का इंतज़ार करना होगा... लेकिन इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि दक्षिण भारत के सिनेमाघरों में रिलीज से पहले ही २० लाख टिकिट बिक चुकी थीं और वहां के सारे हॉल अगले एक महीने के लिए एडवांस बुक हो चुके हैं...
देवेश वशिष््ठ खबरी
9811852336

किरदारों पर दांव



कहते हैं कि कुछ पात्र कभी नहीं मरते... कुछ किरदार दर्शकों के दिलों पर ऐसा अक्स छोड़ जाते हैं जो गुजरते वक्त के साथ धुंधला होने की जगह और गहराता जाता है... फिल्म इंड्रस्ट्री में ऐसे किरदारों को भुनाने का दौर नया नहीं है... हॉलीवुड में तो ये फैशन है ही पर अब बॉलीवुड भी हर हिट किरदार को दोबारा भुनाना चाहता है... नगीना में श्री देवी की नागिन और सपेरे की दुश्मनी दुनिया ने देखी... फिल्म सुपर डुपर हिट रही और श्री देवी की नागिन ऐसा ही न भूलने वाला किरदार बन गई... लेकिन जब श्री देवी नागिन बनकर दोबारा निगाहों के ज़रिये पर्दे पर आईं तो वो दर्शकों के निगाहों में जगह नहीं बना सकीं... ये मिसाल भर है कि हिंदी फिल्म इंड्रस्ट्री में सिक्वल बहुत सफल नहीं रहे हैं... वास्तव में संजय दत्त मुंबई के डॉन बने तो दर्शकों ने उनकी अदाकारी का खूब सराहा... लेकिन वास्तव के सिक्वल हथियार में संजय दत्त के साथ शिल्पा शेट्टी की जोड़ी को खारिज कर दिया... लेकिन सिक्वल फिल्मों के लगातार प्लॉप के बाबजूद दमदार किरदारों का मोह डायरेक्टर नहीं छोड़ पाये... सिक्वल फिल्मों के प्रयोग में सिनेमा के साहूकारों को मोटा मुनाफा दिखाई देता है नहीं तो यशराज फिल्म्स, राकेश रोशन और विधु चोपड़ा जैसे बड़े बैनर सिक्वल पर इतना पैसा नहीं लगाते... लेकिन यहां ये बात भी ध्यान देने वाली है कि एक हिट फिल्म की सफलता से उसी किरदार पर बनने वाली दूसरी फिल्मों से उम्मीदें बढ़ जाती हैं और इसीलिए सीक्वल बनाने के लिए खास तौर पर तैयारी की जरूरत होती है...निर्माता निर्देशक पर दबाब होता है कि वो पिछली फिल्म से बेहतर फिल्म बनाए क्योंकि लोग सिक्वल फिल्म सिर्फ इसलिए देखने नहीं जाते कि फिल्म बेहतर हो बल्कि लोग उस फिल्म की पुरानी फिल्म से तुलना भी करते हैं... हॉलीवुड के जेम्स बॉण्‍ड की तर्ज पर हो सकता कि संजय दत्त मुन्ना भाई २, ३, ४, और ५ में भी देखने को मिलें... मुन्नाभाई एमबीबीएस के हिट होने के बाद लगे रहो मुन्ना भाई भी जबर्दस्त हिट रही थी... हिट सीक्वल फिल्मों में फिर हेरा फेरी का नाम भी शामिल है जो जबर्दस्त कॉमेडी फिल्म हेरा फेरी की सिक्वल है... एक्शन फिल्मों में धूम के बाद धूम २ आई पर सफल हुई सुपरनेचुरल पावर पर बनी कोई मिल गया की सिक्वल कृष... अब सुनने में आ रहा है कि घायल, नो एंट्री और रंग दे बसंती जैसी फिल्मों के सिक्वल की भी तैयारी चल रही है... यानी हिट फिल्मों के रीमेक को भले ही दर्शकों ने सिरे से खारिज कर दिया हो पर हिट किरदारों के सिक्वल पर अभी फिल्मकारों का भरोसा बना हुआ है...
देवेश वशिष््ठ खबरी
9811852336

पेन की स्याही, सूखी तो समझ आया...


