उस दिन अचानक कई खौफ एक साथ मेरे ज़ेहन में लौट आये। मैं आज पूरे तीन सालों बाद उसी के इलाके में खड़ा था। लोग अनजाने चेहरों से ड़रते हैं। लेकिन मेरी खासियत है कि मुझे जाने-पहचाने चेहरों से ड़र लगता है।
यही जगह थी। यही पार्क था। जहां आखिरी बार मैंने उसे देखा था। उस दिन भी उसे कुछ कह न पाया। वो जानती थी। मैं जानता था। सिर्फ अल्फ़ाज़ तलाशने में देरी हो गई और पता ही न चला जिंदगी कब मेरी गिरफ्त से निकल भागी। वक्त, वक्त को धकेल कर जैसे आगे बढ़ जाता है। ठीक वैसे ही आज घुम-फिर के जिंदगी ने वहीं ला पटका। जेब से फोन निकाला। ड़रते-ड़रते नंबर मिलाया। ऊंगलियां पहले से ही अपने प्रेमी नंबर से वाकिफ थी। अचानक से उससे जा लिपटी। और टेलिफोन की घंटी बजती चली गई।
‘हैलो’..।ओफ्फ ..वही मासूम आवाज़। ‘मैं बोल रहा हूं’..फिर कुछ देर चुप्पी छा गई।
ये जानने के लिए कि कहीं फोन का नेटवर्क जिंदगी की तरह द़गा न दे गया हो। मैंने चुप्पी को तोड़ते हुए कहा.. ‘पहचाना’ जवाब मिला ‘हां’।
ये लड़की बिल्कुल नहीं बदली। कभी कभी सोचता हूं प्यार की फितरत होती है, न बदलना।फिर वही रटे-रटाये मुहावरे जेहन में कौंधते हैं कि ‘जिंदगी परिवर्तन का नाम है’, ‘पानी की तरह बह जाती है’ वगैरह वगैरह। तो लगता है शायद बदल गई हो।
‘तुम्हारे इलाके मे खड़ा हूं मिलोगी मुझसे’ बिना कांफिडेंस के कहा तो डर सा लगा।
जवाब मिला ‘हां’
‘कहां’-मैंने पूछा।
‘वहीं जहां पहले मिलते थे’
वहीं जहां पहले मिलते थे। उसके इन शब्दों का मतलब मैं बखूबी जानता हूं। उसके इलाके में गलियों को निगलने वाली एक सड़क बनाई गई थी। वहीं पर पास में एक चाट-भंड़ार था। अक्सर वहीं मिलना हुआ करता था।
कुछ और कहने की हिम्मत न मुझमें थी, न उसमें। तो वक्त तय करके मैं अपना आफिशियल काम निबटाने चला गया।
..दिन के तीन बज चुके थे। इसलिए सड़क पर रिक्शा नहीं मिल रहा था। सबके सब कमबख्त सुस्ता रहे थे। ओटो पकड़ा और तयशुदा जगह पहुंचा।
वो पहले से मौजूद थी। मैं भी जाकर उसके साथ खड़ा हो गया। वो बोल रही थी मैं सुन रहा था। लेकिन शायद नहीं सुन रहा था। जब बातें अपनी मंजिल तक पहुंचने लगती तो मैं किसी पुराने किस्से को खोल बातों का रुख उस ओर मोड़ देता। पागल था, मैं। रेत को मुट्ठी में ज़ोर से दबाने से क्या वो आपकी हो जाती है। बातों मे सिर्फ इतना जान पाया कि वो अब शादीशुदा है। एक दो साल की छोटी बच्ची की मां भी है। लेकिन लगा बिल्कुल नहीं। वर्किंग वुमेन है न , शायद इसीलिये। किस्सों को ब्रेक लगा तब,जब एक आदमी ने उसका नाम पुकारा...अराधना....। कितना बेसुरा था उस मुंह से ये नाम। मैंने तो हमेशा इसे इबादत की तरह सुना था, पर ये क्या?
एक बंदा हमारे सामने खड़ा था। कहने की जरुरत नहीं वो उसका पति था। सारी बेफिक्री काफूर हो गई। मैंने थोड़ी देर के लिए खुद को जकड़न में पाया। पहला सवाल जो उस शख्स ने अपनी बीवी से नहीं मुझसे पूछा ...अमित राइट? यस , मैंने एक नकली मुस्कराहट से कहा।…. ‘तो जनाब आप हैं जो हमारी मोहर्तमा को कॉलेज में सताया करते थे’… बंदा बेबाकी से बोल गया। आखिर क्यों सताते थे इन्हें इतना?
‘अगर सताता नहीं तो मुझसे शादी न कर लेती आपसे क्यों करती?’ मैंने कुछ सहज होते हुए कहा।
फिर क्या था? जब इस इलाके में आया तो अकेला था,फिर दुकेला हुआ और अब तिकेला हो चुका था। यहां वहां की बाते हुईं। ठहाके लगे। बीच-बीच में कई बार चुप्पियों भी आईं। लेकिन कहते हैं न कि खून के रिश्ते समेटने आसान होते हैं। बेनाम रिश्ते समेटने बेहद मुश्किल। काफी देर तक वहीं खड़े रहे। रात हो चुकी थी। सड़क के कुत्ते ने भौंख कर हमें बताया कि अब राहगीरों का समय खत्म हो चुका है। मैंने भी दोनों मियां-बीवी से इज़ाज्त चाही। आगे बढ़ने ही वाला था कि उसके पति ने कहा...
‘ घर पर वान्या अकेली है। बहुत शरारती है। अगली बार आयें तो घर आइएगा। वो भी इसी बहाने अपने मामाजी से मिल लेगी’..
कुछ पल के लिए ऐसा लगा जैसे किसी ने कोई अल्फ़ाज ज़मीन पर ज़ोर से पटक कर मेरे सर पर दे मारा हो।
हां,हां जरुर। कहता मैं आगे बढ़ गया। रास्ते में याद आया कि मेरे पास घर का पता तो है नहीं।
खैर मैं आगे बढ़ता जा रहा था । उसका इलाका पीछे छूटता जा रहा था। सारे इलाके में एक ही शब्द था जो गूंज रहा था, वो था मामाजी।............
तुषार उप्रेती.....