प्यासा छोड़ कर एक बार फिर थम गई बारिश
और बेचारा संमदर बह गया सब...
रातभर की नींद को गिरवी रखा है...
और दिन की चांदनी को पी गया रब...
फिर मिलेगी तंग छुट्टी घूम आऊंगा...
दूर... बहुत दूर... वहीं पर रह गया सब...
जैसे नुकीली बालियां गेहूं की, सोने की...
टकटकी में ही रहा और कट गया सब...
मां का, पिताजी का, बहनों- दोस्तों का
ना पता ये सारा हिस्सा छंट गया कब...
पेन की स्याही, सूखी तो समझ आया...
स्याह सा एक दौर था... और खप गया सब...
दूर सीसा था... और बीच में बादल
रोशनी जब ना रही तो छंट गया सब...
किताब तूने दी मुझे दर्दों के गीतों की...
तोहफा था पहला इसलिये यूं रट गया सब
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336

ये वो सहर तो नहीं...एक थी हॉकी..


अब फिर से सारा देश मुंह फुलाएगा..खिलाड़ियों को कोसेगा..फेडरेशन को गलियाएगा...ध्यानचंद दादा कि याद में टेसुए बहाएगा..इसी बहाने सही पर जनाब लोगों को हॉकी की याद तो आएगी..पता तो चलेगा कि एक खेल है जो राष्ट्रीय होने का दम भरता है..वैसे परिवर्तन प्रकृति का नियम है तो जानकारों को समझना चाहिए कि झुके हुए कंधों के साथ अपन कब तक ये बोझ सहेंगे..ऐसे में कोई ये सुझाव दे डाले कि इस देश का राष्ट्रीय खेल क्रिकेट होना चाहिए तो अचरज नहीं होगा..क्योंकि यहां का नियम,नीयत और नियति तीनों क्रिकेट है..आप सोचेगें कि अपन भी उसी बेहस के वक्ता हैं जो क्रिकेट बनाम हॉकी पर बोलना पसंद करते हैं..लेकिन हुजूर आप खुद ही सोचिए कि जब किसी चीज़ का खात्मा हो जाए तो परिवर्तन होना लाज़मी है..उदाहरण के लिए मान लीजिए कल को बाघ खत्म हो जाते हैं जो हाशिए पर हैं..कुछ चैनल तो बाघ बचाओ का नारा भी दे बैठे हैं..तब आप क्या करेंगे?क्या तब भी आप बाघ हमारा राष्ट्रीय पशु है कि लकीर पीटते रहेंगे..ऐसे में समझदारी यही है कि सड़कों पर आवारा से घुमने वाले कुत्तों को राष्ट्रीय पशु घोषित किया जाए...
इसी तरह हॉकी के खत्म होने से पहले कुछ जुगाड़ करलें तो अच्छा होगा..फजीहत से बचा जा सकेगा..वैसे भी 80साल में पहली बार ओलंपिक के लिए क्वालिफाई करने में नाकाम होने के बाद अपने पास कोई खास ऑप्शन तो बचा नहीं..न ही क्रिकेट की तरह यहां कोई शाहरुख खान पूरी की पूरी टीम की बोली लगाने वाला है..यानी अब इससे बुरा क्या होगा..भले ही खिलाड़ियों को ऐस्ट्रो-टर्फ पर खेलने को न मिले, भले ही अपने पास सपोर्ट स्टॉफ की कमी हो, भले ही अपन हॉकी से ज्यादा खुद की कुर्सी को लेकर चिंतित हों..एक सर्वे बताता है कि भारतीय खिलाड़ी 18-19 साल की उम्र में जब एस्ट्रो टर्फ पर खेलना शुरु करता है..तब तक पोलैंड समेत कई देशों के बच्चे एस्ट्रो-टर्फ पर हज़ार से भी ज्यादा मैच खेल चुके होते हैं..ये हाल सिर्फ हॉकी का ही नहीं है बल्कि अभी कुछ दिनों पहले बैडमिंटन के खिलाड़ियों को शटलकॉक की कमी की वजह से काफी दिक्कतें आई थी..समरेश जंग जैसे हाई लेवल के शूटर को सरकार एक बढ़िया पिस्टल तक मुहैया नहीं कराती.. ऐसे में हॉकी के अलावा बीजिंग ओलंपिक में बाकी खेलों का क्या हाल होगा ये तो हम देखेंगे ही..नहीं देखेंगे तो 8 बार ओलंपिक विजेता भारतीय टीम के जौहर जो हार के बावजूद सुर्खयां तो बटोरती थी..अब जब खेलना ही नहीं है तो खबरों की दुनिया में गुम हो जाने का खतरा बराबर बना रहेगा..कई बार ताज्जुब भी होता है कि एक छोटा सा आर्टिकल चक दे इंडिया जैसी फिल्म का आइडिया दे जाता है..लेकिन इतनी बड़ी हार के बावजूद भी हॉकी फेडरेशन के कान पर जूं तक नहीं रेंगती..ये वो सहर तो नहीं जिसकी हमने कल्पना कि थी..गिल साहब आप सुन रहे हैं न..वैसे गिल को गाली देना वैसा ही है जैसा अफ्रीका के जंगलों मे अफ्रीकी करते हैं..ये पहले किसी इंसान को बारिश का देवता बनाते हैं..उसे सम्मान देते हैं..और जब बारिश नहीं होती तब उसे राजगद्दी से उतारकर जूते मारते हैं..हम भी तो कुछ ऐसा ही करते हैं..1994 में गिल के आने के बाद से 15 कोच बदले जा चुके हैं..लेकिन हॉकी अब भी हाशिए पर है..गिल को भी भगाकर देख लें..हालात ज्यादा सुधरने वाले नहीं..लेकिन इतना तो तय है कि गिल को अब जाना चाहिए..पहले ही पूर्व खिलाड़ी आईएचएफ को भंग करके एडहॉक कमेटि बनाने की मांग कर चुके हैं..इससे ज्यादा बुरा अब क्या होगा..

तुषार उप्रेती

मुझे कार्नर वाली सीट चाहिए....डोंबिविली फास्ट


हमारे आसपास इतनी गंदगी है कि सच झूठ का फैसला करना बेहद मुश्किल हो गया है..ऐसे में अगर अपनी जिंदगी की जद्दोजेहद से कुछ पल फुर्सत के मिल जाएं तो आदमी सोचने पर मजबूर हो जाता है कि वो अपने नहीं बल्कि एक भीड़ के साथ जी रहा है..जो रोज़ सुबह उसे नींद से जगाती है..उसे खाना खिलाती है..दफ्तर के लिए तैयार करती है..बस या ट्रेन में सफर कराती है औऱ फिर वही भीड़ शाम तक न जाने ऐसे कितनी शख्सियतें निगल जाती हैं.. हम सब रोज़ ऐसे ही जीते हैं..औऱ जीते रहेंगे खासकर तब तक जब तक कि इस रुटीन से अपन चिढ़ न जायें..
कुछ ऐसा ही कहती है निशीकांत कामथ कि फिल्म 'डोंबिविली फास्ट' जिसमें एक आदमी खुद को भीड़ से अलग करने के चक्कर में मारा जाता है..वो भी ऐसे में जब सारी दुनिया गांधीजी के तीन बंदरों जैसी जिंदगी बसर कर रही है...शहर है,भीड़ है, बुराई है पर किसी को न तो वो नज़र आती है, न सुनाई देती है..ऐसे में संदीप कुलकर्णी के सामने इतना कुछ घटता है कि वो खुद को अच्छाई के रास्ते पर चलने से रोक नहीं पाता..ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि बुराई के लिबास में जीते जीते कभी कभी इतनी सडन होती है कि आदमी के अंदर की अच्छाई छलांग लगाकर बाहर आना चाहती है..क्योंकि कई बार चुप्पी भी बुराई का सबब होती है.. किसी कवि ने कहीं लिखा है..
हम चुप रहे कि सब चुप हैं
वो चुप रहे कि हम चुप हैं
आओ बात करें उस चुप्पी पर
जिसे लेकर हम इतने समय तक चुप्प रहे..


मैनेजर चाहता है कि माधव आपटे(संदीप कुलकर्णी) कुछ भी ले देकर एक फेक बिल पास करे,माधव कि पत्नी मीडिल क्लास जिंदगी से तंग आ चुकी है, मोहल्ले में पानी सप्लायर पानी देने के पैसे मांगता है,दुकान वाला टैक्स चोरी करने के चक्कर में हर चीज़ एमआरपी से ज्यादा पर बेचता है..ये सारी बातें मिलकर माधव को फरस्ट्रेट करती हैं..नतीजा हिंसा में बदलता है..बंदा एक क्रिकेट का बल्ला लेकर मुंबई को सुधारने निकल पड़ता है.. नतीजा सारे शहर में दहशत फैल जाती है..
पुलिस माधव को पकड़ने में नाकाम रहती है तो उसे मारने पर तुल जाती है..घटनाएं,घटनाएं औऱ घटनाएं..और उन्हें फिल्माने के रोचक अंदाज़ में फिल्म कब खत्म हो जाती है..पता नहीं चलता..माधव आपटे उसी ट्रेन में मारा जाता है जिसमें रोज़ सफर करता था..आफिस जाते वक्त..गोली लगने के बाद वो इंन्सपेक्टर को सिर्फ इतना कहता है कि मुझे कार्नर वाली सीट पर बैठा दो..औऱ खिड़की खोल दो.. क्योंकि वो जिंदगीभर खड़े खड़े ही सफर करता आया है..


तुषार उप्रेती

सफर एक कहानियां तीन....मीनाक्षी..


बतौर चित्रकार एम.एफ हुसैन ने अपनी कूची से कई चित्र बनाए हैं...उन्हें समझना बिल्कुल वैसा ही है जैसे किसी मजदूर की कूची से पुती दिवार में चित्रकारी ढूंढना...लेकिन हुसैन की चित्रकारी की तरह ही उनकी फिल्म मीनाक्षी में भी कुछ बात जरुर है..जो लंबे समय तक फिल्म से बांधे रखती है..रंगों का खेल सिनेमाई कैनवस पर उन्होंने बखूबी किया है..संतोष सीवन ने बतौर सिनेमाटोग्राफर इसमें उनका बखूबी साथ दिया है.. हर दृश्य अपने आप में नई पेंटिंग सा लगता है... हुसैन ने रेगिस्तान से लेकर प्राग तक अपने अनुभव का उम्दा इस्तेमाल किया है.
हर शहर की अपनी दास्तान होती है..जहां किरदार भी लगभग वैसे ही होते हैं..बदलते हैं तो सिर्फ चेहरे..ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है कि आजकल समस्याएं ग्लोबल हो गई हैं जिसने हर जगह के लोकलाइट को अपनी पकड़ में ले रखा है..जैसे शहर अलग-अलग हैं पर अकेलापन वही है..
इस फिल्म में लेखक रघुवीर यादव से लेकर, मीनाक्षी तब्बू और कार मैकेनिक कुणाल कपूर तक सभी की एक ही समस्या है अकेलापन..लेखक सोचता है कि उसकी कहानी में किरदार अब बासी हो चुके हैं..इसलिए वो एक ऐसी कहानी तलाशता है जिसमें कुछ नयापन हो..मुलाकात होती है इत्र बेचने वाली तब्बू से..जो अपनी जिंदगी को इतना दिलचस्प समझती है कि उसके मुताबिक उसका जीवन लेखक के लिए उपन्यास लिखने का एक सब्जेक्ट हो सकता है..दूसरी तरफ मैकेनिक मियां हैं जो बचपन के थपेड़ों से अब तक उबर नहीं पाये हैं..बनना चाहते थे म्यूज़िशियन औऱ बन गये कार मैकेनिक..
इधर उधर किरदारों की तलाश में भटकते लेखक को लगता है कि अपने आसपास के वातावरण से किरदारों को चुन कर उन्हें कहानी के सांचे में ढालना बेहद मुश्किल है..फिर भी वो नयेपन के लिए ये चुनौती स्वीकार करता है..अंतत: होता ये है कि किरदार लेखक से ज्यादा ताकतवर हो जाते हैं..और लेखक कि जिंदगी की कहानी लिखने लगते हैं..ये है क्या..समझने में देर लगेगी फिल्म देखिए धन्य हो जाएंगे...





तुषार उप्रेती

दर्द में भी इक मज़ा आने लगा...

ज़ख़्म-ज़ख़्म सर उठाने लगा
अब तो दर्द में भी इक मज़ा आने लगा

बीता कोई लम्हा मुस्कुराने लगा..
अब तो दर्द में भी इक मज़ा ने लगा

उसकी यादों का मौसम फिर से छाने लगा
अब तो दर्द में भी इक मज़ा आने लगा

बे-साया था मैं....मुझको वो अपनाने लगा
अब तो दर्द में भी इक मज़ा आने लगा

मैं बेहोश था..अब मैं होश में आने लगा
अब तो दर्द में भी इक मज़ा आने लगा

ज़ख़्म-ज़ख़्म सर उठाने लगा
अब तो दर्द में भी इक मज़ा आने लगा
अब तो इस दर्द की आदत सी हो गई है
उस हमदर्द की आदत सी हो गई है..

- पुनीत भारद्वाज

सब ऊंगली का खेल है मेरे भाई....



ऊंगली इतनी important होती है इसका पता अपन को काफी दिनों बाद चला..बचपन में नाक औऱ कान में ऊंगली डालने पर टीचर अक्सर डांट पिलाती थी..छी छी छोटा बाबा तुम कितना गंदा है..नाक में ऊंगली डालता है..तब से अपन को लगा कि ऊंगली कुछ ऊल जलूल चीज़ है..लेकिन मीडिया में आये तो पता चला ये ऊंगली बड़े काम की चीज़ है..ये आपके लिए सुदर्शन चक्र साबित हो सकती है..आपके अच्छे-अच्छे दुश्मनों के गले काट सकती है..किसी के भी काम में ऊंगली करो और बन गये आप बॉस फेवरेट..इसलिए ऊंगली करना और ऊंगली को झेलना दोनों सीखिए...सफलता आपके कदम चूमेगी..हां ऊंगली कहां कहां की जाती है..ये आपको सीखना पड़ेगा..



तुषार उप्रेती

शायर औऱ नज़्में


वो जो सपनों को झांकते हुए देखता था
वो जो आसमान की गिरेबान में सरेआम पत्थर फेंकता था
वो शायर अब नहीं रहा,
बची हैं तो बस ये नज़्में....

जो सुकून में बैठी किसी के लबों को
चूम रही हैं,
खुदगर्ज़ हैं साली
जब वो जिंदा था तब उसके दर्द पर
फाहे डालती थी...
अब उसकी गैर-मौजूदगी में सरगोशियां करती हैं...


तुषार उप्रेती

ये तारे सच्चे लगते हैं...




सूरज दिनभर जलता है

रात में चंदा चलता है

साथ में तारे जगते हैं

जग-मग, जग-मग करके ये

कोई इशारा करते हैं

देखो वो तारा टूट गया

वो आसमान से रूठ गया

चुपचाप ही सबकुछ सहते हैं

फिर भी ये ख़ुश रहते हैं

रात में ड्यूटी करते हैं

और दिनभर सोते रहते हैं

पर टाईम से ये उठ जाते हैं

हर रोज़ नहाकर आते हैं

ना ये छुट्टी लेते हैं

और ना ये बंक लगाते हैं.........




- पुनीत भारद्वाज



दूरियां......


















माना के दूर होते हैं...
जब हम पास होते हैं..
और इन फ़ासलों में
भले ही मन उदास होते हैं..




जितने भी दूर हो हम-तुम
तो क्या हुआ ऐ दोस्त...
कुछ एहसास हैं जो
बेहद ख़ास होते हैं...



ये फ़ासलें तो बस नज़र का धोख़ा है....
हरदम तेरे ख़्याल तो मेरे आस-पास होते हैं...







- पुनीत भारद्वाज

जियांशु....


मासूम हंसी, चंचल छवि
घर-आंगन महकता गुलशन
जाने क्यूं, आखिर क्यूं
झटपट से गुज़रता है बचपन
कोई थाम ले डोर,
और रोक ले दौर
क्योंकि फिर ना आएंगे वो दिन
और फिर ना मिलेगा ये बचपन....
(मेरे भतीजे जियांशु और सभी मासूम, नन्हें-मुन्ने बच्चों के लिए )

कुछ ऐब


जीने के लिए एक ऐब पालना चाहिए
कुछ सवालों को सवालों से संभालना चाहिए

कहां-कहां ढूंढेंगे जवाबों को
कुछ वक्त अपने लिए भी निकालना चाहिए

उम्र के हर फासले पर फैसला न करो
कभी कुछ सिक्कों को यूं ही उछालना चाहिए

ऐब न हो तो हौंसला न हारें
कुछ हसीन किस्सों को फिर से खंगालना चाहिए

कभी न कभी तो बदलेगी ये सूखी फिजां
मिट्टी के घरौंदों पर एक छप्पर तो डालना चाहिए..


तुषार उप्रेती

गुस्सा

एक बारीख सी सांस ने अभी अभी
पिया है गर्म सा गुस्सा
नथूनों में एक जलन सी हो रही है
ये सांस भीतर ही भीतर
फुफकार रही है..

चीभ पर गालियों से छाले पड़े हैं
अंदर ही अंदर मैं अपने ज़हर से मर रहा हूं

धड़कनें अब पूछ कर धड़क रही हैं
दिमाग में बसी यादों से खून रिस रहा है
शरीर पर जख्मों से बना एक मिनार तैयार है


एक बारीक सी सांस ने अभी अभी
पिया है गर्म सा गुस्सा....



तुषार उप्रेती